पता नहीं, कब छेदीलाल के दिमाग में पिज्जा चिपका कि लंदन जाकर जमकर पिज्जा खाएंगे ।
यदि हो सका तो रोज सिर्फ पिज्जा ही । चलते वक्त जब सभी ने बारी-बारी से कहा कि खाने-पीने का ध्यान रखना तो वह बड़ी अदा से मुस्कुराते कि ‘खाना कौन खाता है विलायत में । पिज्जा खाते हैं सब, पिज्जा ! या खा लिया तो कभी बरगर या हमबरगर !’
‘देखेंगे, वहां से कैसा मोटा होकर लौटता है ? दाल-रोटी के बिना तू कैसे रह पाएगा ?’ यह मॉं थी ।
‘अम्मा, बिल्कुल चिंता मत कर । वहां तो कहते हैं, स्वर्ग है खाने-पीने का । दाल-रोटी की छोड़, मक्की की रोटी, चने का साग भी वहां मिल जाता है ।’ अंत में उन्होंने कह ही दिया, ‘और फिर वे सब तो यहां भी मिल जाते हैं । वहां तो बस पिज्जा खाऊंगा, ए-वन पिज्जा !’
‘हमें तो बाजार की चीजों में कोई स्वाद आता ही नहीं । न जाने कैसे-कैसे हाथों से बनाते हैं ।’
‘मां, इतना स्वादिष्ट होता है कि बस मत पूछो ! और वे लोग हाथ से न तो बनाते हैं और न खाते हैं । कांटे-छुरी से खाते हैं ।’
पता नहीं, बनाते कैसे होंगे इसे ? टमाटर की इतनी पतली परत हाथों से तो नहीं काटी जा सकती और फिर इसे बीच में रखना । मक्खन भी एक तरफ कैसे करीने से लगा था जैसे किसी पेंटर ने ब्रश से लगाया हो ! छेदीलाल के दिमाग में भाटिया की पार्टी की तस्वीर घूम गई जहां उसने पहली बार पिज्जा खाया था । पहले तो वह समझ ही नहीं पाए कि चटनी कौन-सी लगाए, फिर देखा-देखी शुरूआत कर डाली । वैसे उस पार्टी में छेदीलाल जैसे कई थे जिन्होंने पिज्जा तो क्या, होटल भी पहली बार देखा था । कई तो कांटे उठाकर मस्ती में एक दूसरे की तरफ दिखा रहे थे – डराने-धमकाने का स्वांग करते हुए और जब खाने की एक-दो तीन हुई तो उन्होंने इतनी अच्छी पार्टी में पीछे रहने की बजाय हाथों से सपोटना शुरू कर दिया- चारों उंगलियों को चूसते हुए ।
पिज्जा उन्होंने भले ही पहली बार खाया हो पर ऐसे होटलों में तो वह इससे पहले भी आ चुके थे । एक-आध बार किसी की शादी में या बच्चे के जन्म—दिन पर । भाटिया का बच्चा तो अब चार साल का हो चुका था पर उसे आयकर के सही वार्ड में अभी पोस्टिंग हुई थी । जिस दिन पोस्टिंग के आर्डर पर साइन हुए, उसी दिन उसके बेटे का जन्मदिन था । अत: किस्मत की बुलंदी के लिए पार्टी किसी बुलंद होटल में ही दी गई ।
पार्टी के बाद छेदीलाल ने कई बार पिज्जा खाने को मन बनाया पर इतने ऊंचे दामों को देखकर उन्हें लगा कि किसी की अगली पार्टी में ही पिज्जा खाएंगे । उन्होंने सोच लिया कि अब की बार दफ्तर की पार्टी में पिज्जा को जरूर शामिल करवाएंगे – ‘भई, मैं तो पिज्जा खाऊंगा । आप जो चाहे लें ।’ छेदीलाल ने पहली बार तो मुंह खोला था, मना कौन करता ?
एक दिन उन्होंने अपनी पत्नी के जन्म-दिन पर उसे पिज्जे का ‘सरप्राइज’ देना चाहा, ‘आज कनॉट प्लेस में खाएंगे । तुम भी क्या याद करोगी !’
‘बच्चों को कैसे ले जाएंगे ?’ पत्नी का जवाब हाजिर था ।
कोई और अवसर होता तो छेदीलाल तवा हो उठते पर उस दिन थोड़ी गर्मी खाकर ही रह गए, ‘जन्मदिन तुम्हारा है या बच्चों का ?’
‘अरे, वे भी कहां जा पाते हैं ? छोटू को तो मैं संभाले रहूंगी, मोनू को थोड़ी देर के लिए तुम ले लेना । वे भी घूम लेंगे । मैं आपसे बिल्कुल पकड़ने को नहीं कहूंगी । बड़े तीनों तो घर पर खेलते ही रहेंगे ।’
टहलते-टहलते छेदीलाल दरवार रेस्तरां के सामने खड़े हो गए । शादी के बाद आज पहली बार उन्होंने बिना गुस्सा खाए पत्नी के साथ पूरे तीन घंटे बिताए थे । हो सकता है, वे फिर भी गुस्सा जाते पर पत्नी ने घर से निकलने से पहले शर्त लगा दी थी, ‘देखो यदि नाराज हुए तो मैं वहीं से भाग आऊंगी ।’
‘चलो, अंदर बैठते हैं’, छेदीलाल ने जब कहा तो पहले तो पत्नी देखती रही कि होशो-हवास में हैं या….. ।
‘बच्चों को ले जाने देते हैं ?’
‘अरे, ले जाने क्यों नहीं देंगे ? पैसा देंगे तो हमारी नौकरानी भी जाएगी । ये कोई कलेक्टर साहब की बारात है कि बच्चे नहीं जाएंगे !’
चमचमाते फर्श में पत्नी बार-बार अपना आदमकद निहारे जा रही थी ।
‘पर खाना क्या है ?’ पत्नी ने वहीं खड़े-खड़े प्रश्न किया ।
‘अरे, चलो तो सही, आज हम तुम्हें वो खिलाएंगे जो तुमने जिंदगी में भी नहीं खाया । पैसे-वैसे भूल जाओ ।’
पत्नी को फिर भी यकीन नहीं आया । आखिर कैसे भूल सकती है ! पिछले 12 साल से छेदीलाल को जानती है । ‘सुई में इतना धागा डालो जितना बटन के लिए चाहिए । उसे बर्बाद क्यों करती हो ? एक-एक सेंटीमीटर की भी कीमत होती है ।’ और आज ?
‘अच्छा, पहले देख आओ, बैठने की जगह है भी या नहीं ?’
‘अरे आओ ! जगह तो होगी ही ।’
मीनू को पढ़कर दोनों ने एक साथ एक-दूसरे को देखा । ‘ऐं ! इतना महंगा ? मैं नहीं खाती । तीस रूपए में तो पूरे घर की सब्जी का काम चलेगा ।’
छेदीलाल को हिम्मत बंधाने का ऐसा मौका कहां हाथ आनेवाला था ! ‘मुस्कुराते हुए बोले, क्या फर्क पड़ता है ? जन्मदिन क्या रोज थोड़े ही आता है ।’
‘नहीं, मैं तो जा रही हूं । तुम और मोनू खा लो । मैं तब तक बाहर खड़ी हूँ ।’ कहते हुए पत्नी ने उठते हुए इधर-उधर देखा ।
‘अरे सुनो तो ! कुछ और ले लेते हैं ।’ ‘मैंने सब देख लिया है । ये तो लूटते हैं । मरी चाय भी पांच रूपए की ।’
‘अच्छा, चलो एक ले लेते हैं, उसी को टेस्ट कर लेंगे ।’
और वाकई वे दोनों सिर्फ टेस्ट ही कर पाए । मोनू को इतना स्वादिष्ट लगा कि उसने गोदी से उतरकर सारा पिज्जा अपनी ओर खींच लिया और बड़ी मुश्किल से ‘सिर्फ मम्मी को दूंगा’ कहकर साफ करता रहा । वह तो और मांग रहा था पर उसकी मम्मी उसे तुरंत पुचकारते हुए बाहर ले गई ।
यही कारण है कि छेदीलाल ने जब हवाई जहाज से उतरकर ब्रिटेन की धरती पर कदम रखा तो वही पिज्जा बादल-सा उनके दिमाग में तैर रहा था ।
पहले दिन ही यूनिवर्सिटी की तरफ से स्वागत पार्टी थी । सब बने-ठने । सर्दी के बावजूद ओवरकोट सभी अपने कमरे पर छोड़ आए थे । तीसरी दुनिया का शायद ही कोई ऐसा आदमी था जो टाई बांधकर न आया हो । कोई-कोई तो अपने धूप के काले चश्में को भी लगाए हुए था । आखिर ब्रिटेन है, भई । कोट-टाई की शुरूआत ही यहां से हुई है । यह बात अलग है कि उस दिन असली ब्रिटेन वाले अधिकतर बिना टाई के थे ।
खैर, परिचय लिए-दिए और भीड़ उधर सरकने लगी जिधर उसके न सरकने के कारण खाना ठंडा हुआ जा रहा था ।
लाइन में खड़े-खड़े ही छेदीलाल की लंबी गर्दन ने मुआयना कर लिया था कि क्या-क्या माल है ?
कुछ लोग जब बीच में ही निकलकर ड्रिंक्स की टेबल की तरफ बढ़ गए, तो पहले तो वह समझ ही नहीं पाए कि क्या किया जाए ! वे तो सभी पीते हैं और फिर अंग्रेजी शराब की तो बात ही और है । पर यह सोचकर अपनी जगह से नहीं हिले कि अभी तो, पहला दिन ही है । आगे देखा जाएगा ।
प्लेट, कांटे-छुरी छेदीलाल के हाथ में थे पर वह समझ नहीं पा रहे थे कि कौन-सी चीज उठाई जाए । उसमें कई चीजें वैसी ही नजर आ रही थीं जैसे पिज्जा नजर आता है । दूसरे यह चक्कर था कि कहीं मीट वाला न उठा लिया जाए । उन्हें याद आया कि पिछली बार जब निगम और त्यागराजन विलायत आए थे तो त्यागराज का कैसा मजाक उड़ा था ! ब्रिटिश एयरवेज में जैसे ही खूबसूरत परिचारिका ने नाश्ता परोसा, त्यागराजन शुरू हुए और साफ कर गए । था उसमें पोर्क । अब त्यागराजन की क्या गलती । डबलरोटी के बीच क्या पता चलता है और कभी खाया होता तो पहचानते । बेचारे का लोग अभी तक मजाक उड़ाते हैं ।
पूछने पर पता लगा कि चार जुड़वा ब्रेड के बीच में से दो के बीच में टमाटर, मक्खन है और दो के बीच बीफ । इसके अलावा मशरूम नजर आ रहा है । उसमें मीट नहीं है ।
‘लेकिन तुम फिश तो खाते ही होंगे ?’ अंग्रेज महिला ने पूछा
‘फिश कैसे खा सकता हूं, उसमें भी तो मीट होता है ! हुई तो वो भी जिंदा चीज ।’
‘नहीं, वो तो पानी की पैदावार है ।’
‘नहीं । हम केवल कद्दु यानी की घास-फूस खाते हैं ।’ छेदीलाल ने जो अंग्रेजी में बताया, उसका मतलब यही था ।
छेदीलाल ने चुन-चुनकर खया और आगे के लिए याद कर लिया कि किसमें मीट होता है और किसमें नहीं । पिज्जा का स्वाद उन्हें आखिर किसी में भी नहीं आया ।
इंगलैंड में कोई तीन दिन हो गए थे । पहले दिन तो पिज्जा खाने का प्रश्न ही नहीं होता ।
जिस होटल में उन्हें ठहराया गया था, उसका खर्चा उन्हें अपनी जेब से देना था । जेब का मतलब उस पैसे से देना था जो उन्हें आगमन खर्च की मद में मिला था । क्योंकि यह उन्हें मिल गया था अत: उनकी जेब का उस पर एकमात्र कॉपीराइट था । कीमतों को देखकर वह वैसे भी भौंचक्के रह गए । टमाटर 1.50 पौंड का । एक पौंड यानी 75 रूपए में आधा किलो से भी कम । केला 30 पेंस का यानी 15 रूपए का एक और इतना छोटा ! सोचा तो उन्होंने यहीं था कि चार केले खाकर ऊपर से दूध पी लेंगे पर लगता नहीं कि केले खरीदकर खा पाएंगे । तीन किलोमीटर तक का किराया 60 पेंस– 32 रूपये । सिगरेट का पैकेट 2.30 पौंड यानी 125 रूपये । आखिर सिगरेट कौन सा वह पीते हैं ! टहलते टहलते उन्हें पिज्जा की दुकान पर आना ही था । तीन पौंड यानी कि पूरे डेढ़ सौ रूपये । सरासर लूट है । दरबार रेस्तरां में तो सिर्फ 30 रूपये का ही था, यहां तो पूरे पांच गुना है । पिज्जा न हो गया …. । उन्हें समझ ही नहीं आया कि इंग्लैंड की किस महंगी चीज से तुलना की जाए ?’
क्योंकि हिंदुस्तान की तो किसी भी चीज से तुलना नहीं हो पा रही थी ।
आखिर इतनी महंगाई क्यों है यहां ? लोग तो कहते हैं, हिंदुस्तान में महंगाई बढ़ रही है । एक दिन वह हेयर सैलून के पास से गुजरे तो उन्होंने कसम खाई कि उसके पास से कभी दोबारा नहीं गुजरेंगे ! सादी कटिंग 10 पौंड है, आर्टिस्ट कटिंग -15 पौंड, सुपर 25 और आने से पहले समय मांगे । तुम्हारी ऐसी की तैसी । उन्होंने गर्दन के पीछे हाथ फिराकर देखा । दो-तीन महीने तो बिना कटिंग के ही चल जाएगा ।
हमारे कनछी ताऊ यहां आ जाएं तो एक साल में ही इतना कमा लें कि सारा गांव खा ले । बचपन से ही वह उन्हें ताऊ कहते हैं । जब छोटे थे तो ताऊ को सिर्फ चोटी बचानी होती थी । कहीं ताऊ जल्दबाजी में काट न दें, अत: छेदी दूसरे हाथ से चोटी का पिछला सिरा पकड़े रहते । थोड़े बड़े हुए तो उन्होंने सुना कि सभी अंग्रेजी बाल रखते हैं । देखा तो पता नहीं किसने था अंग्रेजी कट-पर ताऊ अंग्रेजी ही बनाते थे और मालिश ऐसी कि मास्टरजी की मार भी पीछे रह जाए ।
हर समय के इस गणित से तंग आकर उन्होंने एक जेबी कैलकुलेटर ले लिया था । लेना वैसे वह ‘मेड इन इंडिया‘’ चाहते थे पर क्योंकि ‘मेड इन चाइना’ सस्ता था, अत: पुरानी राष्ट्रीय अदावत के बावजूद उन्हें वही लेना पड़ा । धीरे-धीरे उनकी समझ में आने लगा कि माजरा क्या है ? किशमिश-बादाम सभी मेवे सस्ते थे । बादाम का रेट देखा तो उन्होंने तुरंत खरीद लिए और उन्हें अभी भी किसी कड़वे बादाम का इंतजार था । भारत में तो हर तीसरा बादाम कड़वा निकलता है जैसे हर तीसरा आदमी कवि । किशमिश भी भिंडी, बैंगन, पालक से सस्ती थी । यानी कि जो चीजे उनकी हैं, इंगलैंड की धरती पर पैदा हुई हैं, वे महंगी और जो हमारे तुम्हारे देश से आती हैं, वे सस्ती ! पहली बार उन्हें रूपए के अवमूल्यन का अर्थ समझ में आया और क्योंकि ब्रिटेन जैसे देश कागज के रूपए के बदले माल लेते हैं अत: जितना अवमूल्यन होगा, उतना ही माल और वह भी बढिया वाला यहां आएगा । बंबई के एल्फांसों आम का उन्होंने भारत में सिर्फ नाम ही सुना था । यहां देखा तो देखते ही मुंह में पानी भर आया । पर आश्चर्य कि वह भी अंग्रेजी बैंगन से सस्ता था ।
उन्हें एक तुक सूझी – ‘पिज्जा न हो गया, बैंगन हो गया । पिज्जा न हो गया बैंगन हो गया । पिज्जा न हो गया ….।’ इस तुकबंदी ने उनकी सारी थकान को उमंग से भर दिया । वह भी बाल लहराकर ऐसे चलने लगे जैसे शाम को लौटते वक्त मानचेस्टर यूनिवर्सिटी की लड़कियां चलती थीं ।
पिज्जा के इतने महंगे दामों ने छेदीलाल को लगभग विमुख ही कर दिया था और जब से उन्हें होस्टल में खाना स्वयं बनाने की इजाजत मिली, तब से तो यह सबसे यही कहते थे कि ये लोग ठंडा कैसे खा लेते हैं ! ‘पिज्जा भी तो ठंडा होता है !’
‘ठंडा नहीं, बासी, कई-कई रोज का !’ यह नेपाली का स्वर था ।
जो मजा आलू-टमाटर की गर्मागर्म सब्जी में है, वह यहां ठंडे मुल्क के ठंडे लोग क्या जानें ? आलू बेहद सस्ता था और टमाटर खरीदने की बजाय वह टमाटर ट्यूब ले आए थे । रंग भी लाल हो जाता और सस्ता भी था । क्योंकि ट्यूब इटली की बनी हुई थी तो उन्होंने होस्टल के मोरयोन को भी खुश कर दिया कि ‘मैं इसे इसलिए लाया हूँ कि यह इटली की बनी है । तुम्हारे देश की !’
पिज्जा खाने की रही-सही उम्मीद छेदीलाल की तब टूटी जब स्काटलैंड के दौरे पर भी कोई मौका नहीं मिला । जिस होटल में ठहरे थे उसमें उन्हें सब कुछ अच्छा लगा, सिर्फ खाने को छोड़कर । ‘इससे अच्छा तो अपने होस्टल का खाना है।’ उन्होंने लौटकर अपने भारतीय साथी को बताया ।
चेस्टर की ट्रेनिंग के बाद ईस्टर की छुट्टियां थीं । छुट्टी का मतलब ‘शुद्ध छुट्टी’ होता है और इसे भारत में रहकर अनुभव नहीं किया जा सकता । शुक्रवार की शाम से ही ऐसे पटाखे छूटने शुरू हो जाते हैं जैसे दीपावली का त्यौहार आ गया हो । लड़के-लड़कियां हुजूमों में कुछ इधर बढे चले जा रहे हैं, कुछ उधर ! कोई रात-भर के लिए क्लब में जा रहा है, तो दूसरा रात से ही फुटबॉल के मैदान में अपना आसन जमा रहा है । ‘चेस्टर यूनाइटेड क्लब’ जब खेलता है तो सारे शहर की पुलिस सावधान हो जाती है ।
शनिवार-इतवार को लगता है, सारी दुनिया ठहर गई है । समाचार तक नहीं ।
दिल्ली से चिट्ठी आई तो छेदीलाल की बांछे खिल गई । उसमें लिखा था कि फूलचंद इस समय फ्रांस में है और तुम्हारा पता मांगा है । उन्होंने दिल्ली तो चिट्ठी बाद में लिखी पहले फूलचंद का स्वागत किया – ‘क्योंकि पहले मैं यूरोप आया हूं अत: पुराना यूरोपियन होने के नाते तुम्हारा स्वागत करता हूं और कोई परेशानी हो तो तुरंत लिखो ।’ ईस्टर की छुट्टियों में अपने फ्रासं पहुंचने की बात उन्होंने जान-बूझकर नहीं लिखी । फ्रांसीसी अंग्रेजों के बारे में जो भी राय रखता हो, अंग्रेज फ्रांसीसी खाने के बड़े मुरीद हैं । जिससे भी पूछो वही उनकी अदा की तारीफ करता मिलेगा । ‘ये अदब और ये शान !’ लेकिन छेदीलाल न तो शान ही देख पाए, न अदब । मित्र को अभी फैलोशिप का भुगतान नहीं हुआ था और मित्र के घर जाकर स्वयं खर्चे की बात करना भी मित्र का अपमान करना था । अत: फ्रांस जाकर न तो अपनी मर्जी से खा पाए, न मित्र की । यह सोचकर उन्होंने जरूर तसल्ली की कि अब लौटकर लंदन में आखिरी दिनों में ये सारी चीजें खाएंगे ।
ट्रेनिंग का अगला और अंतिम पड़ाव लंदन में था । ट्रेनिंग या यों कहिए सैर-सपाटे, मस्ती । क्योंकि ऐसी किसी ट्रेनिंग में परीक्षाएं नहीं होतीं अत: तीसरी दुनिया की सारी क्लास पहला मौका पाते ही मानचेस्टर के बाजारों में छितरा जाती । टेपरिकॉर्डर, कैमरा, कंप्युटर—डायरी से लेकर लिपस्टिक की रेट लिस्ट पर होस्टल में छोटे-छोटे समूहों में देर रात तक सेमिनार चलते । हेरी टेलर के प्रबंध विज्ञान के लेक्चर को कोई भूल से भी चर्चा में नहीं लाता । आमतौर पर सभी इस बात पर सहमत थे कि अभी तक ऐसा कुछ नहीं पढ़ा जो अपने-अपने देश में न पढ़ा हो या ‘इसे कहते हैं पढ़ाई ! हमारे यहां इम्तिहान पर इम्तिहान लिए जाते हैं मानो नर्सरी के बच्चे हों । न ट्रेनिंग पर भेजने वालों को पढ़ाई का हिसाब देना था न पढ़ाने वालों को, अत: दिमाग खुद-ब-खुद हेनरी किसिंगर बना घूमता रहता । दिमाग की रही-सही जगह पौंड और पिज्जा के हिसाब ने घेर ली थी ।
लंदन के जिस होस्टल में छेदीलाल ठहरे थे उसमें रहना और सुबह का नाश्ता शामिल था । यानी कि इंगलिश ब्रेकफास्ट । इंगलिश ब्रेकफास्ट का मतलब उन्होंने यही सोचा कि थोड़ा बहुत ‘चाय-टोस्ट’ होगा पर जब नजारा देखा तो आंखे खुली की खुली ही रह गई ।
तीन-तीन तरह के जूस । पानी की टंकी-सी लगी हुई । जितना मर्जी पियो । दही की दस किस्में- चर्बी रहित-सहित, सादा मीठा, नमकीन, फल-मुरब्बा व ब्लैकबेरी वाला । फलों की किस्मों की तो गिनती ही नहीं । चटनी, जैम, काली, पीली, लाल, सूखे मेवे, आलू की टिकी, आमलेट, उबले अंडे, टोस्ट-बंद, भुने हुए, मक्खन लगे । ये सब तो निरामिष में ।
इतना सब निरामिष में होते हुए छेदीलाल सामिष की तरफ देखें ही क्यों !
प्रसिद्ध जीव-वैज्ञानिक डार्विन से छेदीलाल ने एक ही बात सीखी है — निरीक्षण ! निरीक्षण ! निरीक्षण ! फिर निर्णय । नई जगह है, नए लोग हैं, नई बातें, रीति-रिवाज हैं खाने के, पहनने के । छेदीलाल चुपचाप देखते रहते हैं । क्या क्या खाना है ? जूस कहां है ? फल में आज क्या-क्या है ? भीड़ किधर ज्यादा है ? वेजीटेबल कोना कौन-सा है ? काफी, चाय, दही ! स्वयं क्या लाना है और क्या बैरे से मंगाना पड़ेगा !
हां, पहले दो-तीन दिन का उन्हें अभी तक अफसोस है । हुआ यह कि खाने के लाउंज में आप सीधे दर्राए हुए नहीं जा सकते । एक लड़की आएगी । मधुर आवाज में आपसे गुड मार्निंग कहेगी । पूछेगी, ‘आपको किसी के साथ बैठने में कोई दिक्कत तो नहीं !’ पहला दिन था । छेदीलाल ने कुछ समझा, कुछ नहीं । बस मुस्कुराते हुए ‘यस’ कह दिया । यह भी उन्होंने अंग्रेजों से सीखा है – देख–देखकर । बार-बार, बदल-बदलकर कहते रहो- यस । नाइस ! इंटरेस्टिंग ! ब्यूटीफुल ! वंडरफुल… !
लेकिन जिस सीट पर उसने बैठने का इशारा किया, उस पर एक बुढि़या माता और उसकी दो कमर-विहिन बेटियां बैठी थी । पहले तो उन्होंने देखा कि वे क्या खा रही हैं और फिर देखा-देखी वह भी कुछ डबलरोटी के पीस, कुछ मक्खन उठा लाए । बाकी कुछ सामिष समझकर छोड़ दिया, कुछ शर्म से । काफी का जरूर उन्होंने पूरा पॉट साफ कर दिया क्रीम वाला दूध मिला-मिलाकर, क्योंकि वे लड़कियॉं काफी ही पिए जा रही थीं । अत: छेदीलाल को भी कॉफी ही दुहरानी-तिहरानी पड़ी ।
अगले दिन भी वैसा ही हुआ । उन्होंने मुस्कुराते हुए जैसे ही हां की, फिर एक अंग्रेज के सामने बैठना पड़ गया । उस दिन वह इतना आगे जरूर बढ़े कि जूस का एक गिलास लबालब भरकर ले आए पर इधर-उधर देखने के बावजदू दूसरे-तीसरे की हिम्मत नहीं हुई । उस अंग्रेज ने तो एक भी नहीं लिया था । मन मारकर उस दिन भी निरीक्षण से ही वापस होना पड़ा ।
तीसरा दिन उनके निर्णय का दिन था । रविवार होने की वजह से सुबह भीड़ ही नहीं थी और छेदीलाल को अलग मेज-कुर्सी मिल गई । यहां तक कि उन्हें लगा कि बेटा, तुम्हारा जूस और दूध नोटिस में आ जाएगा पर जैसे-जैसे लोग आने शुरू हुए उनकी हिम्मत बढ़ती गई । छेदीलाल ने उस दिन जमकर बारी-बारी से अंगूर, संतरा, ट्रोपीकल का मिक्स जूस पिया । पेट का बचा-खुचा कोना उन्होंने बादाम, अखरोट से पूरा किया । आज उनके चेहरे पर एक विशेष संतोष था । उन्होंने कमरे में जाते ही चेहरा देखा । सेब की लालिमा आने ही वाली थी ।
उस दिन के बाद छेदीलाल ने पीछे मुड़कर नहीं देखा । वह देखते हैं तो सिर्फ दूर की मीनारें, चलती सड़कें, बसें । खिड़की के एक कोने की तरफ अकेले जाकर बैठते हैं । जैसे ही लड़की मुस्कुराते हुए उनकी तरफ बढ़ती है उससे पहले ही वह बुदबुदाते हैं – ‘सॉरी ! मुझे अकेले बैठना है ।’
हम भारतीयों में यही आत्मविश्वास तो नहीं है कि जो कुछ करें, धड़ल्ले से करें । मुंह ताकते है कि दूसरा क्या कर रहा है । अंग्रेज चाय पीते थे उन्होंने भी भर-भर लोटा पीनी शुरू कर दी । अंग्रेज ‘पॉट वाली’ टट्टी इस्तेमाल करते हैं तो उन्होंने भी वही बना दी । रेलगाड़ी में उस उँचे पॉट वाली टट्टी पर छेदीलाल ने जाते हुए आज तक किसी को नहीं देखा पर भारत सरकार उसे हटा नहीं सकती । हटेगी भी, तो तब जब इंग्लैंड से हट जाए और वहां से हटेंगी क्यों ?
खैर, खाने की मेज छेदीलाल के दृढ़ विश्वास का प्रतीक बन चुकी है । क्योंकि उनके दो ही हाथ हैं अत: दोनों हाथों में एक-एक गिलास जूस उठाकर मेज पर आकर बैठेंगे और कुछ रईसी अंदाज में धीरे-धीरे ‘सिप’ करेंगे, फिर कुछ आलू के कट्लेट्स, दही या चटनी के साथ । खाने को तो वे धड़ी भर कट्लैट्स ही खा जाएं पर स्ट्राबेरी, अंगूर के लिए जगह कहां रहेगी ! इसलिए वह बीच-बीच में अदलते-बदलते रहते हैं । दूध भी लेना होता है और दही भी मेवे, फल मिला हुआ । अत: वह दूध की तह बादाम, कार्नफ्लेक्स के साथ कुछ शुरू में ही जमा लेते हैं । दही आखिर से थोड़ा पहले । समापन तो जूस से ही करना है । समापन में ट्रोपीकल का उन्होंने नियम-सा बना लिया है । अंगूर का कुछ कड़वा-सा लगता है अत: उसे बीच में । बड़ी तसल्ली मिलती है इतने बड़े पेट के रहते हए उन्हें । आखिर इसी दिन के लिए तो उन्होंने इसे पाला था ।
गर्दन उठाकर जब वह किसी को ब्रेड खाते देखते तो उन्हें दया आने लगती । अबे ! इस चार हजार रूपये के होटल में इस दो आने की ब्रेड को खाने आया था । कोई-कोई जब सिर्फ कॉफी और एकाध टुकड़ा बीफ का खाकर चल देता है तो उसका मन करता है, इसे डांट पिला दें जैसे बचपन में उसके चाचा धमकाते थे – ‘यहां साले काशीफल चरने आया है या लड्डू- पुड़ी खाने ।’ अच्छा तो उन्हें काशीफल लगता पर चाचा की चढ़ी हुई आंखे देखते ही वह पूड़ी उठा लेते ।
कभी-कभी बीफ की हल्की गुलाबी-गुलाबी सी परतों को देखकर मन करता कि चखकर तो देखें । पर एक तो पेट में जगह ही नहीं बचती और दूसरे महात्मा गांधी मना कर देते । ठीक सौ साल पहले ही तो गांधी जी ने विलायत में मांस न खाने की शपथ ली थी ।
एक दिन उन्होंने देखा कि एक बुढि़या सेब हाथ में लिए बाहर जा रही है । बस उसके बाद तो उनका रोज का नियम हो गया । वह हाथ में सेब को लट्टू की तरह स्पिन कराते हुए निकलते मानो कह रहे हों यहां तो हल्का ही खाया है, इसलिए ….. ।
एक दिन खाते-खाते उन्हें लगा कि जैसे पेट ही फटने वाला हो । आलू की टिक्की जैसी न जाने क्या गरमा-गररम थी कि छेदीलाल ज्यादा दबा गए । उससे पहले और उसके बाद उन्होंने जूस, दूध की परतें भी लगाई थीं । बाद में खाया था योगार्ट (दही) । हो सकता है, दूध के साथ दही रिएक्शन कर रहा हो और गैस फूट रही हो । वैसे ही जैसे एक बार स्कूल में प्रेक्टीकल करते-करते कई रंगों की गैसें बड़ी परखनली से निकलने लगी थीं ।
यह तब की बात है, जब वह दसवीं में पढ़ते थे । उस दिन लेबोरेटरी में वह और रामप्रकाश ही थे । झम्मन मियां ‘स्पिरिट’ के नशे में सोए हुए थे । छेदी को लगा कि आज मौका है फैराडे या रदरफोर्ड बनने का । उसने ताजा-ताजा पढ़ा था कि उन्होंने जो भी आविष्कार किए थे वे अकस्मात ही हो गए थे । फैराडे ने जब गुस्से में अपना उपकरण फेंका तो देखा कि घड़ी की सूई घूम गई है और बिजली का आविष्कार हो गया । सारी दुनिया रोशन हो गई । यही सोचते हुए छेदीलाल ने लबोरेटरी में जो भी रसायन थे थोड़े-थोड़े एक बड़ी परखनली में डालने शुरू कर दिए । सबसे बाद में डाली ग्लिसरीन और सोडियम का टुकड़ा । सोडियम का टुकड़ा गिरा ही था कि जोर के धमाके के साथ इधर परखनली फटी उधर गोयल मास्साब अंदर । क्योंकि झम्मन का अपराध ज्यादा बड़ा था और छेदी की कमीज जगह-जगह से जल गई थी अत: पिटाई से बच गए ।
छेदीलाल को लग रहा था कि अभी वैसा ही धमाका हो जाएगा । संतरे का जूस अभी भी गिलास में भरा हुआ था और वह निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि इसे कैसे भरा हुआ छोड़कर जाएं ।
पहले वह टाई बांधकर आते थे पर उन्हें लगा कि टाई खाने में कुछ बार्डर की-सी चुंगी का काम करती है । खाने में कुछ बंधा-बंधा सा भी महसूस करते हैं । जैसे-जैसे आत्मविश्वास बढ़ता गया उनकी टाई ढीली होती गई और यहां तक कि एक दिन गायब भी ।
इस नियामती ब्रेकफास्ट के असर में छेदी की दिल्ली याद भी छुमंतर हो गई । कहां पानी-पानी को तरसती जिंदगी और कहां दूध में नहाती सुबह, मेवों भरी दाढ़े और सैर के लिए मीलों लंबा हरा हाइड पार्क ! ऐसे में अतन-वतन सब भूल गए ।
एक दिन होटल के अगल-बगल घूमते हुए देखा कि कुछ सुंदरियॉं स्वीमिंग पूल में छलांगे लगा रही हैं । कसी हुई चोलियॉं । किसी के वह भी नहीं । हो सकता है, छेदीलाल को दिखाई ही न दी हों । ऐनक लगाते होते तो तुरंत साफ करके देखते । थोड़ा आगे बढ़े तो हैल्थ क्लब का बोर्ड लगा था । इधर-उधर चक्कर लगाए कि कहां रास्ता है अंदर जाने का ! जिधर रास्ता था उधर काउंटर पर एक लड़की बैठी थी । सोचा, पूछें पर फिर अगले दिन के लिए छोड़कर वापस हो लिए ।
अगली शाम तक उन्होंने पता लगा लिया था कि होटल में ठहरने वालों के लिए हैल्थ क्लब जाना मुफ्त है । पहले तो वह ऊपर देखते रहे पर लगा कि और नीचे जाना चाहिए तो वह काउंटर की लड़की को दूर से ही होटल का कार्ड दिखाते हुए एक तल्ला और नीचे आ गए । फिर एक और । इससे नीचे तो व्यायाम का मैदान था । मन उनका वहां पहुंचने का था पर इस अहसास से डर गए कि इतनी नजदीक से किसी की आंखे मिल गई तो सारी हिम्मत हवा हो जाएगी । छेदीलाल को छिप-छिपकर देखने में मजा भी ज्यादा आता है । बचपन के संस्कार जो हैं, जब वह अपने कंचे वाले दोस्तों के साथ शादी-विवाह के मौके पर औरतों का नाच किसी मुंडेर से छिपकर देखते थे ।
अफ्रीकन सीटी बजाता और वे सब फुर्र से तितर-बितर हो जाते । करीब बीस-पच्चीस का ग्रुप होगा । लड़कियॉं तो सारी गिन लीं छेदीलाल ने – दस थीं । जिसने बादामी रंग की चड्ढी-चोली पहन रखी थी उसे तो छेदी आज तक नहीं भूले । क्या माल था ! जब तक छेदी की निगाहें उसके वक्ष पर टिकती अफ्रीकन की सीटी उसे फिर दौड़ा देती । कुछ इधर भागते कुछ उधर । बिल्कुल पॉप म्युजिक की तरह । कोई लटकने लगता तो कोई लेटने ।
इतने हसीन चेहरों को देखकर छेदी को यकीन सा हुआ कि हो न हो ये अपने–अपने देश की हीरोइनें या मॉडल हैं । उन्हें रेखा, शबाना आजमी, ‘ एक-दो-तीन वाली’ माधुरी दीक्षित – कई हीरोइनें याद आईं । वह भी तो अखबारों में आए दिन यही पढ़ते हैं कि अमुक हीरोइन लंदन गई हुई है, स्विट्जरलैंड गई हुई है । इन्हीं हैल्थ क्लबों में आती होंगी ये सब ।
शाम सुबह के ब्रेकफास्ट से भी ज्यादा रंगीन हो गई थी ।
शाम होते ही वह हैल्थ क्लब की तरफ ताकने लगते । थोड़ी देर मुंडेर के आसपास मंडराते फिर अंदर दाखिल ।
उन्होंने भी व्यायाम-साइकिल चलाना शुरू कर दिया था । एक तो इसलिए भी कि जिंदगी भर साइकिल ही चलाई थी । दूसरा उसका मुंह उस खुले मैदान की ओर था जहां उन्हें प्रेरणा देने के लिए दर्जनों लड़के-लड़कियॉं अपने शरीर को थरथराते रहते ।
पर लटकता पेट एक अजीब संकट में घिर गया था । सुबह जहां उसे पूरी छूट दी जाती, शाम को उसका दिखाई देना भी छेदी को नागवार गुजरता । यह संकट सुलझाए नहीं सुलझ रहा था । सोचते, इतना-सा हो जाए जितना इस लड़की का । वे सभी अपनी-अपनी कमर बैल्ट बांधे होते । उनके जिमनास्टिक शरीर को देखकर उन्हें अपने पेट पर और खीज होने लगती ।
हिंदुस्तान का आदमी क्या खाकर ऐसा शरीर बनाएगा । अब की बार भारत पहुंच जाऊं, दफ्तर के हर आदमी को हैल्थ क्लब का मेंबर बनना अनिवार्य कर दूंगा । नौकरी करो या मत करो । यह क्या कि दफ्तर में इतना बड़ा-बड़ा पेट लिए जम्हाई लेते रहते हैं । ऐसे माहौल में क्या खाक काम होगा । जब खुद ही नहीं सरक सकते तो फाइल भी कहां सरकेंगी । फाइलों पर भी फालतू चर्बी चढ़ी हुई है और खुद पर भी ।
दफ्तर ही क्यों, नेताओं पर भी यह लागू होगा । यहां एक भी नेता आज तक ऐसा दिखाई दिया जिस पर तोले भर भी फालतू चर्बी चढ़ी हुई हो ! एक अपने नेता हैं । पूरे टेलीविजन में एक ही समा पाता है जबकि जनता की बीस ठठरियां आ जाती हैं उतनी सी जगह में । नाम क्यों लूं । किसी को भी देख लो । गाल नीचे लटककर कभी गर्दन को दबाए हुए हैं तो कभी उपर चढ़कर ऑंखों को । उस दिन जॉन सैम्युअल भारत यात्रा के संस्मरण सुना रहा था तो ठीक ही कह रहा था । भाषा, संस्कृति, मौसम ही नहीं, वहां के आदमी भी कई तरह के हैं । कुछ बेहद मोटे सांड जैसे तो कुछ सूखे सूडानी जैसे ।
साइकिल चलाते-चलाते वह पसीने से सराबोर हो जाते, पर पेट था कि अंगद का पैर बना हुआ था । कभी–कभी उन्हें आश्चर्य भी होता कि जब इन लोगों के तोंद नाम की चीज है ही नहीं तो ये इतना पसीना किन हड्डियों को पिघलाने के लिए बहा रहे हैं ।
पसीने से लथपथ तोंद को देखकर उन्हें देश से होते-होते स्वयं से भी नफरत होने लगती । शुरू में तो वह बड़ी आत्मविश्वास वाली अकड़ी-शक्ल में उधर से आते-जाते थे पर एक दिन कुछ कमरविहीन लड़कियां इतनी जोर से हंसी कि छेदीलाल को बिना साइकिल चलाए ही पसीना आ गया । वह उल्टे पांव वापस आ गए । उन्होंने उस दिन कसम खाई कि या तो वह रहेंगे या यह तोंद । वह आदमी ही क्या जिस पर जनानी भी हंसने लगे ।
दरअसल उनका दोष तो इतना ही है कि वह वही हैं जैसा लोगों ने उन्हें बनाया । वरना वह भी अच्छे सुगठित बदन वाले आदमियों में शुमारे जाते थे । शादी पर जब घोड़े पर बैठे थे तो लोग कहते थे कि सिर्फ वही दिखाई दे रहे थे, बारात तो कई लोगों को नजर ही नहीं आई । कैसा बदन था ! लगभग छह फिट ! था तो पांच फिट आठ इंच पर वह उसे दशमलव के अगले दो अंक तक बढ़ाकर छह फिट ही बताते थे । उस दृश्य का फोटो न होने का उन्हें अभी तक मलाल है । फिर शुरू हुई नौकरी । लिखा-पढ़ी का काम या आराम-जो भी कहो । सुबह चार्टर्ड बस से जाना और नाक की सीध में सीधे घर आना । दफ्तर पहुंचते चाय, छोड़ते चाय और घर में घुसते ही फिर । बीच-बीच में दोस्तों के साथ तो पीनी ही पड़ती है उसका क्या हिसाब ! फाइल आगे बढ़ाने पर जो मिठाई, समोसा मिलते, उसे मेहनत की मानकर खाना पड़ता । बस तोंद को क्या चाहिए- मुंह मांगी मुराद । साल भर के अंदर-अंदर छेदीलाल ने किसी फाइल को भले ही न निपटाया हो, शादी में मिले ससुरजी के सूट को जरूर छोटा कर दिया। और ऊपर से हर आदमी खुश । सासूजी तो बिल्कुल सिहर उठीं- ‘अब तो भी कुछ इंस्पेक्टर जैसे लगते हैं लल्लू ! पिछली बार आए थे तो कैसे कमजोर लग रहे थे । पिचके-पिचके गाल जैसे अम्मा ने रोटी नहीं दी हो !’ सासूजी को आजादी मिलती तो वे गालों में उंगली धंसाकर देख लेतीं कि ठीक भर गए हैं या नहीं ।
उनका रौब और रुतबा भी बढ़ गया था । जहां भी जाते, उनकी सेहत या कहिए तोंद को देखकर जनता उन्हें बाबू से बढ़ाकर तुरंत इंस्पेक्टर मानने लगती । यही रंग धीरे-धीरे गाढ़ा हो गया और छेदीलाल की तोंद दिहाड़ी पर रखे चपरासी की तरह परमानेंट हो गई । और आप जानते ही हैं कि परमानेंट आदमी को तो भारत सरकार भी आसानी से नहीं निकाल सकती ।
हिंदुस्तान का तो शायद ही भला हो पाए । अच्छे काम करो, आपका मजाक उड़ाने लगेंगे । फर्ज करो, मैं जाकर हैल्थ क्लब खोलने की बात करूं, तो ? हैं…हैं…लंदन में हैल्थ क्लब की ट्रेनिंग लेने गए थे या ग्रामीण विकास की ? क्यों छिद्दू ! मूर्खों को कौन समझाए कि आदमी दो नहीं हजार काम कर सकता है पर तुम करने दो तब न ! इग्लैंड में कौन-से गांव रखें हैं पर फिर भी वे ग्रामीण विकास का प्रबंधन पढ़ाते हैं । तुम ये सब करने दोगे ! हां, मैं गड्ढे में गिर रहा हूं तो चुप लगा जाएंगे । गिरने दो, थोड़ी धरती हल्की हो जएगी । वही तो हुआ । इधर तोंद बढ़ रही थी और उधर सासूजी सिहर रही थीं । लल्लू कैसे अच्छे लगते हैं ! पत्नी भी तो कह सकती थी कि इतनी चाय मत पियो या अमुक चीज मत खाओ ! क्या मैं उससे नहीं कहता कि थोड़ा मोटापा कम करो । दफ्तर की अर्चना की तरह स्लिम हो जाओ ।
हैल्थ क्लब से लौटकर वह कुछ हल्का-फुल्का ही खाते । एक तो अपनी जेब से खाना पड़ता था, दूसरे तोंद को ठिकाने लगाने के साथ-साथ सुबह के ब्रेकफास्ट के लिए भी जगह बनाकर रखनी थी ।
पर आज भूख लगी क्यों ? छेदी सोचे जा रहे थे । नाश्ता तो ठीक-ठाक ही लिया था । और लिया भी काफी देर से था- छुट्टी होने की वजह से । आलू योगार्ट, मुरब्बा, चटनी, जैम, जूस, मेवे, फिर कैसी भूख ! आज इस तोंद से निकल कर गया कहां ?
फिर तो आज पिज्जा ही खाया जाए । इसी भूख की तलाश में तो पिज्जा मुल्तवी हो गया था । चौराहे के पास वाला पिज्जा हट आंखों में तैर उठा । ज्यादा-से-ज्यादा छह पौंड का होगा । है भी तो असली लंदन का । सारी दुनिया में मशहूर है यहां का पिज्जा और अंग्रेजी रेस्त्रां में बैठकर खाने का तो मजा ही और है । जो होगा सो देखा जाएगा । आज सिर्फ पिज्जा । देखा था, उस दिन वह मलेशियाई महिला कैसे आधा खाकर ही उठ ली थी- ‘भूख ही नहीं है ।’ यदि भूख नहीं थी तो लिया क्यों ? आजकल इनके पास भी डालर आ गए हैं न ।
लेकिन छह पौंड का मतलब है पूरे तीन सौ रुपए । डॉ.शेषाद्रि बता रहा था कि आज का रेट तो कुछ कम है पर फिर भी दो सौ नब्बे तो बनते ही हैं । नीले-नीले दो नोट और नब्बे । इतने में तो वह सारे घर को पिज्जा खिला दे दिल्ली में और फिर भी बचे रहें । डोसे तो वह सारे मुहल्ले को खिला दें । कॉफी होम का डोसा तो और भी सस्ता है । सब जय-जयकार कर उठेंगे । मोनू कितने दिन से साइकिल मांग रहा है । पचास और डाल दो तो उसकी साइकिल भी आ जाएगी और क्यों डालो ? पिज्जा खाओगे तो बेयरे को टिप भी तो देनी पड़ेगी । एक पौंड से कम देने का तो यहां रिवाज ही नहीं है । ज्यादा भी देने पड़ सकते हैं ।
क्या फर्क पड़ता है यदि दस-बीस पौंड कम भी बचें । वही समझ लेना कि एक दिन का टैक्सी का किराया नहीं मिला । जाते तो वह रोजाना मैट्रो रेलवे से ही हैं ।
पिज्जा-हट पर पहुंचकर उनके पैर फिर ठिठकने लगे मानो किसी साक्षात्कार के लिए जा रहे हों या प्रेमिका से प्रेम निवेदन करना हो । उनके सामने आसन्न संकट यह था कि यदि मामला नहीं जमा तो उल्टे पैर बाहर आना क्या अच्छा लगेगा । कई बार बड़ी बेरुखी से पेश आते हैं ये अंग्रेजी बेयरे । उन्हें याद आया जब अश्विनी हेलेन को पार्टी देनी थी और सब दोस्त मटरगश्ती करते हुए तालकटोरा रेस्त्रां में चले गए थे । मीनू और उनकी कीमतें देखकर सब एक-दूसरे को आंखों में ताकने लगे । बेयरे ने पहले तो पानी रखकर इंतजार किया, फिर चला गया । जब तक वह वापस आया सब फैसला ले चुके थे कि उठ लिया जाए- यह कहकर कि यहां चाय तो है ही नहीं । ‘हमें कड़क चाय चाहिए थी ।’ अनूप ने जरा स्टाइल से कहा था ।
‘आप बैठिए तो । चाय भी मिल जाती है विशेष आर्डर पर ।’ बेयरे ने खाली हो चुके पानी के गिलासों को उठाते हुए कहा ।
किसी से कोई जवाब नहीं बना तो बेयरे की निगाहें डांट रही थीं कि ‘क्या फोकट का समझकर आए थे ।’
बाहर रेस्त्रां से दो सौ गज दूर जाकर सभी ने अपने को एक-दूसरे पर मजाक की बौछार कर हल्का किया था । हेलन ! कॉफी 20 रुपए ! चौधरी ! कटलेट पच्चीस रुपए और अंत में पुरानी पार्टियों की परिपाटी में डोसा-बड़ा खाकर अश्विनी की पार्टी पूरी की । बीस और तीस भी क्या थे । सिर्फ आधा पाउंड या जरा-सा ज्यादा ।
लेकिन छेदीलाल को उतनी मुश्किल नहीं हुई जितनी उन्होंने सोची थी । सामने बोर्ड पर सब चीजों के दाम लिखे थे । अंदर सुनहरे अंधेरे के कारण पढ़ने में दिक्कत तो थी पर छेदीलाल की आंखों ने तुरंत पढ़ लिया । पिज्जा-ओनियन-टोमेटो- आठ पौंड, बीफ-क्रीम- सात पौंड । लो, बीफ यहां घास-पात से भी सस्ता है । इससे पहले कि बेयरा उन्हें सीट का इशारा करता, वह रेस्त्रां से बाहर थे ।
हद हो गई । आठ पौंड । आठ पौंड में तो डर्बी में दो आ जाते । था भी वहां कितना सुंदर । बादाम भी ऊपर चिपके दिखाई दे रहे थे । पिज्जा न हो गया जिम्मीकंद हो गया । चार सौ रुपए ।
लेकिन आज उनका मन पिज्जा खाने के लिए बेताब है । उन्होंने चौराहे पर खड़े-खड़े निर्णय किया कि क्यों न पिज्जा-होम पर देखा जाए । इधर-उधर ताकते-झांकते वह उधर बढ़ने लगे ।
अभी थोड़ी दूर ही चले थे कि एक रेस्त्रां के सामने ठिठक गए । एक खंभानुमा चीज रेस्त्रां के कोने पर धीरे-धीरे घूम रही थी और एक आदमी चाकू से उसे खुरचे जा रहा था । पता चला कि वह मिश्रित गोश्त है । बाहर से उस पर हल्की-हल्की आंच दी जाती है और फिर भुने हुए कोनों को खुरचकर सलाद के साथ परोसा जाता है । छेदीलाल इस पाक-कला पर आश्चर्य से मुस्कुराए तो होटल वाला लड़का पुकार उठा, ‘सर ! वेरी टेस्टी ! ब्यूटीफुल ।’
जवाब में और मुस्कुराकर आगे बढ़ने ही वाले थे कि उन्होंने सोचा कि देखें यहां और क्या मिलता है ।
‘अंदर तो आइए, सर !’
छेदीलाल तो थे ही इस प्रतीक्षा में । बहुत दिन के बाद कोई इतने सम्मान से स्वागत कर रहा था, किसी रेस्त्रां में । वरना एशियनों को लंदन में कोई भाव नहीं देता । अंदर कुर्सी पर जाकर बैठ गए । पिज्जा-1.99 पौंड यानी दो पौंड से भी कम । उनकी पुतलियां फैल गई । उससे आगे वह पढ़ना ही नहीं चाहते थे । उनके मन की किसी परत से आवाज आई, ‘क्या पता आगे और सस्ता हो ।’
कितना मुश्चिकल है पकी हुई आदतों को बदलना । ब्रिटेन में रहने-सहने के लिए छेदीलाल को ब्रिटिश काउंसिल इतना देती है कि मनमर्जी से खाएं तो भी इतना बचा रहे जितना कि वह अपने देश में कई तरह की तरकीबों के बाद बचा पाते हैं । पर मनमर्जी से छेदी ने कभी कुछ किया हो तब न ! बचपन में स्कूल फीस भी नाम कटने की धमकी मिलने पर जमा हो पाती थी । शहर में आकर नौकरी शुरू की तो साथ ही मकान का प्लाट ले लिया । इच्छाएं उगने से पहले ही किश्तों में कटने लगीं । महीने दर महीने कभी नंगी दीवारों पर पलस्तर, तो कभी आसान ऋण पर टेलीविजन । उन्हें खुद पता नहीं चला कि उनका वजूद कब बच्चों की फरमाइशों में बदल गया । लगातार असुरक्षित भूत और भविष्य ने उन्हें ऐसे जंतु में तब्दील कर दिया है जो सब कुछ होने पर भी सतत भूख की तरह जिंदगी को ताकता रहता है ।
नहीं ! नहीं ! नहीं ! उन्होंने उंगली के इशारे से बेयरे को बुलाया, ‘ताजा है न ?’
पहले तो बेयरा समझा ही नहीं कि ताजा, बासा क्या बला है पर जब समझ गया तो उसने छेदीलाल को समझाने में सैकंड भी नहीं लगाया, ‘सर ! सलाद फ्री ।’
ओह ! सलाद फ्री ! और कोई आलतू-फालतू टैक्स भी नहीं । देखो, एक शहर में ही चीजों के दामों मं कितनी हेरा फेरी है – उन्होंने सोचा । लेबनानी हैं, तभी तो भले हैं ।
‘सलाद में क्या है ? ’
‘आप देख लीजिए, जो चाहे लो !’
छेदीलाल फिर असमंजस में डूब गए । यहीं खाया जाए या होटल पर ले जाकर । यहां खाते हैं तो सलाद जमकर खाई जा सकती है । सलाद तो वैसे भी स्वास्थ्य के लिए अच्छी होती है । रेशे जो होते है ।
उन्होंने निर्णय किया कि होटल जाकर ही खाना ठीक रहेगा । अभी बजे हैं सात । पहुंचते-पहुंचते साढ़े सात बज जाएंगे । आठ बजे खा लूंगा । ‘क्या डिब्बे में पैक हो सकता है ?’
बेयरा अब तक प्रश्नों से शायद आजिज आ चुका था । वह चटपट उठा और पैक करने लगा ।
‘सलाद कहां रखोगे ?’
‘इसके बीच में ।’
‘जरा खूब-सी रख देना । मैं सलाद जरा ज्यादा खाता हूं ।’
अब तीन दिन की ही तो बात है । शाम को रोज पिज्जा ले लिया करुंगा, उन्होंने मन में सोचा ।
पिज्जा के डिब्बे को लेकर छेदीलाल जब बाहर निकले तो उनहें सीधे-सीधे छह पौंड के मुनाफे का अहसास था ।
इरादा तो उन्होंने आठ बजे खाने का बनाया था पर जब घड़ी साढ़े सात से आगे बढ़ने में ‘ओवरटाइम’ मांगने लगी तो उनसे रहा नहीं गया ।
उन्होने पिज्जा को करीने से अखबार पर रखा । सलाद अलग किया और होटल से चुराए कांटे-चम्मच को ब्रीफकेस से निकालकर जयगणेश करने बैठ गए । लेकिन यह क्या ? पिज्जा खींचे नहीं खिंच रहा था । कभी कांटा इधर हो जाता, कभी चम्मच उधर । मुंह में टुकड़ा डाला तो लगा किसी ठंडी खाल को चबा रहे हों । पिज्जा तो उनके दिमाग में होठों से छूने वाली चीज थी । उन्होंने उल्टा किया उधर भी वैसा ही था ।
उन्होंने एक टुकड़ा उठाया और आंखों को, माइक्रोस्कोप बनाकर जांचने लगे । पता नहीं क्या चीकट-सा बुरादा था । कहीं वही खंभे वाली खुरचन तो नहीं है जिसे वह लेबनानी चाकू से खुरच रहा था । क्या पता थोड़ा बहुत इसमें भी मिला दिया हो । यहां मांस है भी सब्जी से सस्ता । धर्म की बात दिमाग में कोंचते ही उन्होंने उसे झटककर दूर फेंक दिया, यह कहते हुए कि ‘हे धर्म । तू सात समंदर पार यहां भी आ गया ।’ उन्होंने दूसरा टुकड़ा जांचा । उसमें कुछ प्याज के काले भुने हुए टुकड़े नजर आए । उन्हें कुछ उम्मीद लगी और सलाद लगाकर फिर खाना शुरू कर दिया ।
लेकिन पिज्जा था कि खत्म होने में ही नहीं आ रहा था । अभी तो पूरा आधा बाकी था । उन्होंने उसे चार टुकड़ों में बांट दिया । ‘डिवाइड एंड रूल’ के फार्मूले के तहत, जिससे कि खाने की प्रगति दृश्य-माध्यम की तरह साफ नजर आए । उन्होंने प्लेट नजदीक खींची और आंखें बंद कर जोर-जोर से मुंह चलाने लगे ।
अब सिर्फ थोड़ा-सा बाकी था । पानी का घूंट पीकर वह कुछ सुस्ताने लगे ।
इसे फेंके भी तो कहां ? बाहर अंधेरा हो चुका था और कमरे में खाने की ऐसी चीजें लाना होटल के कानूनों का उल्लंघन करना था । पुर्तगाली जमादार बिना कुछ सोचे-समझे चीखने लगेगा । सुबह का नाश्ता भी मुश्किल हो जाएगा ।
हनुमान का नाम लेकर उन्होंने फिर कांटा उठा लिया । सोमालिया और सूडान में लोग दाने-दाने को मुहताज हैं और तुम सैंकड़ों की चीज को कूड़े में फेंकना चाहते हो । अन्न का अपमान अच्छी बात नहीं है, सी.एल. त्रिपाठी ! उठो ! जागो ! और जब तक पिज्जा खत्म नहीं हो जाता, रुको मत ! यह त्रिपाठी नहीं, विवेकानंद का आह्वान था ।
अंत में और ज्यादा हठ न करते हुए उन्होंने प्लेट को तुड़ी-मुड़ी कर समेटा और बरामदे में टहलने के लिए निकल गए । पिज्जा का कसैलापन अभी भी उनके दिमाग में बाकी था । यह जितना ही ध्यान उधर से हटाते जिज्जा उतनी ही जोर से उनके पेट में उछलता । बेचैनी को भांपते हुए वह किनारे की बेंच पर बैठ गए ।
यदि रेस्त्रां में होता तो तुरंत शिकायत करने पहुंच जाते – साले लेबनानी । अपने देश को बर्बाद करके अब यहां भी पहुंच गए । गंगाघाटी के ब्राह्मण के साथ छल-कपट । तुम्हारा कभी भला नहीं हो सकता । उन्होंने मन-ही-मन भला-बुरा कहा और पेट सहलाने लगे ।
लंदन भी विचित्र शहर है । जब जनवरी में आए थे तो दिन ही नहीं होता था और अब नौ बजे तक रोशनी बनी रहती है । तकलीफ के मारे वह फिर खड़े हो गए और निर्णय किया कि बिस्तर पर आराम करना ज्यादा ठीक रहेगा ।
पेट में मरोड़ उठी तो वह कराह उठे । उठकर पानी पिया और सोने की कोशिश करने लगे ।
कहीं फूड पाइजनिंग न हो गई हो ? उन्हें लगा कि कै होने वाली है । उनका दिमाग घूमने लगा कि ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए । वह होटल की नौवीं मंजिल पर थे । लिफ्ट तक पहुंचने में भी टाइम लगता है । कपड़ों का क्या ? जब मौत का सामना हो रहा हो तो इन औपचारिकताओं की भी कहीं परवाह की जाती है । फिर भी उन्होंने पायजामा तो पहन ही लिया । कच्छा-बनियान में भागना तो अच्छा नहीं लगता ।
उन्हें याद आया कि घर से हाजमोला की गोली लाए थे । वहीं हाजमोला-कंकड़ हजम, पत्थर हजम । दारासिंह का विज्ञापन । आज टैस्ट भी हो जाएगा । पत्थर तो बाद में देखा जाएगा, पहले पिज्जा को देख लो, हाजमोला जी !
पेट में गुटरगूं हुई तो उन्हें लगा, पत्थर टूटा । हाजमोला सही वक्त पर काम आया है । डाक्टर के पास जाते तो कम-से-कम बीस पौंड लेता । जाना-आना और दवाएं अलग । पूरे पचास पौंड टूट जाते- पच्चीस सौ रुपए ।
पच्चीस सौ की संख्या ने उन्हें चेताया कि आत्मविश्वास की सख्त जरूरत है । जैसे किसी दौड़ में भाग रहे हों और जरा-सी चूक से ही इतनी बड़ी रकम हाथ से निकल जाएगी । वह तुरंत खड़े हुए और कमरे में ही चक्कर काटने लगे ।
आगे से कान पकड़ा जो ऐसा-वैसा खाया । न भी खाते तो क्या भूखे मर जाते । ऐसी चीजें फेंकना अच्छा है या उसके चक्कर में जान देना । अभी कुछ हो-हुवा जाए तो सब यहीं रखा रह जाएगा । होटल वाले तो फौरन मेडिकल कराकर रिपोर्ट नत्थी कर देंगे कि देखो क्यों मरा । लाश की किरकिरी होगी, सो अलग ।
लेकिन लाश पहुंच भी पाएगी ? ये लोग जरा भी परवाह नहीं करते । उन्होंने तुरंत बत्ती जलाई और डायरी के पहले पन्ने पर ‘केपीटल लेटर्स’ में अपना पता लिखा, टेलीफोन नंबर लिखा और साथ ही यह लिख दिया कि लंदन से फोन करते वक्त कोड नंबर क्या लगाना पड़ता है । यदि डायरी खोलेंगे तो इतना तो पढ़ ही लेंगे । किसी विदेशी नागरिक की लाश के प्रति तो और भी ज्यादा फर्ज बनता है ।
अभी पिछले वर्ष ही जम्मू मं एक अंग्रेज की मौत हो गई थी । जून की लू से । बेचारा कश्मीर की सैर करके लौटा था । पता नहीं क्या किया होगा भारत सरकार ने । किसी दूसरे देश में कोई मरे तो उसके लिए अंतर्राष्ट्रीय नीति होनी चाहिए । वह जरूर इस बारे में लोगों को जाग्रत करेंगे । आंदोलन चलाएंगे । जंतर-मंत पर धरना देंगे ।
डकार-सी आती लगी तो उकड़ू होकर बैठ गए जिससे कि पीछे न लौट जाए । उल्टी भी आती तो वह उसे पीछे नहीं लौटने देते ।
सामान तो क्या जाएगा । बड़ा ब्रीफकेस चला जाए वहीं बहुत है । हां, डायरी में बैंक एकाउंट का विवरण जरूर लिख देता हूं । वे दुष्ट कहीं इस पैसे को हजम न कर लें ।
वह सारी चीकड़ी भूल गए । न हैल्थ क्लब याद आ रहा था, न सुबह का ब्रेकफास्ट । वह मन-ही-मन राम का नाम जप रहे थे कि कैसे भी सवेरा हो जाए ।
घबराहट बढ़ने लगी तो वह टेलीविजन चलाकर बिस्तर पर आ लेटे । वियतनामी युद्ध पर आधारित कोई जासूसी फिल्म चल रही थी ।
वह कब नींद में खो गए, उसका रिकॉर्ड किसी के पास नहीं । उनकी सुबह जरूर ग्यारह बजे हुई जब जमादार ने आकर दरवाजा खटखटाया ।
दरवाजा खोलने से पहले उन्होंने झटपट बचे-खुचे पिज्जा को अखबार में लपेटा और कूड़ेदान में डाल दिया ।
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