छुटिटयॉं हो गई हैं तो होमवर्क भी पीछे-पीछे । ज्यादातर मामलों में मॉं परेशान है । ऐसे-ऐसे प्रोजेक्ट कि बच्चों की तो छोड़ो, पढ़े-लिखे मॉं-बाप की समझ से भी बाहर । यह सारी बीमारी निजी स्कूलों में चरम पर है क्योंकि इन सबसे स्कूल और उनके हित साधने वालों के सूत्र जुड़े हुए हैं । घर के सामने वाले स्कूल की वजह से मेरे नजदीक के शॉपिंग कॉमप्लेक्स का नजारा ही बदल गया है । बच्चे पेस्ट्री, दूसरी चीजें खाते हैं तो ज्यादातर दुकानें वैसी हो गई हैं । वैसे ही रातो-रात प्रोजेक्ट, मोबाइल, कंप्यूटर आदि की दुकानें भी बढ़ रही है ।
लेकिन मैं यहां शिक्षा के और एक बुनियादी ढॉंचे की बात करना चाहता हूँ और वह है पाठ्यक्रम । सातवीं की बालिका को हिन्दी की किताब में शामिल कवि की अन्य रचनाऍं खोज कर लानी है । मॉं ने लाईब्रेरी छानी, लाईब्रेरियन से भी पूछा, आस-पास के पढ़े-लिखे पड़ोसियों से, दफ्तर से, कवि का कहीं कोई सुराग नहीं । न नाम, न पता, न रचनाएं । सुराग हो भी कहॉं से । इस देश में हर तीसरा आदमी कवि है और स्कूल ने मजमर्जी से उसकी कविता अपने पाठ्यक्रम में लगा रखी है । क्या पाठ्यक्रम बनाने की इतनी छूट होनी चाहिए ? कोई तो पैमाना रहेगा शिक्षा, पाठ्यक्रम का ।
जब से दसवीं की परीक्षा में बोर्ड परीक्षा खत्म हुई है तब से तो निजी स्कूलों को और आजादी मिल गई है । जहॉं पहले नौवीं से एन.सी.ई.आर.टी. की किताबें बोर्ड की परीक्षा की वजह से लगाना अनिवार्य था, अब उससे भी निजात मिल गयी । शायद इसीलिये निजी स्कूलों ने झूठ-मूठ का भी विरोध नहीं किया । मनमानी के लिये और खुली छूट । नया सेशन शुरू होते ही मैंने नौवीं क्लास के बच्चे की किताब देखनी चाही । एक भी किताब एन.सी.ई.आर.टी. की नहीं थी । क्यों ? बच्चा क्या जवाब देता ? उनकी मॉं ने बताया कि सब स्कूल ने ही दी है । एक मनमजी गढ़ा गया पाठ्यक्रम । उसके पहले पन्ने पर मात्र इतना लिखा है कि ‘यह एन.सी.ई.आर.टी. पाठ्यक्रम पर आधारित है ।’ जो किताबें थीं उसमें देश के कई महापुरूषों की जीवनियॉं दिल्ली जैसे शहर में दर्जनों स्कूल चलाने वाली संस्था के प्रमुख ने लिखी थीं । क्योंकि वह स्कूलों का स्वामी है इसलिये उसे इतिहास, राजनीति, स्वतंत्रता-संग्राम सभी विषयों पर पुस्तक लिखने का अधिकार मिल गया है । नैतिकता की खोज में मारे-मारे फिरते ये स्कूली-शिक्षाविद कभी भी जमीनी असमानता, अन्याय के मसलों पर नहीं बोलते । देश के दोनों प्रमुख धर्मों के पाठ्यक्रमों में ऐसी विकृतियां हैं । शायद इसलिए यह चुप्पी है । क्योंकि निजी स्कूल भी लगभग सभी पार्टियों के हिस्से में है ।
ऐसा नहीं कि हमारे यहॉं शिक्षाविद या चिंतकों की कोई कमी है । डॉ. जाकिर हुसैन, हुमायूँ कबीर, दौलत सिंह कोठारी से लेकर प्रोफेसर यशपाल, कृष्ण कुमार तक एक लंबी फेहरिस्त है । सबकी अपनी-अपनी विशिष्टता होते हुए भी इन सभी के लिए शिक्षा की मूलभूत धारणा है- बच्चों का सर्वांगीण विकास, जो उसे हँसते-खेलते एक अच्छा नागरिक बनाए । अपनी भाषा में शिक्षा और पढ़ने की आजादी की बात भी इन सभी शिक्षाविदों ने की है । कुछ गॉंधी, रविन्द्रनाथ टैगोर की परंपरा को आत्मसात् करते हुए तो कुछ मॉंटेसरी, जॉन हाल्ट, समर हिल जैसे विदेशी शिक्षाविदों से सीख लेकर । जिस देश में आई.आई.टी. की एक परीक्षा के लिए कई वर्षों से कोहराम मचा हुआ है वहॉं किसी ऐसे पाठ्यक्रम के खिलाफ कोई आवाज नहीं सुनी जो शिक्षा के नाम पर धर्म और अंधविश्वास को बढ़ा रहे हैं । उर्दू की किताबों के बारे में तो मैंने सिर्फ सुना ही है लेकिन हिन्दी की एक ऐसी किताब ‘धर्म शिक्षा’ की बात मैं भूले नहीं भूलता । इसका सार यह था कि दस काम छोड़कर स्नान करो और सौ काम छोड़कर पूजा आदि । सुबह मॉं-बाप पूजा करने को बैठ जाएं तो क्या निजी स्कूलों के बच्चे, जहॉं ये किताबें पढ़ाई जाती हैं, स्कूल पहुँचेंगे ? हाल ही में हुए एक कार्टून विवाद के संदर्भ में यह बात और याद आ रही है कि ऐसी शिक्षा से किसी की आत्मा क्यों नहीं हिलती ? जिन नेताओं से हम उम्मीद लगाए रहते हैं, क्या कभी उन्होंने इन पाठ्यक्रमों की तरफ देखा भी है । उन्हें जरूरत भी क्या है । कुछ लोहिया के नाम को जप रहे हैं तो कुछ नेहरू, अंबेडकर या श्यामा प्रसाद मुखर्जी को । अमीर अंग्रेजी पढ़े-लिखे पूरे देश में एक से ही हैं । नब्बे प्रतिशत मामलों में दिल्ली, पटना, जयपुर से लेकर बम्बई तक जब भी किसी दोस्त से पूछा कि तुम्हारे बच्चों की हिन्दी की किताब का क्या नाम है ? सबका एक ही उत्तर मिला कि हिन्दी , संस्कृत तो बच्चों की मॉं ही देखती है । लेकिन वे यह जोड़ना कभी नहीं भूलते कि गणित और विज्ञान मैं पढ़ाता हूँ । मानों इन विषयों को पढ़ाना मर्द वाली बातें हों और साहित्य, सामाजिक विषय लड़कियों और औरतों का तमाशा । यानि बच्चों को क्या पढ़ाया जा रहा है इससे मतलब न कानून बनाने वालों को है, न कानून का पालन कराने वाले नौकरशाहों को । और उन अंग्रेजी अमीरों को तो क्या होगा जो अमेरिका, इंग्लैंड, की यूनिवर्सिटी और उनके पाठ्यक्रम की तरफ टकटकी लगाए देख रहे हैं । बच्चों के बड़े होते ही फुर्र से वहॉं उड़ने-उड़ाने को तत्पर । अमेरिका, कनाड़ा, इंग्लैंड से अंग्रेजी तो इन्होंने आंख मूंदकर ले ली, उनकी शिक्षा का बुनियादी मंत्र, पड़ौसी स्कूल, समान शिक्षा और ‘होमवर्क’ कतई नहीं, का शतांश भी नहीं छुआ । सनातनी जातिवाद के विरोध का नाटक करते हुए, असमान अंग्रेजी जातिवाद के दलदल में धंसने को आमादा ।
जब तक पूरे देश में सरकारी स्कूल थे वे चाहे केंद्रीय सरकार के हों या राज्य सरकारों के तब भी एक सामान्य तर्कशील वैज्ञानिक व्यवस्थित पाठ्यक्रम की उम्मीद की जा सकती थी, अब तो यह असंभव सा जान पड़ता है । यानि कि ऐसी-ऐसी बातें भी शिक्षा के नाम पर पढ़ाई जा सकती हैं जिन्हें पढ़कर हम बेहतर नागरिक बनने के बजाय और कूपमंडूक हो जाएं । ऐसा हम चारों तरफ रोज देखते हैं । मेरी एक बुजुर्ग रिश्तेदार के लिए हर समस्या का समाधान तुलसीदास की चौपाइयों से ही शुरू होता है और वहीं पर खत्म । यानि कि जो हमें पढ़ाया जाता है हम उसी को सर्वसत्य जिंदगी भर मानते रहते हैं । एन.सी.ई.आर.टी. के ताजा विवाद के संबंध में मुझे इस बात का फिर गहराई से एहसास हुआ । सन अस्सी के आस-पास एन.सी.ई.आर.टी. की किताबें मैंने पहली बार पढ़ी थीं । रोमिला थापर, प्रो रामशरण शर्मा, सतीशचंद्र, इरफान हबीब…… ये नहीं पढ़ी होतीं तो शायद मेरी इतिहास, राजनीति की समझ एक कट्टरवाद से आगे नहीं जा सकती थी । पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिन स्कूलों में सत्तर के दशक में हमें इतिहास पढ़ाया गया उसे याद करूँ तो एक अफसोस से भर जाता हूँ । वो इतिहास न हो मानो जिन्ना और गॉंधी की लड़ाई की गाथाऍं हों । हिंदू-मुसलमान समाज के दो हिस्से न हो, युद्ध शिविर हों । इतिहास की इसी विकृति के संदर्भ में शिक्षाविद प्रो. कृष्ण कुमार की किताब ‘मेरा देश तेरा देश ‘ बहुत महत्वपूर्ण लगती है । जैसा इतिहास भारत में पढ़ाया जा रहा है लगभग वैसा ही पाकिस्तान में । सिर्फ पढ़ने-पढ़ाने की आजादी के नाम पर इसकी छूट नही दी जा सकती । एक सच्चे राज्य का कर्तव्य अपने नागरिकों को ऐसी शिक्षा देना है जो भविष्य की नींव तैयार कर सकें ।
तो फिर कॉलिज स्तर पर राष्ट्रीय पाठ्यक्रम समीति बनाने के सुझाव का क्या हुआ ? क्यों अभी तक केंद्रीय सरकार उस दिशा में आगे नहीं बढ़ी ? यह संदेह राष्ट्रीय पाठ्यक्रम बनाने वालों की राजनीति पर भी होता है । जैसे कई वर्षों एक एन.सी.ई.आर.टी. के नाम, एक धर्म की आलोचनाओं से बचकर निकले हैं तो दूसरे धर्म पर मनमर्जी धाड़-धाड़ । राजनीति करने को जमीन मुहैया कराना या अपने-अपने खेमों, विचारधारा के बंधकों को ही कवि, लेखक मानना और पाठ्यक्रम में शामिल करना । ऐसे ही नजारे अंग्रेजी को लेकर हैं । कहते होंगे कि दुनिया के शिक्षाविद गॉंधी, रविन्द्रनाथ टैगोर अपनी भाषा पर शिक्षा देने की बात यहॉं के अमीरों के साथ-साथ सवर्ण और दलित सभी एक स्वर में गरीबों से उनकी जुबान छीनने पर आमादा हैं । अपने-अपने तर्को की गठरी बॉंधे । इन तर्कों की गठरी ऐसी एक- पक्षीय स्कूली पाठ्यक्रमों की देन है जिनके कोप से निजी स्कूलों में पढ़ने वाले ज्यादातर बच्चों की माऍं परेशान है । खुशी की बात बस इतनी है कि ऐसे जहरीले पाठ्यक्रमों से कम-से-कम अभी तक सरकारी स्कूल बचे हुए हैं । वैसे भी वहॉं पढ़ाने वाले माता-पिता के पास अज्ञात कवि की खोज करने की फुरसत भी नहीं । क्या समान शिक्षा और अपनी भाषा में शिक्षा के लिए एक दिन की राष्ट्रीय हड़ताल या संसद बंद नहीं की जा सकती ?
One thought on “पाठ्यक्रम में कवि”