बड़ौदा की गिनती उन शहरों में नहीं होती जो पुस्तकों की संस्कृति के लिए विख्यात हैं । जैसे- कलकत्ता, इलाहाबाद, भोपाल । दिल्ली भी । यहां तक कि आपको यदि अखबार, कोई पत्रिका चाहिए तो स्टेशन के अलावा सिर्फ दो और जगहें हैं । पूरे 10 लाख की आबादी वाले शहर में कुल मिलाकर तीन । हाल ही में यहां के पोश इलाके में भीड़ बाजार से हटकर एक पुस्तक की दुकान खुली है ‘क्रॉसवर्ड ।’ बैठने की जगह । अलग-अलग सैक्शन-फिक्शन, सौसोलोजी, बॉयोग्राफी, मैगजीन । क्योंकि एक भी पुस्तक या उसका पन्ना हिन्दी में नहीं था, इसलिए जो था मैं उसकी को बयान कर रहा हूँ । मैगजीन सैक्शन में गुजराती की कुछ पत्रिकाएं थीं—बाल पत्रिकाएं। उससे ऊपर वाली मंजिल पर कॉफी पीने की सुविधाओं के बीच में संगीत के विडियो कैसेट, स्टेशनरी आदि । हां, यहां हिन्दी फिल्में और उनके विडियो कैसेट सबसे आगे अंग्रेज़ी पॉप संगीत के भी थे, लेकिन हिन्दी के आगे बहुत पीछे ।
जब भी किसी ऐसी दुकान पर जाना होता है, आधा मन प्रसन्नता में खिल उठता है तो दूसरा आधा गम में डूबने भी । मेरी तरह मेरी पीढ़ी उम्र के मध्यांतर में है, लेकिन अपने लेखक दोस्तों को छोड़कर बतौर लेखक बाहर की दुनिया में शायद ही कोई पहचान है । घर में, रिश्तेदारों में भी नहीं । वे आपको इतना-भर तो जानते हैं कि आप कुछ लिखते हैं । क्या लिखते हैं ? यह जानने की न उन्होंने कोशिश की न आपने । तो दोस्त कितने हो सकते हैं ? वैसे इतने कम भी नहीं कि सब मिलकर आगे बढ़ें तो इस समाज तक नहीं पहुँचें । किन्तु क्या हम वाकई पहुँचना चाहते हैं ?
मार्किटिंग करना हमारे संस्कारों में वेश्वावृत्ति के आसपास का-सा घिनौना शब्द है। ‘चांद को कहना नहीं पड़ता कि मैं चांद हूँ।जब दम होगा तो बात पहुँचेगी ही।’ ‘खुशबू होगी तो लोगों को पता चलेगा ही’ आदि-आदि बातें । वर्षों, दशक, अर्ध-शताब्दी तो हमारे देखते-देखते हो गई। न खुशबू पहुँची, न बात । हम अपने-आप में जरूर चांद ही बने हुए हैं । अंग्रेज़ी वालों को पूरा खुला मैदान मिल गया । वैसे भी वह जिन आकाओं की भाषा है वे मार्किटिंग को हीन काम नहीं, सबसे बढि़या धंधा मानते-समझते हैं । काश ! हम उनसे ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में (पिछले दौर की तो चलो छोड़ो जब हम इस संतई में जिंदा रह सकते थे) मार्किटिंग ही सीख लें। पुस्तक को कैसे बढ़ाया जाता है, लिखने से पहले कैसे खबर लीक कराई जाती है, फिर बाजार में आने से पहले उसके अंश, फिर उद्घाटन, इंटरव्यू, समीक्षा ।महीने की, वर्ष की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक या उनमें से एक। अब आप चाहे उस किताब को रद्दी की टोकरी में डाल दें, लेकिन पैसे तो आपसे वसूल कर ही लिये; सांस्कृतिक होने का फायदा क्यों न उठाया जाए। हिन्दी -संसार में गायब है तो यही पक्ष। किसी एक को दोष नहीं दिया जा सकता । लेखक, प्रकाशक से लेकर अखबार, संपादक, पत्रिका, आवां का आवां ही ऐसा है । मैं पाठक या जनता को दोषी नहीं मानता । दोषी है तो उसके चौतरफा फैला आसमान, वह धरती जहां वह खड़ा है।
यह एक पक्ष हुआ । दूसरी बात मुझे लगी पूंजी की । इतनी अच्छी जगह, इसका चुनाव, सब-कुछ पूंजी मांगता है । क्या हिन्दी प्रदेशों में (प्रदेशों को छोडि़ए) हिन्दी जानने वालों में किसी के पास इस काम के लिए पूँजी नहीं है ? सुनते हैं दिल्ली के नंबर एक से लेकर कम से कम सत्तर-अस्सी तक सभी हिन्दी प्रकाशकों के पास गाड़ी और बँगले हैं । कुछ ने तो अपने घरों में ‘बिजिनेसमैन’ की तर्ज पर पुस्तकों की दुकान की श्रृंखला बनाने में ? मेरा कहना सिर्फ अगुवाई करना है । कुछ पूँजी लेखकों से भी इकट्ठी की जा सकती है सहकारिता आंदोलन की तर्ज पर । शायद ही किसी लेखक को एतराज हो । राजकमल, वाणी, प्रभात, किताबघर यदि एक-एक भी ऐसा जगमग स्टोर खोलें, जो कि वे सक्षम हैं, तो कोई कारण नहीं कि घाटे का सौदा हो । पुस्तक जाएगी तो कम से कम लोगों के पास तक । लेकिन तभी जब वे सरकारी खरीद से मुक्ति पाएँ। जब उनकी किताबें बिना किसी प्रयास के किसी भी गोदाम में भेजी जा सकती हैं और भुगतान का लाखों एक साथ मिल सकता है तो उन्हें किसी पागल कुत्ते ने काटा है कि इधर-उधर की बातें सोचने को । उसे तो जैसे आलू बेचने हैं वैसे ही किताबें ।
तो ? जिम्मेदारी हिन्दी -लेखकों-लेखक संगठनों को लेनी ही होगी । आज नहीं, अभी से । बातें करते-करते तो पचास वर्ष बीत गए। केरल का उदाहरण सामने है। बंगाल का भी। गुजरात के सहकारिता आंदोलन से सीखा जा सकता है। जब गुजरात जैसा राज्य बिना पढ़े-लिखे किसानों की सम्मिलित ताकत के बूते देश को दूध की नदियों का रास्ता दिखा सकता है तो ये लेखक, समाज की लालटेन, ट्यूबलाइट कहलाने वाले कुछ तो कर ही सकते हैं । पत्रिका, उसके साथ प्रकाशन और पुस्तक की दुकान यदि छोटे-छोटे सहकारिता के द्वीप भी बनकर खड़े हो जाएं तो समाज बदलने की दिशा में एक कदम हमारा भी हो जाएगा।
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