मुझे अफसोस है कि मैंने बाबा साहेब डा.भीमराव अम्बेडकर को बहुत देर से जाना। देर से तो मैंने महात्मा गांधी को भी पढ़ा लेकिन बाबा साहेब को उसके भी बाद। क्यों ? कारण उस स्कूली व्यवस्था, शिक्षा में ज्यादा है। मेरी कॉलिज की नियमित पढ़ाई वर्ष 1975 में खुर्जा उत्तर प्रदेश के एक कॉलिज में बी.एस.सी तक हुई। स्कूली पाठयक्रम में एक किताब थी- ‘हमारे पूर्वज’ । इसमें दधीमि से लेकर विनोबा, सुभाष सभी थे। मुझे याद नहीं कि इसमें बाबा अम्बेडकर भी थे। न उन दिनों इनका जन्म दिवस होता था न निर्वाण या कोई और चर्चा। मात्र इतना बताया गया था कि हमारे संविधान बनाने में बाबा साहेब को बड़ा योगदान था। किस की सत्ता थी? कौन थे परिदृश्य पर? नेहरू जी उनकी कांग्रेस और उनका मिला जुला वंश। किताबों में क्यों नहीं थे अम्बेडकर? शिक्षा मंत्री मौलान आज़ाद लंबे समय तक रहे, फिर उनके एक और शार्गिद नुरूल हसन, हुमांयु कबीर आदि। शुरू की नूराकुश्ती के बाद कम्यूनिष्ट विचारक राजनेता, बुद्धिजीवीभी सन साठ तक कांग्रेसी सांठ-गांठ में शामिल होना शुरू हो गए थे। नेहरू जी की मृत्यु के बाद वे इन्दिरा गांधी की किचन केबिनेट का हिस्सा थे। रोमिला:राज थापर,इन्द्र कुमार गुजराल कुमार मंगलम…………………………। पाठयक्रम नये बने, बदले गये लेकिन काशी राम के उदय तक अम्बेडकर लगभग आजादी के सैंकड़ों महापुरुषों की भीड़ में एक से ज्यादा नहीं थे। गांधी की तो छोड़ो नेहरू जी के साथ भी आकलन के योग्य भी नहीं माना जाता था। सार-संक्षेप यह कि जितना नुकसान अम्बेडकर को नेहरू और उनके दरबारियों ने पहुंचाया उतना किसी दूसरी राजनैतिक सत्ता या व्यक्ति ने नहीं। मुसलमानों के मसीहा हैं तो नेहरू, दलित गरीबों के तो नेहरू और पंडितों के तो वे ही –पंडित वंश में जन्म लेने के कारण राजनीति इसी का नाम है और इससा घने में नेहरू जैसा चतुर सुजान कोई नहीं। इस विनिर्माण के लिए हर दाब पेंच अपनाये गये और इसीलिए कांग्रेस सत्ता पहली बार बार वर्ष 2014 में कुछ हिली है। वाजपेयी सरकार कांग्रेस की ही वो टीम थी।
नया अचानक है कि जिस पंडित राष्ट्र, उसकी अमानुषिकताओं ने भीमराव को बदलकर बाबा सोहब बनाया वह राष्ट्र नेहरू के सारे मुखोटे के साथ सम्मान के साथ नत्थी रहा और आज भी है उन दिनों के बुद्धिजीवियों की भूमिका भी यहां संदेह के घेरे में है कि क्यों उन्हें अम्बेडकर का संघर्ष, योग्यता, योगदान नहीं दिखाई दिया। क्यों वे नेहरू को खुश करने और बदले में कुछ विश्वविद्यालयों के पद, प्रतिष्ठा लेने के लिए अम्बेडकर को जाति विशेष का नेता ही मानते रहेरहे। बिकी हुई जमात अपने नेता की मंशा सबसे पहले पहचान लेती है और उसी के अनुसार नाचती हैं। यही कारण है कि उन दिनों हमारी सभी पीढि़यों को बाबा साहेब अम्बेडकर जैसे महान व्यक्तित्व से सभी अध्ययन, पाठयक्रम, विमर्श में दूर रखा गया। सरदार पटेल जैसे और भी इतिहास निर्माताओं के साथ नेहरू वंश ने यही सलूक किया। लेकिन इतिहास की निर्ममता देखिए कि भारतीय समाज को आमूल-चूल बदलने वाले अम्बेडकर आज नेहरू से ज्यादा प्रासंगिक हैं-हर क्षेत्र में। सामाजिक, राजनीतिक आर्थिक सभी में।
एक कहावत है जितना बड़ा संघर्ष होगा उतना ही बड़ा व्यक्तित्व। मनुष्य मनुष्य के बीच जैसा भेदभाव भारतीय समाज में है वैसा अन्यत्र नहीं। दोहराने की जरूरत नहीं कि बचपन के क्रूर नृशंस आघातों ने ही अम्बेडकर को इतना मजबूत बनाया िक वे भारतीय समाज को गठने वाले सबसे बड़े भारतीय महा पुरूष हैं। नेहरू की जकड़न, कांग्रेसी आत्म प्रशंसा-प्रचार से जैसे जैसे सन 1990 के आस पास देश को मुक्ति मिलती गयी बाबा साहेब उभर कर आते रहे।
डॉ. भीमराव जैसी शखसियतें शताब्दियों बाद पैदा होती हैं। क्या उनके विचारों के बिना इक्कीसवी सदी या कहे आधुनिक भारत की कल्पना की जा सकती है? नि:संदेह हर महापुरूष अपने युग की उपज होता है लेकिन बिरले ही ऐसे होते हैं जो आमूलचूल परिवर्तन के मसीहा बनते हैं। दुनिया में इतनी सामाजिक, गैरबराबरी भेदभाव, ऊंच-नीच शायद ही कहीं है। आश्चर्य की बात यह कि ऐसा हजारों साल तक चलता रहा। या कहें कि यह असमानता लगातार क्रूर और बढ़ती गयी। यहां हजार साल के उस मुस्लिम शासन को भी माफ नहीं किया जा सकता जो धर्म की तलवार तो भांजता रहा, समानता के लिए कोई कदम नहीं उठाया। लेकिन समय चक्र आगे बढ़ता रहा। यूरोप में पंद्रहवी सदी से शुरू हुए पुर्नजागरण ने दुनिया भर को गतिशील बनाया। तर्क, समानता, विज्ञान, स्त्री पुरुष की बराबरी और धर्म की जकड़न से मुक्ति इस गतिशीलता के प्रस्थान बिंदू बने। औद्यौगिक क्रांति, उपनिवेशवाद के रथ पर सवार ये विचार फ्रांसीसी क्रांति, रूसी क्रांतिसे गुजरते हुए दुनियाभर में फैले। अम्बेडकर, गांधी, गोखले भी कैस इनसे अछूते रह सकते थे। बल्कि कहे इससे पहले राजा राम मोहन राय, महात्मा फूले, सावित्री भाई फूले भी ब्रिटिस शासन की इसी समानता तर्क के दर्शन से अनुप्राणित हुए। बाबा साहेब अम्बेडकर नि:संदेह इनमें सबसे चमकते सितारे हैं।
सब से पहले वे सामाजिक बराबरी के लिए लड़े, फिर आर्थिक फिर मजदूरों के हितो के लिए । कौन सा क्षेत्र अछूता है? व्यक्तिगत स्वतंत्रता हो, स्त्री की बराबरी (हिन्दु कोड बिल) संविधानिक सुधार से लेकर शिक्षा, पंचायती राज। सही मायनों में ऐसे स्टेसमैन जिनके विचार देश और देश के बाहर लगातार प्रासंगिक हैं। उनकी प्रतिभा का लोहा हर मंच ने माना और आज भी मान रहे हैं।
बाबजूद इस सबके हमें भारतीय समाज को परिवर्तन की इस परिधि तक लाने वाली विरासत को एक निष्पक्ष दृष्टि, तर्क से समझने की जरूरत है न कि भावना या राजनैतिक राग द्धेष में तर्क वाली दृष्टि राजा राम मोहन राय से शुरू होकर महात्मा फुले, सावित्री वाई फुले, महात्मा गांधी से नेहरू से लेकर बाबा साहब और उसके बाद तक अनवरत हैं। मौजूदा सभ्यताओं का बड़ा श्रेय इस तर्क पद्धति को है जो यूरोप के पुर्नजागरण से शुरु होती है। पूरा विज्ञान सोचने का ढंग धर्म को धकियाता इुआ आगे आता है और यूरोप के कायाकल्प के बाद पूरी दुनिया को बदलता है। फ्रांसीसी क्रांति हो या रूसी या अमेरिकी क्रांति और दास प्रथा का अंत- समानता की बुनियाद इन्हीं सड़कों से गुजरती है। इसलिए ब्रिटिश काल भारत के लिए एक वरदान भी हे जब हमारे इन सब दिग्गजों ने मनुष्य मनुष्य की समानतानता, न्याय, भाईचारा तर्क के अर्थ पहली बार जाने। क्या फुले महाराज की शुरू की शिक्षा उस ईसाई मिशनरी स्कूल में नहीं हुई होती तो समानता का दर्शन जान पाते? अम्बेडकर का कायाकल्प भी एक तरफ भारतीय समाज में भेदभाव जातिगत घृणा के अनुभव और दूसरी और इंग्लैंड, जर्मनी, अमेरिकी समाज, विश्वविद्यालयों में बराबरी के अहसास से होता है। प्रतिभाशाली तो वे थे ही, कानून अर्थशास्त्र, लोकतंत्र, शिक्षा हर क्षेत्र में मौलिकता के स्तम्भ। सर सैयद अहमद खां भी इ्ंग्लैंड से लेकर एक प्रगतिशील समाज की स्थापना के लिए मुसलमानों को ललकारते हैं और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए आगे बढ़ती है। स्वयं महात्मा गांधी यदि सत्य अहिंसा के हथियारों से आगे बढ़े तो इसलिए कि उन्हें ब्रिटिश न्याय व्यवस्था समाज पर यकीन था। अम्बेडकर कायाकल्प।
इसलिए इस पूरी विरासत को न भक्तिभाव से देखने की जरूरत हे न नकारवादी भावना से। देश की आजादी भी जरूरी थी और समाज की जकड़न क्रूर जाति व्यवस्था से भी। गांधी पर वर्ण व्यवस्था के प्रति नरमी का आरोप सही है तो अम्बेडकर पर अंग्रेजों के प्रति नरमी का। दोनों के अपने कारण हैं और सबसे अच्छी बात है कि दोनों में एक निडरता, स्पष्टता और अपने लक्ष्य के प्रति पूरी निष्ठा है। क्या पूना पैक्ट सफल नहीं होता तो आजादी की लड़ाई की एक जुटता बनी रह सकती थी? हरगिज नहीं। और यदि अम्बेडकर ने सामाजिक बराबरी के लिए ऐसा हट, दृढ़ता न दिखाई होती तो क्या संविधान में बराबरी गरीबों के लिए विशेष सुविधाओं की बातें शामिल होती? दोनों ही लोकतंत्रके सबसे खरे प्रहरी हैं। एक पूरे समाज की चिंता में देश भर को जगा रहा है तो दूसरा आजादीकी खातिर। यह बात दीगर है कि आजादी के सामाजिक परिवर्तन जितना तेजी से होना चाहिए था वैसा नहीं हुआ। लेकिन इसके लिए सामाजिक राजनैतिक कारणों के साथ नेहरू वंश ज्यादा जिम्मेदार है। नेहरू की अटूट निरंकुश सत्ता 1946 से लेकर 1964 तक रही। क्या बीस वर्ष कम होते हैं किसी बुनियादी परिवर्तन के लिए? और उसके बाद भी कुछ अंतराल को छोड़कर कांग्रेस का वंश ही सत्ता में रहा है। शायद गांधी न होते उनका नेहरू को इशारा न होता तो न नेहरू की कांग्रेस उन्हें संविधान पीठ का अध्यक्ष बनाती और न वे कबिनेट में आते। आये भी तो नेहरू की नीतियों से निराश तुरंत इस्तीफा देकर बाहर हो गये। यहां तक कि हिन्दु धर्म को छोड़कर बोध धर्म अपना लिया।
बाबा साहेब को सिर्फ दलित या जाति विशेष तक सीमित रखना उनके साथ ऐतिहासिक ज्यादती है। सवर्णों को समझने की जरूरत है कि बीस इक्सवीं सदी का भारत उन धर्म ग्रंथों , उपनिषदों, पुराणों की व्याख्या से नहीं चलाया जा सकता। समानता नये समाज की बुनियादें हैं और इसे हासिल करना ही होगा। वहीं दलितों को भी इस विषमता से बचने की जरूरत है कि अम्बेडकरबाद होने की शर्त ब्राह्मण-विरोधी होना है। कतई नहीं वे ब्राह्मणवाद की कट्टरता, ढोंग, नकली रीतिरिवाज के खिलाफ हैं- व्यक्ति विरोध से नहीं। ऐसा न होता तो उनकी शादी एक ब्राह्मणी से नहीं हुई होती। हिन्दु धर्म की हजार बुराइयों के खिलाफ वे मृत्यु पर्यन्त लड़ते रहे लेकिन मुस्लिम धर्म को वे इससे भी क्रूर मानते थे। उनका कहना था कि हिन्दु धर्म में अपनी बुराईयों के खिलाफ बोलने, उन्हें सुधारने की आजादी तो है, मुस्लिम धर्म की कट्टरता तो ऐसे प्रश्न उठाने की भी स्वतंत्रता नहीं देता। यही कारण है कि वर्षों सोचने विचारने और कई बार कुछ मुस्लिम मित्रों के उकसावेके बावजूद भी न उन्होंने मुस्लिम धर्म अपनाया न ईसाई। वे हिन्दु धर्म के ही एक प्रच्छद रूप वोध धर्म की ओर गये। क्या यह अकारण है कि जितना बाबा साहेब अम्बेडकर का जादू है उतना उनके अपनाये बौद्ध धर्म का नहीं। यह संतोष की भी बात है क्योंकि नयी सदी में और आने वाली सदियों में दुनिया भर से धर्म का मिटना ज्यादा स्थाई शांति का बंदोवस्त करेगा।
महात्मा गांधी पर एक किताब है बहुरूप गांधी/अनुगांधी की लिखी हुई। मुझे लगता है कि बाबा साहेब अम्बेडकर के ज्ञान, अनुभव संघर्ष को देखते हुए यह शीर्षक उनके ऊपर और ज्यादा स्टीक बैठता है। शिक्षा, पंचायती राज मजदूर बिल, अर्थशास्त्र कानून से लेकर हिन्दु कोड बिल तक तीन तलाक मुद्दे पर जो बहस चल रही है बाबा साहेब के विचार यहां सबसे महत्वपूर्ण हैं। 2 दिसंबर 1948 को संविधान सभा में बहस का विस्तार का जबाव देते हुए उन्होंने कहा था कि धर्म का दखल इतना क्यों होना चाहिए कि वह पूरे सामाजिक जीवन को ही समेट ले और विधान मंडल को उस क्षेत्र में घुसने ही न दें। कानून में बदलाव इसलिए चाहते हैं कि इतने अन्याय, असमानता, भेदभाव से भरी हमारी सामाजिक व्यवस्था हमारे मूलभूत मानवीय अधिकारों के रास्तें में न आये। हम ऐसी कल्पना भी कैसे कर सकते हैं कि कोई पर्सनल लॉ ऐसा भी हो सकता है जो राज्य के अधिकार क्षेत्र से एकदम बाहर हो। मौजूदा भारत के लिए सबसे ज्यादा प्रांसगिक महापुरुष।
हम सब का दायित्व है कि हम आत्म सजगता से अम्बेडकर जैसे व्यक्तित्व को देवता या मूर्तियों में कैद न होने दें। उन्होंने तो इन मूर्तियों को तोड़कर ही पूरे भारतीय समाज को रास्ता दिखाया था। वे हम सब की साझी विरासत हैं।