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बिहार : सुनी हुई तस्वींर सुनहरी

Jan 30, 2012 ~ Leave a Comment ~ Written by Prempal Sharma

मयूर विहार, दिल्‍ली की एक बस्‍ती का कोना । दिनांक 2011 के आखिरी दिन । मैं कथाकार संजीव का इंतजार कर रहा हूँ । सोचा मूंगफली वाले से ही बतला लिया जाए । उम्र इक्‍कीस साल लेकिन तीस से ज्‍यादा लगती   है । बात शुरू होती है उसके अतीत पर । उसने बताया ‘दिल्‍ली सात–आठ साल से हूँ और उससे पहले बम्‍बई में था ।’ इतनी छोटी उम्र में बम्‍बई भी रह लिये ? हॉं साब घर से भाग गया था । कुछ संकोच, कुछ गंभीरता से उसने  बताया । बस गांव में पढ़ने का न माहौल था, न मास्‍टर जी पढ़ाते थे । बम्‍बई कुछ दिन होटलों पर काम किया फिर दिल्‍ली आ गया । मूंगफली तो सर्दियों में ज्‍यादी बिकती हैं फिर क्‍या करते हो ?‘मैं गर्मियों में मूंगफली के साथ कुछ मुरमुरे भी रख लेता  हूँ । पूरा साल यही काम । सौ, सवा सौ, डेढ़ सौ की दिहाड़ी हो जाती है । किसी फैक्‍टरी में हाड तोड़ने से तो बेहतर है ।’

अंधेरा बढ़ने लगा है । मैं गौर से हर आदमी को निकलते देखता जाता हूँ । अच्‍छा हुआ संजीव देर से निकल रहे हैं । बिहार से क्‍यों आ गये ? साहब  मैं अकेला थोड़े ही हूँ । यहां रिक्‍शा वाले, अंडे वाले, मोची ये सब बिहार से ही हैं । करें क्‍या ? अब तो भी ठीक होने लगा है नहीं तो खाने की भी दिक्‍कत और ऊपर से कोई भी लूट पीट लेता था । अब कैसे ठीक हो रहा है ? क्‍या ठीक हो रहा है ? मानो उसमें एक जोश भरता जा रहा है । अब तो सब कुछ ठीक हो गया । मेरी मॉँ बीमार थीं । सरकार ने एक कार्ड दिया है । कहीं भी इलाज करा लो । सरकारी में चाहे प्राइवेट अस्‍पताल में । तीस हजार रुपये तक । खाने–पीने का भी ध्‍यान रखता था अस्‍पताल । कोई शिकायत होती तो डॉक्‍टर खुद भागते कि कहीं ऊपर शिकायत न कर दें । पहले तो हमें पता भी नहीं होता था कि सरकारी अस्‍पताल में भी जा सकते हैं । पहले मैं गाँव, बिहार साल में एक बार भी जाने में डरता था । अब तो मॉं–पिताजी की जब भी खबर आती है चला जाता हूँ ।

अन्‍दर–ही–अन्‍दर कुछ संकोच से मैं पूछता हूँ कि कहीं इसीलिए तो नहीं कह रहे कि आप नीतिश कुमार की जाति के   हो । उसने पलट कर जवाब दिया ‘मेरा नाम संजय कुमार पासवान है साहब । जाति बड़ी नहीं होती ईंसान बड़ा होता है । हम पहले अपनी जाति वाले को वोट देते थे, अब कभी नहीं देंगे । पिछली बार तो वो किसी दूसरे धर्म के आदमी को मुख्‍यमंत्री बनाना चाहते थे । हम सब बबक गये ।

–क्‍या नाम बताया आपने ? मैं पूछता हूँ ।

–संजय कुमार पासवान।

मैं–नहीं ! सिर्फ संजय कुमार ।वह ठिठका, मुस्‍कुराया फिर बोला ठीक ।

–संजय कुमार ।

–और आप ।

–मेरा नाम —–  ।

–आगे– पीछे क्‍या डालते हो साहब ?

–न आगे कुछ, न पीछे ।

और बात बढ़ती तब तक संजीव आ गये थे । मैं उनसे जिक्र करता हूँ । वे लगभग चुप्‍पी साधे हैं । शायद पचा नहीं पा रहे । संजय ने इन्‍हीं बातों को इसी अंदाज में कुछ और जोड़ते हुए फिर से दोहराया ।

अगले दिन मैंने दफ्तर के उन सात–आठ नौजवानों से बात की जो मुंगेर, लक्‍खीसराय, नालंदा, सीतामढ़ी के रहने वाले हैं । इन सभी ने हाल ही में दिल्‍ली में सरकारी नौकरी शुरू की है ।  लगभग एक से ही स्‍वर हैं सभी नौजवानों के । सीमा कुमारी बरियारपुर से हैं । उन्‍होंने बताया कि पहले बहुत दिक्‍कत होती थी बरियारपुर से मुंगेर अठारह किलोमीटर जाने में । तीन–चार घंटे लग जाते थे । डर अलग लगता था । दूसरा बोलता है पूर्णिया अररिया से पैंतीस किलोमीटर दूर है । मेरे पिता जी  वहॉं नौकरी करने जाते थे । पाँच घंटे जाने में लगते थे और पाँच घंटे आने में । अब सड़कें ऐसी हो गई हैं कि डेढ़ घंटे में पहुंच जाते हैं । दरभंगा की अंजना कुमारी तो और भी परेशान थीं ।  दरभंगा स्‍टेशन पर उतरकर दस किलोमीटर गॉंव जाने में नानी याद आ जाती थी । दो किलोमीटर बैलगाड़ी से जाती थीं, फिर नॉंव से । अब सड़कें ठीक हो गई हैं । मैं लड़की हूँ तब भी डर नहीं लगता । पहले मेरी मॉं भाई को भी नहीं निकलने देती थीं । डरती थीं कि कहीं अपहरण न हो जाए । रोज अपहरण की खबरों से डरी रहती थीं । शुरू में नक्‍सलवादियों को बदनाम करते थे फिर तो रोज के ही किस्‍से होने लगे । हमारे कस्‍बे में एक मशहूर डॉक्‍टर थे उनका अपहरण हुआ फिरौती देकर जैसे–तैसे छूटे । वो एक दो महीने में ही अपना सब कुछ बेचकर अमेरिका चले गये । कई लोगों ने ओने–पौने दामों पर अपनी जमीन बेच दी । कोई दिल्‍ली, कोई पटना, तो कोई मुम्‍बई चला गया ।

 

  समस्‍तीपुर के सुमन कुमार हैं । वे कहते हैं कि अब तो खेती में भी बहुत सुधार है । अब गॉंव में एक कृषि सलाहकार आता है । किसको लोन की जरूरत है, खेती के लिए, बुवाई के लिए या ट्रेक्‍टर के लिए । फार्म भरवाता है और बिना किसी रिश्‍वत के लोन मिल जाता है । बैंक कोई परेशानी पैदा नहीं करते । टीचर पहले स्‍कूल जाते ही नहीं थे अब वो नौ बजे का स्‍कूल है तो नौ बजे ही पहुँचते हैं । कोई बच्‍चा स्‍कूल न आए तो गॉंव मे उसके घर जाते हैं । मॉं–बाप को समझाते हैं । कभी–कभी मजदूर मॉं–बाप को धमकाते भी हैं कि यदि बच्‍चा स्‍कूल नहीं आया तो उसका वजीफा बंद हो जाएगा । स्‍कूल की साइकिल नहीं मिलेगी । घर–घर में लड़कियों को साइकिल दी हुई है । लड़कियां पड़ोस के कस्‍बों में साइकिल से निडर होकर पढ़ने जा रही हैं । यही कारण है कि पिछली जनगणना में बिहार में लड़कियों की साक्षरता और शिक्षा में उत्‍साहवर्धक वृद्धि हुई है ।

सभी एक स्‍वर में सिर हिला रहे हैं कि प्रशासन में भी डर है कि यदि काम नहीं किया तो शिकायत ऊपर तक पहुंच जाएगी और शासन का भी डर है कि कुछ गलत किया तो जेल में चले जाएंगे । रामचन्‍द्र राय बताने लगे कि पिछले दिनों एक छोटी सी घटना के बहाने हिन्‍दू–मुस्लिम दरार पैदा करने की कोशिश की गई थी । मुख्‍यमंत्री तुरंत पहुंचे, डीएम पहुंचे और मामला शांति से सुलझा लिया गया । अब मुसलमान भी जल्‍दी दूर नहीं जाएंगे । बच्‍चे, लड़कियॉं तो उनकी भी आगे बढ़ रही हैं । और तो और गरीब यादव जिन्‍होंने पुराने राज में भी कष्‍ट सहे वे भी नये राज से खुश हैं । उनकी समझ में आ गया है कि जाति से भला नहीं होने वाला । अब गरीब से गरीब भी बच्‍चों को स्‍कूल भेज  रहा है । और दो–तीन स्‍कूलों से वजीफा भी ले रहा है एक ही बच्‍चे के नाम पर । बेईमानी की कुछ खबरें मिलीं हैं । लेकिन जल्‍दी ही इसका भी इंतजाम हो जायेगा ।

सपना कुमारी जोड़ती हैं कि पहले दबंग फसल काटकर ले जाते थे । अब कोई हिम्‍मत नहीं कर सकता । बात का समापन एक नौजवान ने इस अनुभव से किया कि पिछली बार जब गांव जा रहा था तो पंजाब के एक किसान बिहार के हमारे जिले में जा रहे थे । मजदूरों को अपने पंजाब में खेतों पर काम पर लौटाने के लिए । वे उनको तरह तरह का लालच दे रहे हैं । रहने के लिए मकान देंगे, बीमा होगा, मेडिकल की सुविधा होगी, आने–जाने का किराया देंगे । कहां तो पहले भइया और बिहारी कहकर दुतकारते थे अब उनकी मेहनत की तारीफ करते हुए नहीं अघाते ।

 

तीस–चालीस प्रतिशत कम हो गया है बाहर जाना । छोटी–मोटी फैक्‍टरी जो बंद पड़ी थीं फिर चालू हो गयी हैं । मयूर विहार के प्रोपर्टी डीलर गणेश ने बताया है कि उसने मुंगेर के पास के अपने गॉंव में दस लाख मकान में लगाये हैं । पिछली सरकार होती तो मैं कभी भी मकान बनाने की नहीं सोचता । पहले तो आधे पैसे माफिया को देने पड़ते । फिर सोचते हुए कहता है ‘अब तो मन करता है कि दिल्‍ली से वापस लौट जायें । घर परिवार तो सब वहीं है ।’

वाकई जनता गलत नहीं होती । गलत शासक और शासन होता है ।

काश !  पड़ौसी उत्‍तर प्रदेश भी इन सबसे सबक ले पाए । 

 

दिनांक 30/1/2012

Posted in Lekh, Samaaj
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Prempal Sharma

प्रेमपाल शर्मा

जन्म:
15 अक्टूबर 1956, बुलन्द शहर (गॉंव-दीघी) उत्तर प्रदेश

रचनाएँ:
कहानी संग्रह (4)
लेख संग्रह (7)
शिक्षा (6)
उपन्यास (1)
कविता (1)
व्यंग्य (1)
अनुवाद (1)


पुरस्कार/सम्मान :
इफको सम्मान, हिन्दी अकादमी पुरस्कार (2005), इंदिरा गांधी राजभाषा पुरस्कार (2015)

संपर्क:
96 , कला कला विहार अपार्टमेंट्स, मयूर विहार फेस -I, दिल्ली 110091

दूरभाष:
011 -22744596
9971399046

ईमेल :
ppsharmarly[at]gmail[dot]com

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