हिन्दी समेत सारी भारतीय भाषाऐं संकट के दौर से गुजर रही हैं। हताशा में लोग यह भविष्यवाणी तक कर देते हैं कि 2050 तक अंधेरा इतना घना हो जाएगा कि सिर्फ अंग्रेजी ही दिखायी देगी। भविष्यवाणी की टपोरी बातें को न भी सुना जाए तो हिन्दी की मौलिक बौद्धिक, कथा उपन्यास की किताबों की छपाई-संख्या बता रही है कि अपनी भाषा, बोलियां हैं तो महासंकट में ही। ऐसे में ‘जन भोजपुरी मंच’ का भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग भाषाई, सांस्कृतिक मुद्दों से भटकाने और राजनैतिक प्रहसन से ज्यादा नहीं लगती। अवधी में तुलसी दास की मशहूर चौपाई इन्हीं के लिए कही गयी है ‘जाहि दैव दारूण दुख देई। ताकी मति पहले हर लेयी।‘’
एक आम हिन्दी भाषी सोचने को मजबूर है कि ऐसी मांग के पीछे मंशा क्या हो सकती है? क्या अपनी भोजपुरी बोली, भाषा पर कोई अचानक संकट आ गया? क्या उत्तर प्रदेश, बिहार की सरकारों ने जहां की सीमाओं पर इस राजनीति के अखाड़े अड्डे शुरू हुए हैं, ने कोई ऐसा कदम उठाया कि भोजपुरी अस्मिता आहत हुई? या सिर्फ संख्या बल पर कुछ हासिल करने, पहचान बनाने महत्वकांक्षाओं का मामला भर है। निश्चित रूप से मैथिली, संथाली को आठवी अनुसूची में शामिल करने के पूर्व उदाहरण इस मांग के उत्प्रेरक हैं, लेकिन यदि यही रफ्तार रही तो आठवीं सूची में आठ सौ भाषा, वोलियां भी कम पड़ेंगी? मगधी के लिए मांझी मांग कर रहे हैं तो राजस्थानी भी हरकत में आ रही है। फिर तो रोज नयी मांग उठेगी।
थोड़ी देर के लिए अपनी बोली, शब्दों भाषा के जादू-रोमांच, सौन्दर्य, सुख, गीत-संगीत के पक्ष में खड़ा हुआ जाए तो यह भी इनसे पूछने का मन करता है कि दिल्ली विश्वविद्यालय में पिछले पचास-साठ सालों में हिन्दी माध्यम से पढ़ने वालों की संख्या लगातार कम हो रही है शून्य की ओर बढ़ती बावजूद उत्तर प्रदेश बिहार के लाखों हिन्दी भाषी छात्रों की बढ़ती संख्या .हैरानी की हद तक। ये गरीब बेचारे दिल्ली की अंग्रेजी की चकाचोंध में मारे जाते हैं। बी.ए. एम.ए में फेल होते हैं, अपनी पसंद का विषय अपनी भाषा हिन्दी माध्यम में उपलब्ध न होने की बजह से वेमन से दूसरे विषय पढ़ते हैं। क्या कभी इनकी आवाज तथाकथित भोजपुरी मंच, अकादमी या इनके नेता जैसे चेहरे, मुहरेवालों ने सुनी?
2016 की अंतिम खबर कि नेशनल ग्रीन ट्रिव्यूनल ने हिन्दी में लिखी शिकायत ,आवेदन को लेने से मना कर दिया है। कहां छिपे बैठे हैं भोजपुरी के नाम पर राजनीति करने वाले मठादीश? दिल्ली के एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय ने गांधी पर शोध हिन्दी में लेने से मना कर दिया। सैंकड़ो उदाहरण है मगर हिन्दी भाषी – भोजपुरी मैथिली खड़ी बोली समेत-शर्म हमें नहीं आती। बौद्धिक बेईमानी की इम्तिहा ! इनके लिए कोई आंदोलन किया? पांच साल पहले एम्स, दिल्ली में अनिल मीणा नाम के एक नौजवान डाक्टर ने आत्महत्या से पहले अंग्रेजी के आतंक ,पढ़ाई समझ में न आने का पत्र छोड़ा था, क्या दिल्ली में बैठे हिन्दी के साहित्यकारों या भोजपुरी अकादमी के कान पर जूं भी रेंगी? दिल्ली के एक सरकारी स्कूल की बच्ची की पिटाई अंग्रेजी न जानने की वजह से इतनी क्रूरता से की गई कि जान चली गई। दिल्ली में भोजपुरी की राजनीति कर रहे दिग्गज क्या यह नहीं जानते कि दिल्ली के निजी स्कूलों में हिन्दी बोलने पर वर्षों से अघोषित प्रतिबंध है। जिन स्कूलों, विश्वद्यिालयों में हिन्दी में ही पढ़ना –पढ़ाना मुश्किल हो रहा हो, वहां क्या भोजपुरी को कोई जगह मिल पायेगी?
और यह भी क्या ये सभी भोजपुरी की समृद्धि बढ़ाने के लिए ऐसी मांग करेंगे? क्या अपने बच्चों को भोजपुरी, मैथिली माध्यम में पढ़ायेंगे? या यह मैथिली आदि की तर्ज पर केवल आठवीं अनुसूची तक ही सीमित रहेगी? क्या उत्तर प्रदेश, बिहार की सरकारों से भोजपुरी में पढ़ाने की मांग की ? या सिर्फ दिल्ली में राजनीति करने का औजार है यह मंच?
यों तो लोकतंत्र के कई चेहरे भारत के अलग अलग हिस्सों में मौजूद हैं और होने भी चाहिए लेकिन सबसे विरूपित रूप चेहरा गंगा घाटी का है जहां हर चीज की उम्मीद भी सरकार से ही की जाती है .और माल भी उसी का और भरपेट गालियाँ भी । भोजपुरी के पीछे की मंशा भी जग जाहिर है और मोटा मोटी अनमानत: ये हैं:-
- आठवीं सूची में लाने से संघ लोक सेवा आयोग की सर्वोच्च परीक्षा सिविल सेवा परीक्षा में मैथिली, कोंकड़ी, उर्दू, हिन्दी की तरह ही भोजपुरी को एक वैकल्पिक विषय के रूप में लेने की सुविधा हो जाएगी और इससे हो सकता है दस बीस भोजपुरी छात्रों को सरकारी नौकरी में प्रवेश हो जाये। मौजूदा दौर में भाषा/साहित्य के वैकल्पिक परचे में ऐसा हो भी रहा है। इंजीनियरिंग किया है आई.आई.टी. कानपुर, खड़गपुर, दिल्ली से सिविल सेवा में वैकल्पिक विषय लिया मैथिली, संस्कृत, डोगरी और कभी कभी मलयाली, तेलगु, मराठी भी। अपने इंजीनियरिंग, डाक्टरी की विशेषज्ञता को छोड़कर। पौ बारह। सीमित पाठयक्रम, सीमित पेपर बनाने वाले, जांचने वाले। अस्सी के दशक में पालि भाषा साहित्य आदि के संदर्भ में ये आंकड़े सामने आये। आयोग भी क्या करे? कुछ पक्षपात से बचने और देश की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं को चुनने के लिए कई उपाय किए गए। कुछ विषयों को हटाना भी पड़ा। कुछ सुधार पिछले दो सालों में हुए हैं जब दो वैकल्पिक विषयों की जगह केवल एक कर दिया गया है। लेकिन भाषा साहित्य के बूते पिछले दरवाजे से सिविल सेवाओं में प्रवेश पर अभी भी आयोग चौकन्ना है। हाल ही में पूरी परीक्षा प्रणाली की समीक्षा के लिए गठित बासवान समिति ने अपनी रिपोर्ट में एक वैकल्पिक विषय को भी हटाने की बात कही है जो ठीक भी है। सभी के लिए समान प्लेटफार्म, सामान्य ज्ञान आदि की परीक्षा। न मैथिली, कोंकड़ी न गणित, उर्दू आदि। यानि कि जिस उम्मीद , षडयंत्र से भोजपुरी के रास्ते सिविल सेवाओं में सेंध लगाने की बात, मांग की जा रही है, वही पूरी तरह खत्म हो सकती है।
इस देश की भ्रष्ट नौकरशाही में येन केन तिकडम से घुस जाना क्या इतना पवित्र काम है जिसमें साधनों की शुचिता के साथ साथ राष्ट्रीय नैतिकता को भी त्याग दिया जाए?
इसी मुद्दे से जुड़े संक्षेप में कुछ और सवाल। क्या भोजपुरी मंच संघ लोक सेवा आयोग की दर्जन भर अखिल भारतीय जैसे डाक्टरी, इंजीनियरिंग, वन सेवा, रक्षा, भारतीय भाषाओं की मांग करेगा? दिल्ली में लाखों भोजपुरी बोलने बाले हैं, इलाहाबाद , पटना में भी। कभी कोई आवाज क्यों नहीं उठी? सिविल सेवा परीक्षा के सी सैट में वर्ष 2011में तत्कालील यूपीए सरकार ने अंग्रेजी लाद दी थी जिसके परिणाम स्वरूप हिन्दी माध्यम से परीक्षा देने वाले और सफल होने वाले 15-20 प्रतिशत से घटकर पांच प्रतिशत से भी कम हो गये थे। क्या किसी ने भोजपुरी के इन नेताओं का नाम सुना? 2014 में नयी सरकार ने इस अंग्रेजी को हटाया उम्मीदवारों के सड़क पर उतरे संघर्ष के सामने घुटने टेकते हुए।
इसलिए वक्त का तकाजा है कि हम क्षेत्रीय, भाषा, बोलियों की संकीर्ण दृष्टि को छोड़कर पूरे देश के लिए स्वीकृत और सांविधानिक रूप से अधिकृत हिन्दी के पक्ष में अपनी आवाज बुलंद करें। भोजपुरी जैसी किसी मांग से राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी पक्ष कमजोर ही होगा। प्रशासन के लिए भी गलत साबित होगा।
जन भोजपुरी मंच के नेताओं के सपनों में तैर रही हैं भोजपुरी के नाम पर अकादमी जैसे संस्थान जिसमें सौ पचास कार्यकारिणी अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सैक्रेटरी जैसे पद होंगे। भवन होगा, गाडि़यां, फोन। क्योंकि कोई शहर ऐसा नहीं जहां भोजपुरी न हो और ऐसी इच्छाऐं न हों। वस हो गया किसी भी दल को वोट बैंक से धमकाने, पैसा ऐंठने का जरिया। दिल्ली की भोजपुरी और हिन्दी अकादमी से पूछा जाना चाहिए कि जमीनी स्तर पर शिक्षा, पुस्तकों के क्षेत्र में लाखों के पुरस्कार बांटने के अलावा उनकी क्या उपलब्धियां हैं? जनता के करोडों रूपये का क्या हिसाब है? हां साहित्य अकादमी पुरस्कारों पर भी इनकी नजरें टिकी हैं बिल्कुल मैथिली, डोगरी, कोंकड़ी की तर्ज पर जिसमें कई बार पुरस्कार एक ही परिवार के सदस्यों को मिल चुके हैं। दिल्ली में फेंस पर बैठे कई लेखक साहित्यकार इसीलिए मौन साधे बैठे हैं। क्या पता उन्हें भी कुछ मिल जाए।
अपने अलग पुरस्कारों की शुरुआत भी ऐसे मंचों का सबसे पुनीत कार्य है। उन लेखकों को जनता जाने या न जाने, अभी पुस्तकें चाहे दो चार सौ तक सिमट कर रह जायें, पुरस्कार के लिए वे यहां भी इंतजार कर रहे हैं। लेखकों की संवेदनशीलता , पद प्रतिष्ठा के नाते उनसे समाज यह तो उम्मीद करता ही है कि जब हिन्दी के नाम पर आपको अकादमी, ज्ञानपीठ पुरस्कार समेत दर्जनों राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं तो इस बोली को संविधान की सूची में शामिल करने से आपका और हिन्दी का कद छोटा होगा या बड़ा? क्या प्रेमचंद, हजारी प्रसाद द्विवेदी, उग्र, केदारनाथ सिंह केवल भोजपुरी क्षेत्र तक सिमटना स्वीकार करेंगे?
क्या इतने प्रतिष्ठित लेखक और नेता ये भूल रहे हैं कि ऐसी मांग के स्वीकारते ही, ब्रजी, अवधी, राजस्थानी, हरियाणवी, कुमांऊनी, गढ़वाली भाषा बोलियों वाले चुप बैठेगे? उनका भी वही तर्क होगा। यानि कि भारतीय भाषाएं केवल कुछ अकादमी, पुरस्कार फैलोशिप का गोरखधंधा!
यूँ पहले या दुसरे नंबर पर आने का कोई अर्थ नहीं है ,पहले ही मैथिली आदि को अलग करने से संयुक्त राष्ट्र की शुमारी में हिन्दी दूसरे स्थान से चौथे स्थान पर आ गई है, भोजपुरी और ऐसी दर्जन भर भाषाएं भी अलग हो जायें तो हिन्दी की मौजूदा संवैधानिक स्थिति पर देश के अन्य राज्य भी उंगली उठाने लगेंगे! जब संख्यावल आधार है तो जो भी बड़ा हो। लग जायेगा पलीता गांधी, राजेन्द्र प्रसाद, नेहरू पटेल आयंगर के राष्ट्रीय सपनों को जो हिन्दुस्तानी, हिन्दी को अपने व्यापक अनुभव के कारण सम्पर्क भाषा मानते थे और इसीलिए उसे संवैधानिक राजभाषा का दर्जा मिला। यह संविधान का उल्लंधन होगा या उसका पालन?
संविधान के नीति निर्देशक खंड में सभी भाषा-बोलियों को आगे बढ़ाने की बात की गयी है। लोकतंत्र के नाते यह हम सबका दायित्व है कि सरकारी कामकाज, शिक्षा में अपनी भाषाओं ,बोलियों ,को आगे बढ़ाएं और यह केवल राजनीति करने से नहीं होगा। उल्टे राजनीतिज्ञ अपने-अपने वोट बैंक के लिए आपको इस्तेमाल करेंगे। मौजूदा गृहमंत्री राजनाथ सिंह हों या संसद सदस्य मनोज तिवारी। नाम गिनाने की जरूरत नहीं। भोजपुरी मंच के कई नेता इसी तिकड़मी राजनीति के बदले पहले पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित आदि के करीब थे तो अब मौजूदा सरकार के मोदी जी की भक्ति में भी वे पुरानी आरतियों का सहारा ले रहे हैं। नयी सरकार को इनसे सावधान रहने की जरूरत है।
समझदार लेखक, प्राध्यापकों, पत्रकारों को भोजपुरी के नाम पर इस कुटिलत से दूर रहने की जरूरत है।
भोजपुरी मंच के गिद्ध कभी कभी अपने स्वार्थों की गंध में बहुत दूर की सोचने लगते हैं। जैसे दिल्ली की अंग्रेजी वस्ती में बैठे बैठे मारीशस में भोजपुरी का वखान। वे रोज दिल्ली के इंडिया इंटरनेशल सेंटर में जाते हैं जहां हिन्दी की किताबें नहीं है। भोजपुरी, मैथिली की तो फिर क्या होगी? कभी कोई आवाज सुनी? इस लेखक का भी हाल ही में मारीशस जाना हुआ था। मुझे ऐसे प्रश्नों का जबाव देना मुश्किल हो गया कि भारत में हिन्दी क्यों खत्म हो रही है? क्यों महानगरों के स्कूल अंग्रेजी माध्यम से ही पढ़ा रहे हैं? उन्हें यदि असलियल पता लगे तो सिर पीट लें कि उत्तर प्रदेश, बिहार का आडम्बर राजनैतिक षडयंत्र और लेखकों की अवसरवादिता इसके लिए जिम्मेदार है। मारीशस, फिजी सूरीनाम ट्रिनीडाड की कुछ मुफ्ती विदेश यात्राओं, टटके पुरस्कारों के लेनदेन या सरकारी दान और ग्रांट से आयोजित विश्व सम्मेलन भाषा संस्कृति को बहुत दूर तक नहीं ले जायेंगे। सारे आडम्बर और मुखौटे तोड़कर पहले अपनी भाषाओं को देश में मजबूत बनाना होगा। भोजपुरी हिन्दी की प्राण है और रहेगी। बाकी दस राज्यों की बोलियां भी। सांस्कृतिक संकट के इस दौर में अंग्रेजी से लड़ने की जरूरत है न कि आपस में। हमें नौकरी शिक्षा और न्यायालयों में अपनी भाषाओं की प्रतिष्ठा के लिए एक साथ आने की जरूरत है। हिन्दी को मानकीकरण लचीलेपन आदि के लिए देश भर ने स्वीकारा था। भोजपुरी से उसका कोई विरोध नहीं। वस यह मांग असंवैधानिक, अव्यावहारिक और देश हित में नहीं है।
यदि हिन्दी शब्द से चिढ़ है तो उसका विकल्प ‘हिन्दुस्तानी’ या भारतीय भाषा (भारत राष्ट्र से निकला शब्द) भी रखा जा सकता है। इस हिन्दुस्तानी या भारतीय भाषा में भोजपुरी समेत सभी भाषाओं के शब्द, शैली, लय, वाक्य भी गूंथे जा सकते हैं। इससे अपनी भाषा, बोलियां भी बचेंगी और राष्ट्रीयता भी.
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