मशहूर लेखक सआदत हसन मंटो का यह जन्मशती वर्ष है । पैदाइश 11 मई, 1912 को लुधियाना के पास पड़पौदी गांव में । हाल ही में एक पत्रिका में पढ़ा कि पूरे देश में सिर्फ जालंधर के पास एक कमरे में उनके नाम से बने पुस्तकालय में नाममात्र को भी लोग नहीं आते । न कोई आसपास जानता । तीस-पैंतीस वर्ष तक की नयी पीढ़ी के किसी से भी पूछ लीजिये । मंटो ? ‘कौन ? मेल या फीमेल ? हमने तो कभी नहीं सुना । प्रेमचंद का कभी-कभी बता देते हैं । हॉं ! हिंदी की किताब में उनका नाम था ।’ और रवीन्द्रनाथ टैगोर ? इस नाम को ज्यादातर भारतीय जानते हैं क्योंकि उनकी सौवीं, एक सौ पचासवीं तथा वार्षिकी भी इधर सड़क से संसद तक मनायी जा रही है ।
विभाजन की त्रासदी का बेजोड़ लेखक मंटो अंतिम दिनों में बदहाली में रहा । लाहौर में जहां 1955 में मंटो ने अंतिम सांस ली उस पाकिस्तान में तो अंत तक उनके साहित्य को लेकर फजीहत रही । उनका एक भी नाटक रेडियो पाकिस्तान ने प्रसारित नहीं किया । प्रेमचंद की टक्कर का इतना बड़ा कथाकार और फनकार और इतना अज्ञात ? नई पीढी जानती है चौसर, मिल्टन से लेकर पाउले कोहेलो (एलकेमिस्ट) से लेकर चेतन भगत……को । बी.बी.सी. प्रसिद्ध मार्क टूली के शब्दों में ‘दिल्ली के इन लोगों से तो बात करने में भी डरता हूँ । ये तो शेक्सपीयर और दूसरे अंग्रेजी लेखकों को इंग्लैंड वालों से भी ज्यादा जानते हैं ।’
मेरा मन लौट रहा है मंटो, प्रेमचंद के संघर्षों की तरफ । प्रेमचंद इतनी कम उम्र में इतना विपुल और उत्कृष्ठ लेखन । दुनिया की किसी भी भाषा की टक्कर के आठ-दस उपन्यास, तीन सौ कहानियां । कितना मुश्किल होता होगा हाथ से लगातार लिखना । पन्ने-दर-पन्ने । ‘कलम का सिपाही’ में अमृत राय लिखते हैं कि सुबह सात बजे लिखने बैठ जाते थे नियमित रूप से और दिन भर यह चलता रहता । एक और चित्र याद आ रहा है पेचिश से महीनों पीडि़त रहे । कौन सी बिजली थी उन दिनों । पसीना चुह चुहाते । न हमारे आज के एसी, कूलर न हवाई जहाज । फुर्र इधर फुर्र उधर । रवीन्द्रनाथ टैगोर के बुलावे के बावजूद शांति निकेतन तक नहीं जा पाए । हम जाते हैं लेकिन जनता के ऊपर ही ऊपर । एक सेमीनार कक्ष से दूसरे तक । नौकरशाह भी मुख्यमंत्री भी; और प्रेमचंद के नाम पर संस्कृतिवृति लेने वाली लेखक, लेखिकाएं भी । कहां से आयेगी जनता आदिवासियों की पीड़ा दिल्ली के इन लेखकों में ? और दिल्ली के बाहर के छत्तीसगढ़, झारखंड के लेखक को बाहर कर देंगे उसके शिल्प के बहाने । हाल ही में अरुण त्रिपाठी ने ठीक ही लिखा था आदिवासियों को कोई अम्बेडकर भी नहीं मिला जिसके सहारे अपनी दुकान चलाते । यह सब लिखने का कारण सिर्फ आज के चंद लेखकों को मिली सुविधाओं को तराजू में रखकर तोलना है ।
लेकिन इतने संघर्ष के बाद भी प्रेमचंद को क्या मिला ? उनकी जन्मभूमि लमही अभी भी वीरान है मंटो के स्मृति चिन्हों की तरह । दिल्ली में एक सड़क तक नहीं ? कई भूतपूर्व राजाओं, महाराजाओं, महारानियों सहित आज के नये महाराजा संसद सदस्यों के नाम विश्वविद्यालय, स्मारक, पार्क, अस्पताल, थियेटर हो सकते हैं । लेकिन प्रेमचंद का कोई नाम लेवा नहीं । हिंदी चाहिये उसकी बोलियां मैथिली, भोजपुरी भी लेकिन सिर्फ राजनीति के लिए ।
कम-से-कम बंगाली समाज इतना कृतघ्न नहीं है । दिसयों विश्वविद्यालय हैं रवीन्द्रनाथ टैगोर के नाम पर । शांति निकेतन, रवीन्द्र भारती……, रवीन्द्र थियेटर, रवीन्द्र सरणी और देश के सभी शहरों, नगरों में सड़क, भवनों के नाम । कोलकाता रेलवे के किसी भी कार्यालय में जायें सीढि़यों पर कवीन्द्र रवीन्द्र की भव्य प्रतिमाएं, उनकी कलाकृतियां आपका स्वागत करती मिलेंगी । कोलकाता से बोलपुर होकर गुजरने वाली हर रेलगाड़ी भी अन्दर से रवीन्द्र और उनकी कलाकारी से सुसज्जित । आत्मा में भाषा, संस्कृति ऐसे ही प्रवेश नहीं पाती । उसके लिये व्यक्ति समाज, व्यवस्था सभी को आगे बढ़कर कोशिश करनी पड़ती है । बंगाल में सी.पी.एम. हो या ममता बनर्जी रवीन्द्र की मूर्तियां वैसे ही मुस्कराती रहती हैं । यहां तो प्रेमचंद को भी जाति, संप्रदाय, राजनीति के कौए, चील नौंच-नौच कर खा रहे हैं और ‘कफन’ में हिस्सेदारी मांग रहे है ? लखनऊ के मुद्राराक्षस प्रेमचंद को 15 प्रतिशत सवर्णों का लेखक बताते हैं 95% किसान, मजदूरों का नहीं । और यही हाल दूसरे समझदार अज्ञेय और त्रिलोचन के साथ करते हैं । नेताओं के घरों में जन्मदिन मनाने, उनकी जीवनी लिखने पर कुछ राजनीति तो खून में भी आयेगी ही ।
हिंदी के हर लेखक के साथ हिंदी समाज ने यही किया है । भुवनेश्वर हो, रांघेय राघव हो या भारतेन्दु । कल मरे, आज पिंड छूटा । हम तो नादानी में अम्बेडकर को पैगम्बर और अंग्रेजी को देवी बनाने पर उतारू हैं । वहां दो-तीन सदियों तक अंग्रेजों द्वारा सताये जाने का कोई गिला सिकवा नहीं । सत्ता का दूध, मलाई तो सवर्ण या जाति विमर्श को जिंदा रखने से मिलेगा ।
यदि मध्यकाल राजाओं की आपसी लड़ाइयों के चलते अंधेरे में डूबा रहा तो मेरा वक्त नये राजाओं और उनके वैसे ही जातिगत गिरोहों के अंहकार, विद्वेष और संग्राम में । ग्लोबलाइजेशन ने अमीर-गरीब में बांटा तो फांक-फांक, टुकड़े-टुकड़े में इनके सामाजिक न्याय ने । ऐसे में मंटो और प्रेमचंद के स्मारक बनाने की तो छोड़ो इनके धर्म और जाति की शिनाख्त करके कल हुक्मरान किताबों से भी निकाल दे तो कोई आश्चर्य नहीं ।
दिनांक : 21/05/2012
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