मुझे अब भी यकीन नहीं आ रहा कि केदारनाथ सिंह अनामिका या अरविंद मोहन ने मैथिली-भोजपुरी अकादमी के प्रति उत्साह दिखाया होगा, लेकिन जब ये इसके सदस्य बनाए गए हैं तो मुखर न सही मौन स्वीकृति तो उनकी रही ही होगी । क्या आने वाले दिनों में हम बड़े रचनाकारों को बृहद हिन्दी संसार से अलग करके अत्यंत सीमित क्षेत्रीय करके विशिष्ट खाने के अंतर्गत भोजपुरी, मैथिली के रूप में ही ज्यादा जानें-पहचानें । बृहद भू-मंडलीकरण के नारे के तहत छोटी-छोटी पहचान को बनाए रखना भी ‘बहुलतावाद’ का लोकतंत्र है, लेकिन फिर प्रश्न उठता है कि ऐसे कृत्यों और डाल-डाल पर बसेरा बनाने की तरफ बढ़ती ब्राह्मण तथा गुर्जर सभा, सैनी सभा या अन्य हजारों जातिवादी समाजों, संस्थाओं को रोकने में इन बुद्धिजीवियों के शब्दों, विचारों या सिद्धांतों का क्या होगा ?
क्या हिन्दी के विराट लचीले संसार में इन्हें इनका यथेष्ट नहीं मिल रहा था, जिसकी कुलबुलाहट में ये सब एक क्षेत्रीय छतरी के नीचे आने को मजबूर हुए या हम सब बुद्धिजीवी साहित्य-संस्कृति में भी राजनेताओं के इशारे पर चलते रहेंगे ? क्या भला हो जाएगा मैथिली या भोजपुरी भाषा का ऐसी अकादमियों के बनने से, जब हिन्दी प्रांतों में ही हिन्दी की दुर्गति बनी हुई है । दिल्ली के स्कूलों में ही न केवल अंग्रेजी बल्कि फ्रेंच जिस तेजी से हिन्दी को लांघते हुए बच्चों को पढ़ाई जा रही है, वहां क्या यह नई अकादमी भोजपुरी-मैथिली भाषा को पढ़ाने की कोई कोशिश कर पाएगी ? क्या इसकी कार्यकारिणी के ये सदस्य अपने बच्चों को भी स्कूल में इन भाषाओं को पढ़ाना चाहेंगे ? यदि नहीं तो ये हमारे करनी-कथनी के फर्क को ही ज्यादा उजागर करेगा । हो सकता है इन स्कूलों में उर्दू-संस्कृत शिक्षकों की तर्ज पर कुछ सरकारी रोजगार की खातिर भोजपुरी शिक्षकों की भर्ती की मांग कर डालें और चुनावी गणित के तहत मामला उधर बढ़ने भी लगे, लेकिन इसके वैसे ही दूरगामी विघटनकारी अंजाम होंगे, जैसे संकेत महाराष्ट्र की राजनीति से आ रहे हैं । संस्थान पर वोट की राजनीति के कुछ धुरंधर पूरे देश के ऐसे विघटनों को सफलता मान सकते हैं । कुछ पद प्रतिष्ठा भले ही पा सकते हैं, लेकिन यह बढ़ाएगा दूरियां ही ।
क्या दिल्ली में राजस्थानी नहीं रहते, पहाड़ी कम हैं या ब्रज प्रदेश तो आधी दिल्ली है । फिर इनके लिए अकादमियां क्यों नहीं ? क्या यह किसी वैकल्पिक ढंग से विचार-विमर्श से आकलन करके किया गया है या सिर्फ वोट बैंक के दबाव में ? यदि इसी रफ्तार और अलग पहचान के नाम पर दिल्ली में रह रहे सभी बोली-भाषाओं के लोगों के लिए अलग-अलग ऐसी ही अकादमियों की दुकानें खुलती रहीं तो दिल्ली सरकार के पास सड़क, बिजली, शिक्षा के लिए शायद ही कोई पैसा बचे । ज्यादा अकादमी, ज्यादा पुरस्कार यानि कि दिल्ली में बैठे-बैठे साहित्य-संस्कृति में ज्यादा राजनीति ।
खैर संविधान में प्रदत्त आजादी की खातिर हर नागरिक को कोई भी संस्था, अकादमी बनाने का जायज अधिकार है, लेकिन इन्हें आप सरकारी पैसे के भरोसे क्यों बनाते हो । तमिलभाषी या मराठी, भोजपुरी के विकास के लिए तो टैक्स नहीं देता । दिल्ली में मुझे पता है कि केरल, तमिल, मराठी, बंगाली, सभी समुदायों की संस्थाएं हैं, सदन हैं, स्कूल हैं, लेकिन इनमें से किसी ने भी भाषा की अकादमी बनाने की मांग नहीं की और न वोट बैंक की खुद की घुड़की से सत्ता की बाजू मरोड़कर अकादमियां बनवाईं ।
मैथिली-भोजपुरी अकादमियां उनके अपने राज्यों में पल्लवित पोषित हों और दिल्ली के ये महान लेखक-प्राध्यापक वहीं इनके सदस्य, अध्यक्ष बनाए जाएं । इनकी प्रतिभा, लेखन का फायदा सचमुच इन बोलियों/भाषा के लोग भी तभी बेहतर उठा पाएंगे ।
पंजाबी, संस्कृत, हिन्दी, उर्दू के लिए तो यह भी कहा जा सकता है कि ये भाषाएं स्कूली स्तर से लेकर विश्वविद्यालय तक दिल्ली में पढ़ाई जा रही हैं । भोजपुरी और मैथिली किस स्कूल में है ? क्या उन स्कूलों में भी है, जिनके मालिक मैथिली या भोजपुरी के हैं । फिर यह सिर्फ इसलिए कि कुछ ग्रांट, सुविधा, सूबेदारी मिले । यह खतरनाक खेल है, विशेषकर तब, जब बुद्धिजीवी माने जाने वाले लेखक, पत्रकार, प्राध्यापक कुछ कुर्सियों के चक्कर में वैसा ही करने लगें, जिसके खिलाफ वे कल तक आवाज उठाते थे । दिल्ली की हिन्दी अकादमी को भी अपने मिशन और विजन को फिर से देखने की जरूरत है । अकादमी यह देखे कि हिन्दी प्रांत में स्कूली शिक्षा या कॉलेज स्तर पर भी हिन्दी भाषा में रूप में और माध्यम के रूप में है या नहीं । दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों में यदि हिन्दी माध्यम में पढ़ने वालों की बढ़ी संख्या के बावजूद यदि शिक्षा नहीं मिल रही तो हिन्दी अकादमी क्यों और किसलिए हैं । सिर्फ पुरस्कार देना पर्याप्त नहीं है । किसी भी भाषा के लेखक का सबसे बड़ा पुरस्कार होता है उसकी भाषा, साहित्य में नई पीढ़ी संस्कारित हो रही है या नहीं । हाल ही में तमिलनाडु के अनुभव से भी सीखा जा सकता है, जहां प्राइमरी शिक्षा में तमिल माध्यम अनिवार्य कर दिया गया है । अफसोसजनक यह है कि लाखों के संख्या बल के बूते दिल्ली में भोजपुरी, मैथिली, अकादमी बनाने वाले कुछ आवाज स्कूलों, कॉलेजों में हिन्दी माध्यम के लिए भी उठाएं तो संविधान के प्रति भी उनका दायित्व पूरा होगा, लेकिन वहां तो ये सब ऊपर से नीचे तक सिर्फ अंग्रेजी और पब्लिक स्कूलों के साथ हैं- पहले अपने प्रदेश से दिल्ली और यहां से अमेरिका जाने की तैयारी की खातिर ।
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