मौजूदा समाज सभ्यता को परस्पर प्रतिस्पर्धा और उससे सीखने –सीखाने ने ही यहां तक पहुंचाया है। सारी प्रगति, विकास इसी से आयी है। इसलिए शिक्षा के क्षेत्र में ग्लोबल गांव की परिकल्पना के अनुरूप वर्ष 2000 में दुनिया भर के बच्चों के लिए पीसा (प्रोग्राम फॉर इंटरनेशनल स्टूडेंट असैसमेंन्ट) परीक्षा शुरू की गई थी। इसमें दुनिया भर के लगभग अस्सी देश भाग लेते हैं। भारत और चीन ने भी पहली बार वर्ष 2009 में इसमें भाग लिया था। मगर अफसोस जहां चीन चौहत्तर देशों में पहले स्थान पर रहा, भारत सबसे पीछे बहत्तरवें स्थान पर।सिर्फ किरिकिस्तान हमसे पीछे था . निराश – भारत के कर्णधारों ने इसमें भाग न लेने का फैसला कर लिया-कई तरह के बहानो की आड़ में .
मौजूदा सरकार ने कई स्तरों पर विचार विमर्श के बाद फिर दुनिया की इया प्रतियोगिता पीसा में भाग लेने का फैसला किया है। अगली परीक्षा 2021 में होगी लेकिन उसके कई चरणों के काम पहले ही शुरू हो जाते हैं। यह परीक्षा हर तीन वर्ष के अंतराल में होती है और इसमें वे स्कूली बच्चे भाग ले सकते हैं जिन्होंने छ: वर्षीय स्कूली पाठयक्रम पूरा किया हो और उम्र पन्द्रह वर्ष हो। पहली बार जब भारत ने भाग लिया था तो उसमें हिमाचल और तमिलनाडू राज्य के चार सौ स्कूलों के सौलह हजार बच्चे शामिल हुए थे। लेकिन उम्मीद से बहुत पीछे रहे भारत के बच्चे। जबकि वर्ष 2009 में गणित, विज्ञान में एशिया के देशों चीन,सिंगापुर, हांगकांग, मकाउ, ताईवान ने यूरोप, अमेरिका को पीछे छोड़ते हुए पहले सात स्थान हासिल किए थे। 2012 में चीन के शंघाई स्कूल ने अपनी अब्बल हैसियत बनाई रखी। 2015 में जरूर सिंगापुर, जापान ने चीन को पीछे छोड दिया। 2015 में 55 लाख बच्चों ने इसमें भाग लिया था।एशिया के देशो की सफलता यहाँ गौर करने लाइक है .अमेरिका ,ब्रिटेन पहले दस में भी नहीं आ पाए इसमें .२०१५ में अमेरिका की रैंक गणित में चालीसवी और विज्ञान में पचीस्वी रही जब की ब्रिटेन की सत्ताईस और पंद्रह .सबक यही है की प्राथमिक शिक्षा पर ध्यान दिया जाये तभी भविष्य की अच्छे विश्व विद्यालय,विज्ञानं ,तकनिकी और देश की प्रगति संभव है .पिसा में अब्बल रहे ये देश लगातार दुनिया के सर्वश्रेस्ट शिक्षा संस्थानों की तरफ अग्रसर हैं.और हम हैं की आरक्षण ,जाति ,नक़ल की चपेट में .विवश हर वर्ष विदेशों की तरफ भागते नौजवान .नुक्सान पूरे देश का .
मौजूदा युग प्रतिस्पर्धा का है हर क्षेत्र में चाहे खेल हों, विज्ञान हो, कृषि हो या जीवन के दूसरे पक्ष। शिक्षा भी इसीलिए उतनी ही अहम है जितना दूसरे क्षेत्र। आप कुंए के मेंढ़क बने नहीं रह सकते। राष्ट्रों के विकास की बुनयिाद ही शिक्षा है अत: पीसा जैसे आयोजन का बायकॉट उचित नहीं ठहराया जा सकता विशेषकर तब जब हम विश्व शिक्षा संस्थानों में भारत के संस्थानो को भी देखना चाहते है . की स्थिति अत्यन्त शेचनीय है। वैश्विक संस्था ‘क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी’ के हाल के मूल्यांकन में विश्व के शीर्ष 250 में भारत के 6 मुश्किल से आ पाये हैं। इसीलिए केन्द्र सरकार ने तावड़ तोड़ पिछले वर्षों में कुछ आधारभूत परिवर्तन की ठानी है जिसमें संस्थानों की फीस, फैकल्टी,विद्यार्थी, पाठयक्रम आदि में पूर्ण स्वायात्ता शामिल है। उदेश्य है कि देश के कम से कम बीस संस्थान दुनिया के शीर्ष में शामिल हों। लेकिन शुरूआत में ही मुंबई की जियो इन्सच्यूट को शुरू होने से पहले ही उन छ: इन्सीच्यूट ऑफ एमीनेन्स में शामिल करना सरकारी मशीन में कई सन्देह पैदा करता है।
खैर पीसा में शामिल होने की खवर पूरे देश के स्कूली बच्चों के लिए बहुत उत्साहवर्धक है। वर्ष 2021 में यह परीक्षा भारत में चंडीगढ़ में होगी। चंडीगढ़ चुनने का कारण बेहतर शहर, व्यवस्था के साथ-साथ केवल हिन्दी और अंग्रेजी में उपलब्ध सुविधा भी है। यह परीक्षा केवल दो घंटे की होती है और इसमें शामिल विषय हैं-विज्ञान, गणित और सामान्य रीडिंग। हमारी पूरी स्कूली शिक्षा को भी इससे पुनरालोकन का अवसर मिलेगा। जैसे विज्ञान में रटे हुए सिद्धांत नियमों की वजाय वैज्ञानिक गतिविधियों, प्रयोगों, तथ्यों की रोानी में विश्लेषणात्मक प्रश्न पूछ जाते हैं। वैसा ही गणित और रीडिंग में। लक्ष्य बच्चे की समझ और रचनात्मकता को जांचना है। सिंगापुर, जापान के बच्चे इन सभी मापदंडों पर भारतीय बच्चों से मीलों आगे हैं और उसी अनुपात में ये देश- अपनी वैज्ञानिक, सामाजिक, आर्थिक प्रगति में। इसलिए यह कहकर इस परीक्षा से वॉयकाट करना कि यूरोपीय अमेरिकी पैटर्न की शिक्षा को प्रोत्साहित करती है, सरासर गलत है। अमेरिका, यूरोप भी चीन, सिंगापुर, जापान से बहुत पीछे हैं। जैसे एशिया के इन देशों ने पश्चिम से सीखकर अपनी विज्ञान, गणित मातृ भाषा की शिक्षा में परिवर्तन किए हैं। भारत के लिए भी सीखने का मौका है।
अब जब कई मोर्चों पर पाठयक्रम, भाषा, कौशल, व्यवसाय पर देश भर में मंथन चल रहा है और बार –बार देश भविष्य की खातिर बेहतर शिक्षा को ही रास्ता मानता है, ऐसे मूल्यांकन हमें रास्ता खोजने में ही मदद करेंगे। अच्छा हो पूरे देश में ऐसे प्रयोग का प्रचार प्रसार हो। अभी तो हम नकल, बेईमानी, शोध में धांधली से ही मुक्ति पाने में छटपटा रहे हैं। 2009 में फिंसड़ी रहने का मतलब सदा के लिए पीछे रहना नहीं है। २००२१ में अभी दो साल का वक़्त है और हम्मरे बच्चे भी अपनी मेहनत ,प्रतिभा में किसे से कम नहीं .आई आई टी ,मेडिकल परीक्षा भी कम कठिन नहीं है .पीसा की रैंकिंग का सन्देश देश और दुनिया तक जायेगा कि भारत में भी शिक्षा सुधार इ तरफ अग्रसर है .शिक्षा का अर्थ ही, बार-बार और सबसे सबक सीखना है। हाल ही में सम्पन्न एशियन गेम्स में बेहतर सफलता इसी का उदाहरण है।हालांकि खेल के मोर्चे पर तो हम चीन जापान से मीलो पीछे है .
हम महान हैं, हम विश्वगुरू हैं की ग्रंथि पर दक्षिण पंथियों का ही पेटेन्ट नहीं हैं। पूरे भारतीय समाज के कण कण में यह मिथ्या भम समाया हुआ है। बाबजूद इस महानता के चंद घोड़ों पर सवार विदेशी आक्रांता सिकंदर, गजनी ,तैमूर, गजनवी, बाबर से लेकर नादिरशाह चुटकियों से इस महानता को जमीदोज करते रहे। आजादी के बाद भी न हमारे उद्योगपतियों ने दुनिया से सीखा, न शिक्षा व्यवस्था ने। वे प्रतिस्पर्धा, कमपटीशन के नाम से ही डरते रहे हैं। और इसमें सारा दोष है उस राजनैतिक व्यवस्था का जो सिर्फ सत्ता में रहने को ही लोकतंत्र के नाम पर मीडियोक्रेसी को परोसती ,पुचकारती रही। कई बार स्वालम्बन, प्राचीन सभ्यता डींगों की दुहाई देकर जनता को मुर्ख भी बनाती रही। नतीजा हर क्षेत्र में हम लगातार पिछड़ते रहे। शिक्षा में सबसे बदतर .उदारीकरण के बाद अभी कुछ विकृतियों को हमें जरूर दूर करना है लेकिन हमें दुनिया की अच्छी बातों से प्रतिस्पर्धा करनी ही है अपने को बेहतर बनाने को , सक्षम बनाने को .वह चाहे शिक्षा हो या जीवन के दूसरे पक्ष समाज, तकनीक, कृषि व्यवस्था। चीन, सिंगापुर इसी से प्रेरित हैं। डर कर आप दुनिया के विश्वगुरू नहीं बन सकते।