वाकई कोई नियम शाश्वत नहीं कहा जा सकता । जरूरी नहीं कि मां, पिता फारसी, अंग्रेज़ी, संस्कृत, उर्दू के ऊंचे विद्वान, बहुत पढ़े-लिखे हों, तभी बच्चों को बेहतर शिक्षा दे सकते हैं । हमारी मां अनपढ़ थीं और पिता दिल्ली शहर में एक मामूली-सी प्राइवेट नौकरी में प्रिंटिंग प्रेस में मशीनमैन थे । हम पांच-सात भाई-बहन सिर्फ मां के साए में, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक गांव में पले-बढ़े । पुस्तैनी काम खेती था । एक मामूली काश्तकार किसान का जीवन ।
मगर मां की नज़रों में न जाने क्या था कि तुरंत टोक देंती, ये तू क्या पढ़ रहा है ? ये तेरे कोर्स की किताब तो नहीं है ! उन्हें अक्षर ज्ञान नहीं था, लेकिन सहज बुद्धि इतनी तेज थी कि तुरंत ताड़ जाती कि ये कोई ऐसी-वैसी फालतू किताब है ।
इतनी हाड़-तोड़ मेहनती कि पूरा गांव लोहा मानता था । जब हम सोकर उठते थे, वह चक्की चला रही होतीं । अंधेरे में जंगल, शौच से निवृत्त होकर । फिर जंगल की तरफ खर, रातिब (जानवरों का खाना) की बाल्टी लेकर निकल जातीं । भैंसों को सानी-पानी देती, दूध दुहतीं और फिर घर वापस । जब हम चौथी-पांचवीं क्लास में आ गए तो हम घर की बजाय घेर पर सोने लगे । घेर यानी कि जहां बैल, भैंस, गाय बंधते थे । एक कोठरी जानवरों के लिए, एक कोठरी-बरामदा हमारे रहने-सोने को । गांव उर्फ घर से करीब एक किलोमीटर पर स्थित । उसी से सटे हमारे खेत थे, जिसे हम जंगल कहते थे । दादा जी घेर पर दिन-रात रहते थे। । उनको लकवा मार गया था, अत: मुश्किल से लाठी के सहारे ही चल-फिर पाते थे । उनको खाना पहुंचाना दोपहर, शाम को हम भाइयों में से ही कोई करता था ।
गर्मी की लंबी दोपहरी के दिन याद करूं तो दादाजी (हम बाबा कहते थे) पढ़ने के बड़े शौकीन थे । रामायण, सुख-सागर, महाभारत और कई तरह के उपन्यास कुशवाहा कांत आदि उनकी निजी मिल्कियत थीं। इतनी निजी कि हम बच्चों को कपड़े की उस पोटली को उनके पास लाने और उनके कहे अनुसार उठा कर रखने की इजाजत भर थी । जैसे बाबाजी को हुक्का-चिलम भरकर देने से कभी-कभी हुक्के के घूंट का स्वाद चखा, वैसे ही किताबों की पोटली बांधकर रखने के बाद उन्हें पढ़ने का । दोपहर का खाना खाते ही इधर बाबाजी के खर्राटे शुरू और उधर हम चुपचाप कभी सुख-सागर, कभी महाभारत लेकर जल्दी-जल्दी पढ़ने लग जाते । दोपहर को यह मेरी नियमित दिनचर्या थी । जैसे कुछ बच्चों को ताश खेलने की, कुछ को दोपहरी भर बंबा (नहर) नहाने या दूसरे खेल, शरारतों की । दोपहर के बाद भैंस चराने के लिए ले जाना एक नियमित कार्य था, जो हम सब भाइयों ने बारी-बारी से किया-8 वर्ष से 12 वर्ष की उम्र तक । बाबाजी के उठने से पहले मैं पोटली चुपचाप उनके सिरहाने रख देता । ऐसा नहीं कि वे मना करते । उन्हें यह डर था कि यदि पुस्तक फट गई तो दोबारा नहीं आ पाएगी और एक बुजुर्ग विकलांग के लिए पुस्तक कितना बड़ा सहारा होती है, हो सकती है, मैं अब बेहतर समझ सकता हूँ ।
मां को भी यह पता था कि हम दोपहरी में किताब आदि पढ़ते हैं । अत: वे भी संतुष्ट थीं । घेर में नीम की घनी छाया में अक्सर और भी ऐसे बच्चे आ जाते, जो थोड़ा-बहुत पढ़ने की तरफ झुकाव रखते थे । ऐसा कई वर्षों तक चला । संभवत: तब तक जब तक मैंने इंटरमीडिएट किया होगा ।
एक-दूसरे को पढ़ने में मदद करने, बड़े बच्चों की किताबें पुश्त-दर-पुश्त छोटों को देते जाना जैसी बातें बहुत आम थीं उन दिनों । सिलेबस (पाठ्यक्रम) भी इतनी जल्दी नहीं बदलते थे । शायद हम पांच भाइयों ने एक के बाद एक वही किताबें पढ़ी होंगी । कई बार वह भी किसी और से ली हुई या आधे दाम पर खरीदी हुई होती थीं । उन पर लिखे नाम आज तक गवाह हैं कि एक ही किताबों से कितने बच्चे अगली क्लास में सरक गए । देश के हित में वही अच्छा था । गरीबी तो खैर थी ही पूरे देश में ।
एक-दूसरे को पढ़ाने से जहां खुद का भी रिवीज़न हो जाता, कुछ नई बातें पता हो जातीं । वहीं ट्यूशन का रोग भी शुरू नहीं हो पाया । बमुश्किल सैकड़ों में कोई एक ट्यूशन करता था, वह भी जो पढ़ने में बहुत कमज़ोर, फिसड्डी-अक्सर गणित, अंग्रेज़ी जैसे विषयों में ।
पढ़ाई हम सबके लिए उस समय का काम था, जब खेती, किसानी का, जानवरों का या कोई और काम बाकी न रहा हो । जैसे सुबह उठते ही बैल, भैंसों को सानी करके हम दो भाई मशीन से कुट्टी काटने में लग जाते । मां घर से आतीं, गोबर हटातीं और दूध निकालकर तुरंत घर पर रोटियां सेंकती । हम कुट्टी काटते ही सरपट स्कूल की ड्रैस पहन, रोटी खाकर या मट्ठा पीकर पैदल स्कूल की तरफ मार्च कर जाते । करौरा स्कूल लगभग तीन-साढ़े तीन किलोमीटर दूर था । पक्की सड़क पर आसपास के गांव के बच्चों का रेला उमड़ जाता था । इक्के-दुक्कों को ही साइकिल नसीब थीं, बसें भी थीं, लेकिन न किसी की सामर्थ्य थी किराया देने की, न कोई बस में बैठने की सोचता था ।
स्कूल जाना-आना एक नियमित खेल का मानो हिस्सा था । यही कारण था कि इनमें से कई बहुत अच्छे धावक, पहलवान बने ।
मेरे जैसों को तेज चलने की आदत स्कूल के उन्हीं दिनों की देन है । कभी-कभी हम तांगे के पिछले हिस्से में बस्ता रखकर उसके पीछे-पीछे तांगे को छूते हुए घोड़े की टपटप के साथ रफ्तार से दौड़ते थे । लौटने में यदि ज़रा भी देर होती तो मां को जवाब देना होता था । कई बार ऐसा भी होता था कि खेतों पर कोई किसानी का काम चल रहा होता—जैसे बुवाई, कटाई, धान रोपना, गन्ने का कोल्हू, मक्का की मुठिया निकालना या सिंचाई का काम । तो मां पहले से ही खाना वहीं ले जातीं । हम स्कूल से लौटते ही खेतों पर ही खाना खाते और जो काम चल रहा होता, उसी पर लग जाते ।
होमवर्क आदि की फुरसत मिली-तो-मिली, वरना अगले दिन के लिए मुल्तवी ।
गांव-देहात में किसानों के बच्चों की पढ़ाई ऐसे ही दबावों में होती है । हम तो खुशकिस्मत थे कि छोटे किसान थे, अपना ही काम था । निपटाया और अपने पढ़ने-लिखने के काम में लग गए । जिन बच्चों के मां-बाप मज़दूर हैं, कभी-कभी बंधुआ मज़दूर हैं और जो गांव के अधिकतर दलित, आदिवासियों का सच है, वे क्यों तुरंत स्कूल से ‘ड्राप-आउट’ हो जाते हैं, इसे समझना मुश्किल नहीं है । देश की अधिकांश आबादी के अशिक्षित रहने के पीछे यही सत्य है ।
काम खत्म होते ही मां यह सुनिश्चित करतीं कि हम तुरंत अपनी-अपनी किताबें लेकर बैठ जाएं ।
कई बार देर रात तक जब हम लालटेन में पढ़ रहे होते तो मां किसी-न-किसी काम को निपटाने में लगी रहतीं—जैसे कभी बथुआ (सब्जी) साफ कर रही हैं तो कभी चने की सब्जी काट रही हैं, सुबह स्कूल जाने से पहले बनाने के लिए तो कभी इम्तिहान के दिनों में लड्डू बनाने में लगी होतीं ।
ऐसा कम ही हुआ होगा कि मां हमसे पहले सोई हों और हमसे बाद में जागी हों ।
पैंसठ वर्ष की उम्र में जब उन्हें अचानक पेट के कैंसर ने पकड़ा और दो महीने के अंदर ही निगल लिया, इससे पहले हमें याद नहीं कि वे कभी बीमार भी हुई हों । तब तक हमने उनकी यही दिनचर्या देखी थी ।
मां की शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष था कि हम सब भाइयों में भूत, प्रेत टोटके, जादू-टोनों में यकीन नहीं करना । गांव में आए दिन ऐसे टोटकों, भूत-प्रेत की गप्पें चलती रहती थीं । हमें नहीं याद कि कभी ऐसे किस्सों में उन्होंने अपनी ओर से कुछ जोड़ा हो । हमारे ही ताउ परिवार की एक भाभी पर आए दिन पीपल वाला भूत आया रहता था । हम रोज तमाशा देखते । कभी उन्हें जूता सुंघाया जा रहा है, कभी कुत्ते की विष्ठा । देखकर भी मितली आने लगती । कभी-कभी लात-घूसों से पिटाई भी । यह जताते हुए कि यह पिटाई भूत या डायन, जो भी उनके सिर पर आ बैठा है, उसकी हो रही है । वैसे ऐसा तब ज्यादा होता था, जब उनका अपनी सास या देवरानी या किसी और से झगड़ा हुआ हो । भाभी इन सबके बीच में बालों को बिखेरकर अंट-शंट बोलते हुए और तमाशा करतीं । मां सिर्फ यह कहते हुए हमें किताबों की तरफ धकेल लातीं कि ‘यह सब नौटंकी है । कहीं कोई भूत नहीं है ।’ जहां पूरा गांव ऐसे तमाशे के बाद एक दहशत में आ जाता हो, वहां एक अनपढ़ मां की यह शिक्षा बहुत बड़ी बात थी । इसलिए जहां गांव के कुछ बच्चे गले में काला धागा बांधे होते, किसी ने बाजू में ‘गंडा’ या कोई अंगूठी या छल्ला पहना होता, मां ने हमें इन सबसे बहुत दूर रखा ।
ऐसा नहीं है कि वे नास्तिक थीं । व्रत अक्सर रखतीं, विशेषकर बृहस्पतिवार को केले का पूजन उनकी नियमित चर्या में शामिल था, लेकिन किसी को दूर-दूर तक भी पता नहीं चलता कि उन्होंने व्रत रखा हुआ है । बिल्कुल गांधीजी की उपवास की परिभाषा में—पाचन तंत्र को भी विश्राम और देश का भी हित । आम दिनों की तरह ही वे दिन भर हमारे साथ खेतों पर काम करतीं । बस खाने से पहले स्नान करके अर्घ्य चढ़ातीं और फिर काम में जुट जातीं । मौजूदा महानगरों की तरह व्रत का मतलब भखर-भखर खाना और पूजा का आडंबर दूर-दूर तक नहीं था ।
मुझे याद नहीं कि उन्होंने कभी किसी ज्योतिषी पंडित को हममें से किसी का भी भविष्य-फल, जिसे सब हाथ दिखाना कहते थे, दिखाया हो । बस यूं हीं जिंदगी की व्यस्तता में उन्हें इस सबके लिए फुरसत ही नहीं थी । हम किसी भाई-बहन की न जन्मपत्री है, न जन्म कुंडली और न किसी का ज्योतिष, ग्रह-नक्षत्रों में यकीन ।
इस शिक्षा ने हमें बेहद हिम्मती और निडर बनाया, इतना कि सर्दियों की रात में नहर से निकले बंबे से खेतों में पानी लगाने (सिंचाई) या रात के सुनसान में हल-बैल चलाने में जंगली जानवर का डर लगा हो तो लगा हो, किसी ऊपरी भूत-प्रेत बाधा ने कभी-भी भयभीत नहीं किया ।
गांव में किसका बच्चा अच्छा पढ़ रहा है और किसे नौकरी मिली है, रात को बतियाते हुए वही हमें बतातीं- धीमे से उपदेश की तरह । उनके एक भतीजे को एम.ए. में गोल्ड मैडल मिला था । उसकी दास्तान तो हम सबको उन्होंने न जाने कितनी बार बताई होगी । वे इस प्रेरणा का अर्थ बखूबी जानती थीं और यह भी कि किन बच्चों या बिगडै़लों की संगत से बचाना है । गांव में दर्जनों बच्चे, नौजवान शाम को किसी चबूतरे, लट्ठे के नीचे या ऐसे ही किसी कोने पर घंटों क्या पूरे दिन ठलुए बैठे रहते थे । हमें भी ऐसी जगह बैठना बड़ा भाता था । जब छोटे थे तो ऐसी ही जगहों पर कंचे या गिल्ली-डंडा या दूसरे खेलों में लग जाते । मां न होतीं तो हम पूरे दिन के लिए बहक सकते थे । वे आतीं और अपने साथ खेतों पर ले जातीं । कभी-कभी पिटाई भी हुई । इससे दो फायदे हुए । एक तो हम आवारगी से बचे रहे और दूसरे घर के कामों को सीखते हुए मां को भी मदद मिली । समय के सदुपयोग का संस्कार मां की इसी शिक्षा ने दिया ।
मां की इन बातों को सोचते हुए इसीलिए मुझे स्त्री शिक्षा या लड़कियों की शिक्षा समाज परिवर्तन का ज्यादा कारगर उपाय लगता है, क्योंकि परिवार या बच्चे को सुशिक्षा के जितने बेहतर संस्कार मां दे सकती है, उतना संभवत: पिता नहीं । गांधी जी स्त्री को इसीलिए देश की सीमाओं पर लड़ने वाले सैनिकों से भी बड़ा योद्धा मानते थे । उनका कहना था कि घर और बाहर दोनों जगह भारतीय स्त्री के सामने ज्यादा बड़ी चुनौतियां हैं । यदि लड़की को बेहतर शिक्षा मिले तो वह पूरी संतति को रास्ते पर ला सकती है ।
लेकिन हिंदी पट्टी में यह मंजिल अब भी बहुत दूर है।
Very good prem pal jeee