पेशे से भारतीय प्रशासनिक सेवा में वरिष्ठ पद, शिक्षा से इंजीनियर मगर शौक से हिंदी साहित्य के पढ़ाकू मित्र ने अचानक प्रश्न उछाला क्या हिंदी में कहानी, उपन्यास खत्म हो रही है ? इससे पहले कि मैं इस प्रश्न को पूरी तरह समझता, संभलता उसने जोड़ा मैं पिछले कुछ वर्षों से कोई उपन्यास पूरा नहीं पढ़ पाया । लेता हूँ, शुरू करता हूँ, पन्ने दर पन्ने पढ़ने की कोशिश करता हूँ लेकिन पूरा करने से पहले ही हताश हो जाता हूँ । धीरे-धीरे अब हिंदी उपन्यास और कहानी की भी तरफ बढ़ने का मन नहीं करता । ऐसे कैसे हिंदी बचेगी ? लौट लौट कर वही प्रेमचंद की कहानियों में आनंद मिला है । मेरे बच्चे को भी, मेरी मॉं को भी । कुछ करना चाहिए हिंदी के लेखकों को ।
ये बातें उसने हाल ही में पुस्तक मेले के दौरान कही थीं । क्या मैं भी इन बातों को दूसरे कान से बाहर निकल जाने दूँ या इस दर्द के सत्य या अर्धसत्य को जानने, समझने की कोशिश करूं । पुस्तक मेले में वाकई प्रेमचंद चारो तरफ थे । राजकमल, वाणी, हिंद, सामयिक, नयी किताब, लेखक मंच से लेकर शायद सौ से ज्यादा हिंदी के प्रकाशकों में प्रेमचंद की किताबें नये से नये क्लेवर में छापी हैं । और उससे बड़ा सत्य यह कि इनकी कीमत हिंदी के धुरंदर लेखक की किताबों की तुलना में चौथाई से भी कम । शायद इसका अर्थशास्त्र बहुत सरल है । प्रेमचंद जब हजारों, लाखों में बिकते हैं तो कीमत भी कम ।
क्या जनता की चेतना, समझ, स्थिति वही बनी हुई है जो प्रेमचंद के समय में थी ? यदि ऐसा है तो आजादी के बाद जिन सत्ताधारी दलों को आप देश के बेढंगे विकास के लिये जिम्मेदार ठहराते हैं साहित्य संस्कृति के पक्ष के लिए तो उन लेखकों को भी आगे बढ़कर जिम्मेदारी लेनी चाहिये जो सारे पुरस्कार, उपाधियों को लेकर गदगद् होते रहे हैं । बचे हुए सरकारी समितियों से रंगाखुश तो पत्रकार, संपादक सरकारी विज्ञापन की आस में । हिंदी का सर्वनाश इसीलिये सबसे ज्यादा हिंदी राज्यों में हुआ ।
बीस-तीस वर्ष पहले कविता के बारे में भी ऐसी ही शंकाएं उठती थीं ऐसे ही आम पाठक की तरफ से । हमने नहीं सुनी । यह कहकर कि आधुनिक बोध, विश्व संवेदना, नये मुहावरे, बिंब, लघु मानव, चेतना कहकर अपनी कविता को सही बताते रहे और प्रश्न उछालने वालों को लताड़ते भी रहे । देखते-देखते अब कोई ऐसा भी नहीं बचा जो प्रश्न भी उठाए और लताड़ खाने के लिए भी बचा हो । कवियों से इसकी तहकीकात कर सकते हैं । पिछले कुछ सालों के अनुभव बताते हैं कि हिंदी के स्टॉलों पर सैंकड़ों हिंदी के लेखक तो मिलते हैं, पाठक नहीं ।
पुस्तक मेले में एक और तीखा प्रश्न इस मेले में एक लेखक मित्र ने उछाला कि क्या हम प्रकाशकों के लिए लिखते हैं ? और क्या उनके धंधों के प्रचार प्रसार के लिए यहां आते हैं, विमोचन करते कराते हैं या हिंदी भाषी पाठक जनता के प्रति भी हमारी कोई जबावदेही है ? जबावदेही है तो गरीब हिंदी का आम आदमी यहां से गायब क्यों है ? मुझे गांव के कुछ बिम्ब कौंध रहे हैं । गेहूं की फसल कटने पर शाम को मजदूरों को एक छोटा सा गट्ठर दे दिया जाता था । उनकी मजदूरी के रूप में जिसकी बालियों से मजदूर गेहूँ घर जाकर निकाल लेंगे मजदूरी के रूप में । ऐसा ही होता था कोल्हू चलने पर । गुड़ की भेली दे देना । क्या लेखकों की स्थिति भी ऐसे ही मजदूरों की नहीं हो गई जो प्रकाशक से मात्र बीस-तीस प्रतियां लेकर ही मग्न हो जाते हैं और फिर अगला उपन्यास, कहानी, कविता लेकर हाजिर । वाकई हिंदी की दुनिया में यह दौर प्रकाशकों और संपादकों का स्वर्ण युग है । संपादकों के पास भी लम्बी-लम्बी लाइनें और प्रकाशकों के पास भी उतनी । जिस पर निगाह पड़ जाए वही निहाल । सत श्री अकाल ।
विकास कुमार जैसा पाठक तो पुस्तक मेले से जा चुका है लेकिन प्रश्न अभी भी मेरे सामने लटका हुआ है कि आखिर यह कहानी खत्म क्यों हुई ? जिसे हम लेखक कहते हैं वह शुद्ध दिल्ली जैसे महानगरों का ऐसा बैक्टीरिया या वायरस है जिसने संवेदनशीलता, देश की समस्या, उसके यथार्थ, गरीबी, भाषा सबके प्रति वैसा ही प्रतिरोधी तंत्र बना लिया है जैसा मच्छरों ने डी.टी.टी. या दूसरे कीट नाशकों के खिलाफ जिंदा रहने के लिए । दिल्ली के स्कूलों में हिंदी न पढ़ाई जाए उनकी बला से । स्कूलों में दाखिले की समस्या हो उनकी बला से । किसानों की आत्महत्या से उनका मतलब सिर्फ दिल्ली में कभी-कभी सेमीनार करना है और वह भी किसी राजनीति के तहत । ‘मुँह में राम बगल में छुरी’ के मुहावरे में यदि हिंदी के लेखक का बिजुका या चित्र बनाया जाए तो यहां छुरी को बगल में छिपाने की भी जरूरत अब नहीं रही । अंग्रेजी की छुरी को तो आप सरेआम लिये घूम रहे हैं भारतीय भाषाओं और उसके बोलने वालों का गला काटने के लिए ।
शायद हमें आत्मविश्लेषण की जरूरत है । फार्म के स्तर पर भी बदलना होगा और चेतना के स्तर पर भी । क्या दिल्ली में ‘आप‘ पार्टी ने जैसे साठ साल से राज कर रहे अजगरों को नींद से जगाया है, क्या हिंदी साहित्य के कर्णधारों, लेखकों, चिंतकों, स्वयंसिद्ध शलाका पुरुषों को भी ऐसे पाठक के प्रश्नों से जगने की जरूरत नहीं है ? वरना हिंदी की कहानी खत्म होने में ज्यादा समय नहीं बचा है ।