हिन्दी और हिन्दी के आसपास घुमड़ने वाला संसार- लेखक, प्रकाशक, पाठक और प्रदेश भी बड़ा विचित्र है। आजकल (या हो सकता है इससे पहले भी) हर पखवाड़े आयोजित गोष्ठी में हिन्दी के आलोचकों-पाठकों को लगभग यह गाली सुनने को मिलती है कि अमुक लेखक विस्मृति के गर्भ में इन लोगों ने चले जाने दिया । अशोक वाजपेयी इस धिक्कार रैली के सबसे बड़े प्रणेता हैं । ये और कई अन्य बुजुर्ग लेखक भी अपने कॉलम, लेख सभी जगह इसे प्रचारित करते फिरते हैं कि हिन्दी जगत बहुत कृतघ्न, बेवफा है और अपने पूर्वजों को कभी याद नहीं करता । हम सभी के पूर्वजों, अग्रजों के बहाने वे ज्यादातर सागर या अपने-अपने शहरों के आसपास के लेखकों, कवियों पर रोशनी डालते हैं । यह कहते हुए कि इतने बड़े लेखक होने के बावजूद हिन्दी संसार ने इन्हें विस्मृति में चले जाने दिया । शायद यह चिंता भी सताती हो कि जब तक मेरी सत्ता, दुदुंभि है चल रहा है मेरा नाम, बाद में कहीं मैं भी न भुला दिया जाऊं। खैर जो भी हो चिंता वाजिब है लेकिन रास्ता क्या हो ? यह प्रश्न मुझे भी बार-बार कुरेदता है ।
अभी-अभी भवानी प्रसाद मिश्र जी की रचनावली के संदर्भ में ये हुआ । पिछले हफ्ते देवेन्द्र सत्यार्थी की रचनावली के लोकार्पण के वक्त यही सुनने को मिला । पिछले साल शिवदान सिंह चौहान की मृत्यु पर ये हुआ । मटियानी जी के साथ यही बात दुहराई गई । यह दिल्ली की खबरें हैं ऐसी ही पटना, इलाहाबाद, भोपाल, सागर, इंदौर, जयपुर लखनऊ में रामवृक्ष बेनीपुरी, शिवपूजन सहाय आदि तमाम जो 75 वर्ष के होने जो रहे हैं उनकी रजत जयंती (?) के बहाने भी अकसर ऐसा सुनने को मिलता है ।
क्या इस रोदन और भारतीय संस्कृति के उन अन्वेषकों के बीच कोई तर्ज बनती है जो रोज-रोज कोई न कोई सूत्र, श्लोक, शास्त्र खोजकर लाते हैं कि हमारे यहां तो इतना कुछ था लेकिन हम अपने गौरव पर ध्यान नहीं देते । वे लगभग आंख बंद श्रद्धा में पूरे अतीत के किष्किंधा को संजीवनी मान बैठते हैं और दूसरों से भी वैसा ही मानने की अपेक्षा रखते हैं।
निश्चित रूप से पूर्वाग्रही आलोचना की वजह से कितने ही बड़े साहित्यकारों को वह स्थान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे लेकिन क्या मौजूदा परिदृश्य में हम ऐसा होने से रोक पा रहे हैं यदि नहीं तो इतिहास से क्या सबक सीखा या सीख रहे हैं या हिन्दी संसार को उनके अपने समय में या हमारे आज के समय में कोई जरूरत है भी थोड़ी देर के लिए आलोचना का दोष मान भी लिया जाए लेकिन समकालीन समय ने तो इन्हें पहचाना ही होता यदि समय को इनके अवदान की जरूरत होती तो अवश्य ये उतने ही प्रासंगिक तब होते जितने आज । क्या आज अचानक ग्रंथावली छपने पर प्रासंगिकता अन्वेषी प्रकाशक की बदौलत नहीं है वर्ना, ये ग्रंथावलियां क्या अभी भी उन जरूरतमंद पाठकों, नागरिकों के पास तक जा पाएंगी इतनी भारी कीमतों के चलते ? क्या यह हमारे सेमीनार कक्षों में भाषण देने वालों का स्वयं या उसमें आए लोगों के साथ छलावा नहीं है जो इतनी गरीब जनता की भाषा की इतनी महंगी ग्रंथावलियाँ निकालने को उनके मूल्यांकन का नाम देकर नाभि-नाल जुडें होने का प्रमाण दे रहे हैं । यदि संदेश है तो उसका सार या प्रामाणिक छोटी पुस्तिका, पेपर बैक में भी क्यों नही आ रहा ? स्वयं अशोक वाजपेयी जी ने सरकारी महात्मा गांधी विश्वविद्यालय के लिए जो पुस्तकें छपवायीं है उनकी कीमतें गांधी का सबसे बड़ा अपमान है । इन ग्रंथावलियों को रखने की जगह भी है हमारे पुस्तकालयों में या सिकुड़ते घरों में । विशेषकर उस समय में जब हिन्दी अप्रासंगिकता के सबसे खतरनाक दौर में पहुंच चुकी है । लगता है रोने वालों का साथ देने में अपने रुदन का स्वर भी उसमें जोड़ देने में हमें अपने तईं कुछ करने का भाव या संतोष रहता है ।
साहित्यकारों का मूल्यांकन जरूर हो लेकिन प्रकाशकीय ग्रंथावलियों के बहाने नहीं । विचार और अपने समय में उनके हस्तक्षेप के बहाने और यही भविष्य में हमारे साथ हो ।