भुवनेश्वर की कालजयी कहानी भेडियए का जिक्र होने पर हंस संपादक राजेन्द्र यादव ने बडयाृ मासूमियत से पूछा आखिर ‘³Öê×›Íü‹’ कहानी में ऐसा क्या है जो मुझे याद रहे ? ऐसे तो हर कहानी में कुछ न कुछ होता ही है।
अचानक पूछे गये इस प्रश्न ने मेरे अंदर रफ्ता-रफ्ता एक आँधी शुरू कर दी । राजेन्द्र जी ! मैं कहानी के कथ्य, भाषा की बात बाद में करूंगा पहले मैं यह बताना चाहता हूं कि पहली बार मैंने यह कहानी 1991 में हंस में पढयाृ थी लेकिन उसके बाद मैं हर तीसरे मोडय पर इस कहानी को याद करता रहा हूं और उससे प्रेरणा भी पाता रहा हूं । पहले एक रोजमर्रा की बात हम और आप किताबों की दुनिया के आदमी हैं। हजारों किताबें, पत्रिकाओं के बोझ से लदे। आए दिन हम कुछ किताबों को ‘¾Öß›ü†Öˆ™ü’ करते हैं। जब भी ऐसा मैंने किया मुझे भेडियए कहानी याद आती है कि कैसे रेगिस्तान से गुजरता बंजारा भेडिययों से जान बचाने के लिए उनके आगे चुग्गा फैंकता है । चुग्गा इसलिए कि तब तक भेडियए उसे खाएंगे तब तक उसकी गाडयाृ थोडयाृ और आगे निकल जाएगी । कहानी और जीवन दोनों में फैंकने के इस क्रम में सबसे पहले फैंकी जाती है वो चीज जो अपेक्षाकृत कम महत्व की है । वंजारे पहले अपने साथ लाये खाने-पीने के सामान को फैंकते हैं। कोई और रास्ता न पाकर फिर तीसरे बैल को भेडिययों के हवाले कर देते हैं लेकिन भेडिययों की भूख कहाँ शांत होने वाली है फिर उन तीन नटनियों में से एक को फैंकते हैं । ये वो नटनियाँ हैं जिन्हें बेचने के लिए बंजारे पंजाब की तरफ जा रहे हैं । हर बार ऐसा लगता है जैसे घर के स्पेश में भेडियए एक जगह की तरह है । मैं जिन किताबों को बचाकर रख लेता साल दो साल के बाद उन्हें अगले पडयाव में नटनियों की तरह फैंक देता हूं और कई बार जब कुछ भी रास्ता नहीं सूझता तो सब कुछ छोडयना पडयता है । बीस साल पहले मेनचेस्टर में कुछ विदेशी चीजों को साथ लाने के मोह और एयरपोर्ट डय़ूटी देने की कशमकश में भी मुझे भेडियए की याद आई । एक दो किताब को छोडयकर मैंने सारा सामान एयरपोर्ट पर छोडय दिया यह चीजों को रखने, आमंत्रण देने न देने के चयन में रोज होता है । बात बहुत मामूली है लेकिन भेडियए कहानी का कथ्य आपको भूलने नहीं देता ।
भेडिययों का रुपक एक चुनौती की तरह है। मेरा वश चले तो मैं इसे कहानी को मैनेजमेंट की क्लास में पढयाऊं । मेरी व्याख्या इस तरह होगी। हर कैप्टन, सी.ई.ओ. मैनेजर के सामने कुछ लक्ष्य होते हैं। उनके सामने जो वाकई कुछ करना चाहते हैं। कहानी के कथ्य को दोहराने की इजाजत लूँ तो खारू बंजारे और उसके बेटे को 50 मील का रेगिस्तान पार करना है सूरज छिपने से पहले यानि लक्ष्य और उसकी सीमा साफ है लेकिन अवरोध भी इतना बडया ! गाडयाृ सुनसान रेगिस्तान से गुजर रही है उस रेगिस्तान से जिसमें भूखे भेडिययों के झुंड के झुंड हैं । जीवन मरण के बीच झूलती इन स्थितियों के बीच आप कैसे अपना संतुलन बनाए हुए एक के बाद एक नई युक्ति, तरकीब ढूंढयते हैं और अंत में कम से कम एक बंजारा तो सब कुछ खोने के बाद अपने लक्ष्य तक पहुंच ही जाता है । बेहतर प्रबंधन के लिए इससे बडयाृ चुनौती और सफलता की क्या कहानी हो सकती है ! वरना रेगिस्तान में प्रवेश करते ही भेडिययों के झुंड ने जैसे ही हमला किया था तभी सब की कहानी खत्म हो सकती थी । इतनी छोटी कहानी में इतना बडया दर्शन ! यह हिंदी का दुर्भाग्य है कि प्रबंधन जैसे हाई-फाई विषयों में कोई भूलकर भी ऐसी अनमोल कृतियों की तरफ नहीं देखता । अंग्रेजी या किसी यूरोपियन भाषा में यह कहानी लिखी गई होती तो शायद अब तक कितने ‘´ÖîÖê•Ö´Öë™ü Öãºþ’ इस पर दर्जनों किताबें लिख चुके होते ।
तीन छोटे पृष्ठों की इस कहानी में प्रेम की मुश्किल से चार लाइनें होंगी लेकिन वे बार-बार पाठक की आँखे भिगो सकती हैं । पहली नटनी (लडयकी) को भेडिययों के आगे फैंकने के बाद जब भेडियए पानी की तरह आक्रामक मुद्रा में उनकी तरफ बढय। चले आ रहे हैं तो बाप चीखकर कहता है दूसरी को भी फैंको । बाप ने जिस लडयकी की तरफ इशारा किया वह तुरंत अपनी चाँदी की नथनी उतारना शुरू कर देती है लेकिन जवान खारू के मन में उसके प्रति प्रेम है। वह तुरंत तीसरी को कहता है कि तू निकल । कहानी के आयाम देखिये। पहले फैंकी जाने वाली लडयकी का चित्रण ‘ˆÃÖê जहाँ गिराया गया वहीं गठरी की तरह बैठ गई मानो कह रही हो जब मुझे इस दुनिया में ही कोई नहीं चाहता तो जीकर क्या úºÓþÖß’… लेकिन भेडियए उसे खाकर फिर गाडयाृ की तरफ दौडयते हैं । बाप बेटों ने माथा पीट लिया । कराहते हुए कहने लगे ‘Æü´Ö क्या करें भीख माँग कर खाना बंजारों का दीन Æî’ü… अब नंबर कुछ भारी, तीसरी नटनी का आता है। उसने तुरंत चाँदी की नथ उतारकर युवक खारू को दे दी और बाहों से आँखे बंद कर स्वयं कूद पडयाृ । प्रेम के कुछ शब्द कुछ संकेत ही कहानी को एक बडयाृ प्रेम कथा में बदल देते हैं मानो यह लडयकी अपना सर्वस्व खुद देना चाहती है। नथ की निशानी देना और सहर्ष कूदना उसी का हिस्सा है । प्रेमचंद की कहानियों में एक वाक्य बार-बार आता है प्रेम का अर्थ लेना, नहीं त्याग है । नटनी और इस युवक के बीच चंद शब्द इसे एक अनमोल कहानी में बदल देते हैं ।
पिता और पुत्र के बीच भी इसी प्रेम के अलौकिक टुकडय। हैं । कोई और रास्ता न पाकर अंतिम निर्णय होता है कि हम दोनों में से भी भेडिययों के आगे कोई कूद जाए तो तब तक गाडयाृ और आगे चली जाएगी । पिता तुरंत तैयार होता है । ‘´Öï बूढया आदमी हूं मेरी जिंदगी खत्म हो गई है मैं कूदता हूँ और वह कूद जाता है लेकिन कूदने से पहले वह अपने बेटे के गाल को चूमता है और कहता है मैंने नये जूते पहने हुए हैं । मैं जिंदा रहता तो ये जूते दस साल और चलते लेकिन देखो तुम इन जूतों को मत पहनना। मरे आदमियों के जूतों नहीं पहने जाते ’… यानि कि मरने के अंतिम क्षण में भी पिता अपने पुत्र के भविष्य में किसी भी अपशकुन की आशंका तक से डरता है। कहीं ऐसा न हो कि ये जूते पहन ले और उसका कुछ नुकसान हो जाए । मृत्यु के पंजों के बीच फडयफडयाता आदमी कैसे कितने रूपों में अपने प्रेम, स्नेह को बचाये रहता है ।
कहानी में नये दौर के ‘áÖß ×¾Ö´Ö¿ÖÔ’ और ‘ÃÖ´ÖÖ•Ö ¿ÖÖá֒ को खोजने की भी पर्याप्त गुंजाइश है। पिछले दो तीन दशक की जनगणनाओं में पंजाब जैसे प्रांतों में लडयकियों की संख्या लगातार कम होती जा रही है । लेकिन भुवनेश्वर की इस कहानी में जो 1938 में हंस में छपी थी यानि कि आज से 80 वर्ष पहले क्या तब भी पंजाब प्रांत में लडयकियां ऐसे ही खरीद कर लाई जाती थी जैसे यह बंजारा इन तीन नटनियों को ग्वालियर से पंजाब बेचने के लिए कुछ पैसें की खातिर जा रहा है । स्त्री विमर्श की पूरी गुंजाइश यह कि सैंकडया।ं सालों से क्या यह देश लडयकियों को खरीद फरोख्त की वस्तु ही मानता रहा है ? आज पंजाब या उत्तर भारत के कई क्षेत्रों में लडयकियां बंगाल, आसाम और दूसरे गरीब राज्यों से इसी अंदाज में अमानवीय ढंग से खरीदी जाती है । न वे पति की भाषा समझती, न उनके साथ उनकी उम्र का कोई संबंध होता है सिर्फ पैसे के मोल-तोल में सब कुछ होता है । बंजारों की गरीबी का साक्षात कारूणिक चित्र ‘Æü´Ö क्या करें भीख माँगकर खाना बंजारों का दीन है हम रईस बनने चले थें, ’ किसी भी पाठक के सीने के आर-पार हो जाता है ।
आरोप लगाया जाता है ये विदेशी कहानी की नकल है । मेरे जैसे हजारों पाठकों को क्या फर्क पडयता है कि ये दुनिया की किस कहानी की नकल है। कहानी का एक-एक शब्द इस बात का गवाह है कि ये नितांत भारतीय स्थितियों की कहानी है । आखिर आलोचक ऐसे आरोप लगाते क्यों हैं ? क्या इस कहानी के बूते भुवनेश्वर को कोई लखटकिया पुरस्कार मिला? क्या वे इसके बाद कोई मठीधीस बन गये या क्या भुवनेश्वर की पीढिययां मालामाल हो जाएंगी ? हिंदी के आलोचकों को इस कृतघृनता से बचने की जरूरत है । भुवनेश्वर जैसा अद्भुत नाटककार, कहानीकार एक स्टेशन के बैंच पर मरा पाया गया था । एक लेखक की इससे बुरी नियति क्या हेगी और इसके बावजूद भी हम भारतीय भाषाओं के तथाकथित आलोचक अपने ही हाथों से अपनी चीज को विदेशियों का बताने में शर्म महसूस नहीं करते ।
मैं यह सब इसलिए कह रहा हूं कि मैंने खुद बचपन ऐसे ही गाँव में बिताया है जिसके आस पास ऐसे ही बंजर ऊसर जगह थी। कहानी पढयते हुए मुझे बार-बार वे क्षण याद आते हैं जब कई बार शाम को पैदल स्कूल से लौटते हुए अंधेरा हो जाता था और सुनसान बंजर के बीच से गुजरना होता था। छोटी सी लोमडयाृ सियार या किसी भी जानवर की आहट डर के मारे चेहरा पीला कर देती थी । मुझे लगता है कि उस खारू बंजारे के साथ मैं ही गाडयाृ हाँक रहा हूं और मेरे बचपन के रेगिस्तान में छिपे बैठे भेडियए मेरा पीछा कर रहे हैं । कहानी की शुरूआत में खारू बंजारे की शक्ल का चित्रण देखिए। ‘ˆÃÖúß उम्र होगी 70 के आसपास लेकिन गरीबी के सबब से उसका चेहरा बुझा सा दीख पडयता है। इसके पूरे व्यक्तित्व में ऐसे ही दुरूह और दुर्भेध कठिनता थी, आँखें ठंडी और जमी हुई । नाम ÖÖºþ’… क्या यह चेहरा हमारे जीवन में आए सैंकडया।ं बंजारों मुफलिसों, गरीबों का चेहरा नहीं है ? कहानी के सम्पूर्ण कथ्य घटनाओं को थोडयाृ देर के लिए मैं बरतन में भरा दूध मानूं तो खारू का चेहरा नितांत उसकी मलाई की तरह है । यदि कथ्य विदेशी कहानी से लिया भी गया हो, तब भी उस पर खारू को इतनी सहजता से चस्का नहीं किया जा सकता। बल्कि वैसे ही जैसे मलाई को पानी के ऊपर डाल दे तो हर कोई उनको पहचान सकता है ।
जीवन और मृत्यु के बीच की अद्भुत रस्सा कसी है कहानी में। यह हम सबके साथ रोज होता है। लेकिन कहानी की खूबसूरती यह है कि ये पात्र हर स्थितियों में अपना मानव स्वभाव बचाए रखतें हैं । भेडियए की आहट पाते ही वे मानसिक रूप से तैयारी शुरू कर देते हैं । तभी पता लगता है कि बारूद की नयी पोटली बेटा साथ लाने से भूल गया है । बूढय। बाप का गुस्सा फूट पडयता है। तू भेडियए की औलाद! मैंने तुझे नयी पोंगली दी थी शहर पहुंचकर मैं तेरी खाल उतार दूंगा। पिता और पुत्र के संबंध वाकई ऐसे ही होते हैं । एक और चित्र देखिए! कुछ भेडियए जब मर जाते हैं तो उन्हें उम्मीद बंधती है। बेटा कहता है ‘»ÖÖŸÖÖ Æîü’†²Ö भेडियये पिछडय गये । बूढया हँसा- मैं जानता हूं भेडिययों को। । वे नहीं पिछडय सकते । उसने अगला पेंतरा बदला । सामान निकाल कर फैंको। गड्डा हल्का करो। जीवन के सबसे अभूतपूर्व संकट के समय भी अपनी बुद्धि को परास्त मत होने दो। कोई न कोई युक्ति सोचो, रास्ता निकालो । एक और चित्र- पिता अब भेडिययों के आगे कूदने की तैयारी करता है तो बेटे के अंदर एक प्रतीज्ञा गूंजती है। यदि जिंदा रहा तो एक-एक भेडियए को काट डालूंगा । तुरंत पिता गले लगा लेता है तू मेरा असील बेटा है। और अगले साल युवक खारू ने 60 भेडियए मारे ।
यह कहानी मृत्यु पर जीवन, निराशा पर आशा की बेजोडय कहानी है । जीविविशा की ऐसी बेजोडय कहानी दुनिया की शायद ही किसी भाषा में लिखी गई हो । 1991 में हंस के संपादकीय में लिखी राजेन्द्र जी की बात सही है। मानवीय जीजीविषा के नजरिये से इसे ओल्ड मैन एंड दी सी के समकक्ष रखा जा सकता है। लेकिन अपनी संक्षिप्तता, कसाव, रूपक में शायद उससे भी अधिक प्रभावी।
वर्ष 2011 की हिंदी की कई विभूतियों की जन्मशती मना मना रहा है। कवियों पर शहर दिल्ली का जोर कुछ ज्यादा ही है। लेकिन हिंदी के पाठक को भुवनेश्वर की भेडियये जैसी कहानी वापस ला सकती है। आखीर जन्मशती तो भुवनेश्वर की भी है।