दो घटनाएं दिल्ली में स्थित दो केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की । पहली घटना– दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर प्रेम सिंह ने बताई । बिहार से आये उस मेधावी नौजवान ने दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी ऑनर्स में दाखिला ले लिया । लेकिन उसका रूझान, रुचि दर्शन शास्त्र में थी । हिन्दी में ठीक–ठाक करने के बावजूद भी वह ज्यादातर समय दर्शन–शास्त्र की किताबें पढ़ने में व्यस्त और मस्त रहता । अगले साल उसने दर्शन शास्त्र की प्रवेश परीक्षा दी और दाखिला मिल गया । लेकिन जैसा कि दिल्ली विश्वविद्यालय के ज्यादातर विषयों को अंग्रेजी में पढ़ाने की शुरूआत हो चुकी है उसे लगा कि दर्शन शास्त्र तो ठीक है लेकिन अंग्रेजी में तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा । कोशिश की लेकिन असफल रहा । वैसे भी क्या भाषा या स्नातक स्तर पर ऐसे विषयों में आप रातो–रात अंग्रेजी माध्यम में उतने अधिकार से नहीं लिख सकते जितना कि अपनी भाषा में । नतीजतन दर्शन शास्त्र अधूरा छोड़ना पड़ा । बिहार, उत्तर प्रदेश से आए हुए ऐसे हजारों छात्र हैं जो दिल्ली पढ़ने तो आए लेकिन भाषा के माध्यम में और रुचि के विषय की टकराहट ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा । काश ! इस विद्यार्थी को अपनी रुचि के विषय को अपने देश की भाषा में पढ़ने–लिखने की आजादी मिल पाती ?
दूसरी घटना जामिया मिलिया विश्वविद्यालय की बतायी जाती है । यह भी दिल्ली विश्वविद्यालय की तरह केन्द्रीय विद्यालय है जहॉं केन्द्रीय सरकार द्वारा करोडों रुपये शिक्षा के लिए दिये जाते हैं । हिन्दी में एम.ए., एम.फिल. किये हुए एक छात्र ने इस विश्वविद्यालय में ‘अमन और विवाद (Peace and Conflict)’ के पाठ्यक्रम में दाखिला ले लिया । बहुत खुशी की बात है कि जामिया मिलिया, महात्मा गांधी विश्वविद्यालय/वर्धा और अन्य विश्वविद्यालयों में पिछले दिनों अहिंसा, स्त्री, अमन और विवाद, आदिवासी, दलित विमर्श जैसे एक–से–एक नये और प्रगतिशील विषयों में अध्ययन–अध्यापन शुरू हुए हैं । भारतीय शिक्षा में ये लगभग क्रांतिकारी कदम हैं । हॉंसिये पर छूटे हुए और जी रहे लोगों के ऊपर जब तक अध्ययन–अध्यापन नहीं होता उनकी समस्याओं को एक पूर्णता में नहीं समझा जा सकता । वैश्वीकरण का कुछ और फायदा हुआ हो या न हुआ हो कम–से–कम पश्चिम के असर में शिक्षा को बंद संदूक से बाहर पारम्परिक पुरातनपंथी विषयों को पीछे छोड़ते हुए एक खुला आकाश तो मिला । लेकिन अपनी भाषा को बाहर धकियाते हुए विदेशी भाषा के आतंक ने यहां बंजर बना दिया है । किस्सा यह कि जो छात्र इन विषयों में विवाद खत्म करने और शांति के अध्ययन के लिए आया था उसे जब सिर्फ अंग्रेजी में उत्तर देने को विवश किया गया तो वह सब चौकड़ी भूल गया । विश्वविद्यालय से बार–बार अनुरोध, विनय करने के बावजूद भी उसे हिन्दी में उत्तर देने की छूट नहीं दी गई । नतीजतन वह फेल हो गया है ।
सभी विश्वविद्यालयों को विशेषकर केन्द्रीय विश्वविद्यालयों को करोडों रुपयों का अनुदान देश के हर नागरिक और बच्चे को शिक्षा मुहैया कराने के लिए होता है और हमारे संविधान में भी न केवल हिन्दी बल्कि सारी भारतीय भाषाओं को प्रोत्साहित करने की बात कही गई है । ये विश्वविद्यालय हिन्दी पट्टी के सबसे बड़े महानगर दिल्ली में स्थित हैं जहॉं हिन्दी जानने वाले शत–प्रतिशत होंगे । इसके बावजूद दिल्ली स्थित विश्वविद्यालयों में ऐसा रोज हो रहा है ।विश्वविद्यालयों के भाषा माध्यम की निगरानी के लिए क्यों कोई निगरानी समिति या संसदीय समिति नहीं है ? आजादी के बाद कई शिक्षा संबंधी आयोगों ने न केवल प्राथमिक शिक्षा बल्कि स्नातकोत्तर शिक्षा को भी अपनी भाषा में देने की वकालत की है । डॉ.कोठारी स्वयं दिल्ली विश्वविद्यालय से जुड़े रहे हैं । क्या दिल्ली विश्वविद्यालय का फर्ज नहीं बनता कि वे अपने एक शिक्षाविद के सपनों के अनुकूल हिन्दी क्षेत्र के उन गरीबों को उनकी अपनी भाषा में शिक्षा मुहैया कराने के लिए कुछ कदम उठाए ? मजबूरन अंग्रेजी सीखने की इस यातना में कई बार आत्महत्या या डिप्रेशन में चले जाने की भी खबरें आती रहती हैं । इस प्रक्रिया में इन बच्चों का आत्मविश्वास निरंतर टूटता जाता है । क्या सही शिक्षा का नाम बच्चों में आत्मविश्वास जगाना है या सदा के लिए उसे खत्म करना है ?
यह केवल कालेज के स्तर पर ही नहीं हो रहा अब तो इसकी शुरूआत प्राथमिक स्कूल में भी हो रही है । पिछले दिनों की खबर है कि एम.सी.डी. ने खुद सौ स्कूल ऐसे चुने हैं जहॉं पहली क्लास से ही अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाया जाएगा । निश्चित रूप से अफरा–तफरी का यह कदम निजीअंग्रेजी स्कूलों की तरफ भागती, बढ़ती भीड़ को बचाने का है लेकिन क्या सरकार और समाज शिक्षा के बुनियादी प्रयोजनों को भूलते हुए एक सामूहिक आत्मघात की तरफ नहीं बढ़ रही ? यह प्रक्रिया दिल्ली और देश के दूसरे राज्यों में भी निरंतर बढ़ रही है । सरकारी स्कूलों में जाने वाले विशेषकर इन गरीबों के बच्चों को वहां अंग्रेजी पढ़ाएगा कौन ? क्या प्राइमरी या माध्यमिक स्कूलों में जो शिक्षक पढ़ाते हैं उनकी अंग्रेजी इतनी अच्छी है जो बच्चों को भी पढ़ा सकें ? तो क्या हम अमेरिका, इंग्लैंड के बेरोजगार, शिक्षकों के लिए अंग्रेजी पढ़ाने की सड़के तैयार कर रहे हैं ? विश्वविद्यालयों से लेकर प्राथमिक स्तर तक एक पूरा बाजार जैसे अंग्रेजी के लिए तैयार किया जा रहा है । हाल ही में खुदरा व्यापार में विदेशी दुकानों, माल खुलने का इतना विरोध हुआ कि सरकार को अपने कदम वापस लेने पड़े । फिर शिक्षा, संस्कृति में अंग्रेजी का हर स्तर पर इतना स्वागत क्यों ? यदि एफ.डी.आई. देश के दुकानदारों को कहीं का नहीं छोड़ेगी तो क्या अंग्रेजी सामान्य जन के लिये भला करेगी ?
नेताओं की छोड़ी हुई कुर्सियों को ताकते दिल्ली में बैठे कई नये संगठन, बुद्धिजीवी रोज ऐसे मुदृदों को उठाए जंतर–मंतर पर बैठे रहते हैं जिससे कि उनकी राजनीति चमकती रहे । जड़ों पर जाइये दोस्तों । मनु स्मृति जैसे ग्रंथ मनुष्य–मनुष्य में भेद करके जाति और धर्म को स्थापित करते हैं वैसे ही हिन्दुस्तान जैसे मुल्क में अंग्रेजी करेगी । मनु स्मृति की गलती तो सुधार की तरफ है मगर अफसोस कुछ दलित अंग्रेजी की मनु स्मृति में समाधान ढूंढ रहे हैं ।
इससे मिलती–जुलती एक और खबर पर गौर कीजिये । लखनऊ मेडिकल कॉलेज में लगभग पचास डॉक्टर ऐसे हैं जो पिछले पंद्रह वर्ष से परीक्षा में बार–बार बैठने के बावजूद भी एम.बी.बी.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण नहीं कर पा रहे हैं । कोचिंग की सुविधा और विशेष रियायत देने के बावजूद भी जातीय विद्वेष के आरोप से बचने के लिए विश्वविद्यालय ने दूसरे मेडिकल कॉलेजों के परीक्षक नियुक्त किये लेकिन ये विद्यार्थी फिर भी डॉक्टरी का पाठ्यक्रम पूरा नहीं कर पा रहे । हार कर लखनऊ विश्वविद्यालय ने मेडिकल कांउसिल इंडिया को लिखा है कि क्यों न एक विशेष रियायत के तहत इन विद्यार्थियों को उत्तीर्ण घोषित किया जाए । समाज के इन गरीबों, दलितों के लिए एक सहानुभूति की जरूरत है । निश्चित रूप से ये उतने मेधावी नहीं रहे होंगे लेकिन उससे ज्यादा यदि समस्या की जड़ में जाएं तो अंग्रेजी माध्यम और अंग्रेजी भाषा की किताबें रही होंगी । काश ! इन विद्यार्थियों को अपनी भाषा में लिखने, पढ़ने की आजादी या क्लास में प्रश्न पूछने की आजादी उपलब्ध रहे तो ये न केवल उत्तीर्ण होंगे शायद अपने पाठ्क्रमों में कई गुना बेहतर कर सकते हैं । अनेकों शिक्षाविद, वैज्ञानिकों ने और शीर्ष पर पहुंचे हुए इंजीनियरों और डॉक्टरों ने यह आत्म स्वीकरोक्ति की है कि अंग्रेजी में न बोल पाने के कारण वे कैसे अपनी क्लास में प्रश्न नहीं पूछ पाते थे । तीस वर्षों में सिविल सर्विसेज में कोठारी आयोग की अनुशंसाओं के अनुकूल अपनी भाषाओं में उत्तर देने की सुविधा के बाद पिछले तीस वर्षों के आंकड़े बताते हैं कि केन्द्रीय सेवाओं में आरक्षित वर्ग से चुने हुए पचास प्रतिशत से ज्यादा ने अपनी भाषा का माध्यम चुना है । क्योंकि जिन गरीब परिवार और क्षेत्रों से वे आते हैं वहां अंग्रेजी के बजाए अपनी भाषा पर उनका अधिकर कई गुना होता है । हिन्दी के एक वरिष्ठ कविजन जनसत्ता के पृष्ठों पर वर्षों से विदेशों में किताबों, पुस्तकालयों, लेखकों, कविओं उनकी भाषा आदि के बारे सुनाते आ रहे हैं । कई दोस्तों के कान भी पक गये उनका विदेशी वृतांत सुनते–सुनते । काश कभी–कभार सरकार की भाषा नीति पर भी उन्होंने दिल्ली या देश के लेखकों को लामबंद करने की कोशिश की होती ? कहीं अंदर की बात यह तो नहीं कि कविता से आगे हिन्दी को वे भी शिक्षा और विमर्श से दूर रखना चाहते हों । वरना दिल्ली के स्कूलों से हिन्दी गायब हो जाए और सबसे ज्यादा तादाद में रहने वाले दिल्ली का लेखक समुदाय ऐसे चुप बना रहे । दुष्यंत कुमार की एक गजल का अर्थ तो वे जानते ही होंगे ‘मौत की संभावनाएं सामने हैं और नदियों के किनारे घर बने हैं ।’ हिन्दी लेखक तो बेचारा ऐसी लचर मिट्टी का लौंदा है जिसकी अपनी कोई मूर्ति ही नहीं बन पाई । वह वही बोलता है, वही रूप धारण करता है जो उसकी राजनीतिक पार्टी इशारा करे । मुद्दा आरक्षण का हो या अन्ना का, या भाषा का, वह बारात में सबसे पीछे चलने वाला प्राणी बन चुका है प्रेमचंद की बुझी लालटेन थामे ।
आश्चर्य की बात यह भी है कि बिहार, यू.पी. से विस्थापित ये अधिकांश छात्र जो भाषा के इस कहर के शिकार हैं वे लामबंद होकर आगे क्यों नहीं आ रहे हैं ? कदम–कदम पर जातिगत क्षेत्रीय अस्मिता, विभेद के खिलाफ हुंकार भरने वालों का खोलता खून क्यों ठंडा पड़ा हुआ है ? विशेषकर आरक्षण के मसले पर बार–बार ईंट से ईंट बजाने वाला यूपी, बिहार का सवर्ण और दलित कहॉं सोया हुआ है ? क्या भाषा के इस मुद्दे को भी अन्ना की टीम ही उठाएगी ?
हांसिये पर सदियों से डाले गये आदिवासी, दलित, गरीबों की अस्मिता और हक की लड़ाई तो कुछ समूह उठा रहे हैं लेकिन अपनी भाषा के जिस बुनियादी हक और आजादी पर दुनिया के हर नागरिक का हक है वहॉं चुप्पी क्यों ? क्या अपनी भाषा के बिना किसी भी आजादी का कोई अर्थ है ?
दिनांक : 15/12/2011
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