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परीक्षा (जागरण उदय/2001)

Oct 15, 2012 ~ Leave a Comment ~ Written by Prempal Sharma

मम्‍मी बंटी को संस्‍कृत पढ़ा रही हैं- ‘जगद्गुरु शंकराचार्य ।’

‘जगद्गुरु कैसे हो सकते हैं ? सातवीं सदी में क्‍या हम अमेरिका जा सकते थे ? इंग्‍लैंड जा सकते थे ? तब तो अमेरिका की खोज भी नहीं हुई थी ।’ बंटी पढ़ाई शुरू होते ही अड़ जाते हैं ।

मम्‍मी चुप । क्‍या जवाब दें ?

‘अच्‍छा, तू इधर ध्‍यान दे । पांच बजने वाले हैं और अभी कुछ भी नहीं हुआ ।’ वे अर्थ समझाने लगीं, ‘बत्‍तीस की उम्र में शंकराचार्य भगवान में लीन हो गए ।’

‘लीन हो गए ? मतलब ?’

‘यानी कि विलीन हो गए ? मर गए ।’

‘मम्‍मी लीन में और विलीन में क्‍या अंतर है ?’

‘एक ही बात है । यानी कि ईश्‍वर में समा गए ।’

‘मम्‍मी आप भी क्‍या कहती हो ? समा कैसे सकता है कोई ?’

‘तपस्‍या करते-करते ।’

‘लो, अच्‍छी तपस्‍या की । खाना नहीं खाया होगा । फैट्स खत्‍म हो गई होगी । मर गए बेचारे । पागल हैं ये लोग भी । बेकार मर गए । वरना सत्‍तर साल जीते ।’

‘मजाल कि आगे बढ़ने दे । गाल बजवा लो, बस । ये क्‍यों ? वो क्‍यों ? चुप भी तो नहीं रह सकता । कर इसे खुद । सब बच्‍चे खुद करते हैं । खुद करेगा तब पता चलेगा ।’ वह चली गईं ।

वार्षिक परीक्षा शुरू होने वाली है बंटी की । वैसे बंटी की कम, मम्‍मी की ज्‍यादा ।

‘पापा, ये एग्‍जाम होली के दिनों में ही क्‍यों होते हैं ? पिछले साल भी इन्‍हीं दिनों थे ?’ बंटी परीक्षा से ज्‍यादा होली की तैयारियों में डूबे हैं । ‘इस बार जिंसी को नहीं छोड़ूगा । कह रही थी मैं बहुत सारा रंग लेकर आऊंगी । मम्‍मी, मैं डालता हूं तो भों-भों करके रोने लगती है ।’

बंटी आहिस्‍ता-आहिस्‍ता पैर रखते हुए आया । ‘पापा, एक मिनट आओ ।’

‘क्‍यों ? बोलो ।’

उसने होंठ पर अंगुली रखकर चुप रहने का इशारा किया । पापा पीछे-पीछे चल दिए । कोई रास्‍ता ही नहीं था । उसने खिड़की की तरफ अंगुली से इशारा किया, फुसफुसाते हुए, ‘उधर देखों ।’

पापा को कुछ दिखाई नहीं दिया । उसने खुद पापा की गर्दन ऊपर-नीचे उठाई-गिराई- ‘वो, वो !’

‘उधर है क्‍या ?’

‘धीरे । खिड़की के किनारों पर देखो न !’

‘क्‍या है, बताओं तो ?’

‘गिलहरी के बच्‍चे । तीन-तीन । देखों कैसे सो रहे हैं ? दिखे ?’

खिड़की के बीच अमरूद का पेड़ था । कई बार झांकने के बाद दिखाई दिए तो पापा की भी आंखें खिल गईं । ‘कैसे मजे से सो रहे हैं ! मैंने तो पहली बार देखे हैं ।’

‘गिलहरी के बच्‍चे ! हैं ना कितने मजेदार, पापा ! देखो उसकी पूंछ पीछे वाले के मुंह पर आ रही है ।’

तभी पापा को जोर की छींक आई ।

‘धीरे-धीरे, पापा ! लो एक तो जग भी गया । च्‍च-च्‍च ! अब ये तीनों भाग जाएंगे । आपको भी अभी आनी थी छींक, पापा !’

पापा चाहते हैं कि कहें कि कहां तक याद किया पाठ, लेकिन उसकी तन्‍मयता देखकर उनकी हिम्‍मत नहीं हुई ।

मम्‍मी इधर-उधर तलाश कर रही है बंटी को । देखो, अभी यहीं छोड़कर गई थी रसोई तक । यह लड़का तो जाने क्‍या चाहता है । इसका जरा भी दीदा लगता हो ? ‘बंटी ….ई….ई….’

उनकी आवाज को मील नहीं तो किलोमीटर तक तो सुना ही जा सकता है । लौट-फिरकर झल्‍लाहट फिर पापा पर, ‘अपनी किताबों में घुसे रहोगे । बताओ न कहां गया ? मुझे संस्‍कृत खत्‍म करानी है आज । इसे कुछ भी नहीं आता । तुमसे पूछकर गया था ?’

‘मुझसे पूछकर तो कोई भी नहीं जाता । तुम पूछती हो ?’

‘हां, अब पूछ रही हूं ? बताओ ? हाय राम, मैं क्‍या करूं ? कल क्‍या लिखेगा ये टेस्‍ट में ? इसे कुछ भी तो नहीं आता ।’

‘आ जाएगा । सुबह से तो पढ़ रहा है । दस मिनट तसल्‍ली नहीं रख सकतीं । बच्‍चा है । थोड़ी मोहलत भी दिया करो ।’

‘इसे आता होता तो मैं क्‍यों पीछे पड़ती । संस्‍कृत को भी कह रहा था कि इसे क्‍यों पढ़ाते हैं ? क्‍या होगा इससे ? बीजगणित भी क्‍यों ? भूगोल भी क्‍यों ? तो इसे घर में क्‍यों नहीं बिठा लेते ?’ वह रसोई में लौट गईं ।

‘मम्‍मी ।’ बंटी की आवाज सुनाई दी ।

‘आ गया न ।’ मम्‍मी रसोई से बाहर थीं । ‘आओ बेटा !’

लेकिन बंटी कहीं नजर नहीं आया । ‘आ जा, आ जा तू ! तेरी धुनाई न की तो मेरा नाम नहीं है ।’ वह फिर वापस लौट गईं ।

बंटी दीवान के नीचे जमीन पर चिपके थे । इतनी पतली जगह में जहां कोई कल्‍पना भी नहीं कर सकता था । ‘हमें कोई नहीं ढूंढ सकता और हमने आपकी सारी बातें सुन लीं । पापा से कैसी लड़ाई की आपने ।’

उसकी आंखें पुस्‍तक पर गड़ी हैं । कुछ लिख रहा है कॉपी में, एक विश्‍वास के साथ । ‘पापा, वो छोटा-सा कुत्‍ता था न, वह मर गया ।’ एक पल उसने सिर उठाया और अपने काम में लग गया ? ‘बेचारा गाय की मौत मरा ।’

अब पापा के चौंकने की बारी थी । कुत्‍ते की मौत तो सुना है, गाय की मौत क्‍या होती है ? ‘कैसे ?’

‘वैसे ही मरा जैसे गाय मरती है ।’ लंबी-लंबी सांसें ले लेकर । बंटी सांस खींच-खींचकर बताने लगा ।

‘तुमने कहां देखी गाय मरती ?’

 

‘बहुत सारी । हमारे स्‍कूल के पीछे जो मैदान है, उसमें उनके मुंह से बड़े झाग निकलते थे । मैं और नारायण रोज देखते थे । पता नहीं वहां कौन-सी चीजें खाकर वह मर जाती थीं । वैटरनरी डॉक्‍टर भी आते थे । तब भी । वहां तितली भी मरी मिलती थी । अच्‍छा यह बताओ, यह किस चीज का निशान है ?’ उसने कॉपी के अंतिम पन्‍ने पर छोटा-सा पंजा बना दिया ।

पापा समझे नहीं । पढ़ाई करते-करते अचानक यह कुत्‍ता, गाय, तितली, निशान कहां से आ गए ?

‘मोर का ! बारिश में मोर के निशान ऐसे ही होते हैं । बहुत मोर भी होते थे स्‍कूल के पीछे की तरफ ।’

‘बंटी, क्‍यों गप्‍पे हांक रहे हो ? कितना काम हुआ है ? मैं आज तुझे खेलने नहीं जाने दूंगी चाहे कुछ भी हो जाए । पापा भी गप्‍पा मारने को पहुंच गए ।’

पापा-बंटी दोनों धम्‍म से सीधे होकर बैठ गए ।

‘पापा, मुझे सब फोन पर बहनजी कहते हैं ।’ वह मुस्‍करा भी रहा था और खुदबदा भी रहा था । ‘बताओ न क्‍यों ?’

पापा समझे नहीं, ‘बताओ न, क्‍या हुआ ?’

‘मैंने अभी फोन उठाया तो उधर से आवाज आई- बहनजी नमस्‍कार । मिश्राजी हैं ? सब ऐसा ही कहते हैं ।’

‘तो बहनजी बनने में क्‍या परेशानी है ?’

बिट्टू ने भी उसका प्रश्‍न सुन लिया था । ‘पहले मुझसे भी बहनजी कहते थे, फिर मैंने अपनी आवाज मोटी की । अब कोई नहीं कहता ।’

‘हूं ।’ बंटी ने अपनी चिरपरिचित बोली में आवाज निकाली, ‘कैसे ?’

बिट्टू ऐसे किसी उत्‍तर के लिए तैयार नहीं था । भाग लिया । ‘मैं भी अगले साल टीनेज हो जाऊंगा । तब मुझे कोई बहनजी नहीं कहेगा ।’

‘अब पढ़ेगा भी ! टीनेज हो जाएगा, पर पढ़ना-लिखना आए या न आए ।’ मम्‍मी की डांट थी ।

‘आपको और कुछ आता है डांटने के सिवाय । जब देखो तब हर समय डांटती रहती हैं ।’

अगली सुबह इतिहास-भूगोल की परीक्षा थी । मां इतिहास में कमजोर है, इसलिए मेरे पास छोड़ गई । हम दोनों को गरियाते हुए- ‘लो, लो इसका टेस्‍ट । बहुत बड़े इतिहासकार बनते हो ।’ गुस्‍से, खिसियाहट का लावा जब बहता है तो न तो वह हमारे उत्‍तर का इंतजार करता है और न हम उत्‍तर देने की हिम्‍मत करते हैं । बंटी को यह बात पता है । उसके चेहरे से साफ है कि उस पर इसका कोई असर नहीं है । उसे यकीन है कि पापा पर भी नहीं है ।

वह मेरे पास बैठा इतिहास के प्रश्‍नों के जवाब लिख रहा है । मेरी कई चेतावनियों के बावजूद वह पहले प्रश्‍न की दूसरी लाइन पर ही खड़ा है ।

‘पापा, टीकू ताऊजी हमारे घर क्‍यों नहीं आते ?’ उसकी आंखें मेरी आंखों में घुस रही हैं । ‘मैंने तो उन्‍हें कभी बोलते भी नहीं देखा । बताओ न  ? क्‍यों नहीं आते ? ’

प्रथम स्‍वतंत्रता संग्राम उर्फ गदर की विफलता के कारणों में से उसे यह प्रश्‍न उठा है उत्‍तर लिखते-लिखते ।

‘फिर बताऊंगा ।’

‘पहले बताओ । आप कभी भी नहीं बताते । ऐसे ही कहते रहते हो, फिर बताऊंगा ! फिर बताऊंगा !’

‘नहीं । इतिहास के पेपर के बाद पक्‍का ।’ पापा के पास आते ही उसे सबसे पहले मानो यह रटंत पढ़ाई भूलती है । बंटी की भूगोल की किताबें नहीं मिल रही हैं । ऐसा पहली बार नहीं हो रहा । मासिक टेस्‍ट हो या छमाही, किसी न किसी विषय की किताब तो गायब हो ही जाती है तब तक ।

काफी देर से कोई आवाज नहीं सुनी तो मम्‍मी भी बेचैन होने लगती हैं । बंटी और इतनी एकाग्रता से पढ़ रहे हों ?

बंटी का चेहरा उतरा हुआ है ।  ‘मम्‍मी किताब नहीं मिल रही ।’

‘अच्‍छा, तो तू उसी की खुसर-पुसर में लगा हुआ था ! मैं कहूं कि आज तो बड़े ध्‍यान से पढ़ रहा है । बंटी, हर बार तुम ऐसा ही करते हो । भइया की किताब तो कभी नहीं खोती । किताब नहीं मिली तो आज तेरी हत्‍या कर दूंगी ! ढूंढ़ ।’ मम्‍मी की आवाज में तैरते चाकू की समझ है बंटी में । तुरंत दौड़कर ढूंढ़ने लग गया । डबल बेड के नीचे, सोफे की गद्दियों के नीचे, पुरानी पत्रिकाओं के पीछे । यह सभी उसकी किताबों की जगहें हैं । चप्‍पे-चप्‍पे पर । जानकर भी रखता है, अनजाने में भी । उसे जब पता चलेगा कि पापा ने इतिहास के टेस्‍ट के लिए कहा था तो उस दिन इतिहास की किताब रहेगी, लेकिन अगले दिन नहीं । इतिहास के टेस्‍ट का मुहूर्त ढलते ही इतिहास की किताब मिल जाएगी, लेकिन भूगोल की गायब । नहीं खोता तो माचिस के ढक्‍कन, पुराने सेल, चाक, स्टिकर, डब्‍ल्‍यूडब्‍ल्‍यूओ के कार्ड, चॉकलेट के रैपर्स, सचिन तेंदुलकर का चित्र, पिल्‍लों के गले में बांधी जाने वाली घंटियां ।

‘बंटी, तुम पानी की टंकी की तरफ से मत जाया करो । उधर एक कुत्‍ता रहता है कटखना । उसने रामचंद्रन की बेटी को काट लिया है ।’

‘कैसे रंग का है, मम्‍मी ?’ बंटी तुरंत दौड़कर आ गया ।

‘काले मुंह का । लाल-सा ।’

‘वो तो मेरा सिताबी है । एक ही आवाज में मेरे पास आ जाता है । उसे तो मैं और एडवर्ड सबसे ज्‍यादा ब्रेड खिलाते हैं ।’ मां-बेटे दोनों भूल चुके हैं किताब, टेस्‍ट, चेतावनी ।

‘मैं कहता हूं, तुम नहीं जाओगे उधर । काट लिया तो चौदह इंजेक्‍शन लगेंगे इतने बड़े-बड़े, पेट में, समझे !’

बंटी पर कोई असर नहीं । उसे अपने दोस्‍त पर यकीन है ।  ‘मम्‍मी, वो तो अभी ज्‍यादा बड़ा नहीं हुआ । कल ऐनी और उसकी फ्रेंड खेल रही थीं, मम्‍मी ! बड़ा मजा आया । मैंने बुलाया । टीलू टीलू टीलू ! और ऐनी की ओर इशारा कर दिया । बस ऐनी के पीछे पड़ गया । ऐनी भागते-भागते अपने घर में घुस गई ।’ बंटी का चेहरा सुबह के सूर्य-सा खिल उठता है ऐसी हरकतों के विवरण बताते वक्‍त ।

मम्‍मी को शादी में जाना है । मम्‍मी के तनाव मम्‍मी के किसिम के ही हैं । पहले इस पक्ष में सोचती रहीं कि साथ ही ले जाती हूं बंटी को । कुछ खा-पी भी लेगा । मस्‍ती कर लेगा तो कल पढ़ाई भी करा लूंगी ।  ‘लेकिन, लेकर तभी जाऊंगी, जब तुम ये, ये काम कर लोगे ।

बंटी चुप रहा । जैसे कोई वास्‍ता ही न हो इस बात से ।

‘सुना कि नहीं ? जब तक टेस्‍ट नहीं होंगे तब तक नहीं ले जाऊंगी । और लिखित में लूंगी ।’

उसने ऐन वक्‍त पर मना कर दिया ।  ‘मैं नहीं जाता । कौन जाए बोर होने के लिए ।’ पापा ने भी समझाया पर नहीं माना ।  ‘मैं पढ़ता रहूंगा ।’ यह और जोड़ दिया ।

अब आप क्‍या करेंगे ? मम्‍मी की सारी योजनाएं धरी की धरी रह गईं । वह जाने की तैयारी कर रही हैं । बालों को धो रही हैं, पोंछ रही हैं और बीच-बीच में बंटी को आकर देख जाती हैं – पढ़ रहा है या नहीं  ? ऐसे छोड़ते वक्‍त उनकी चिंता और चार गुना ज्‍यादा हो जाती है । बंटी को जन्‍म-भर को काफी उपदेश, हिदायतें देंगी । बंटी पूरी तन्‍मयता से मेज पर बैठे हैं । उस्‍ताद की तरह । उसे पता है, इधर मम्‍मी बाहर, उधर वह । छह बज गए और मम्‍मी अभी तक नहीं गईं । बंटी उठे और मम्‍मी के सामने थे ।  ‘मम्‍मी, क्‍या कर रही हो ? कैसी बदबू आ रही है ?’

मम्‍मी क्‍या जवाब दें बच्‍चे की प्रतिक्रिया का ।

‘मम्‍मी, हमारी अंग्रेजी वाली मैम के पास आप चले जाओ तो बदबू के मारे नाक फट जाए । जाने कितने तरह का इत्र लगाकर आती हैं । एक दिन उन्‍होंने मुझे कहा कि मेरी मेज की ड्रार से किताब ले आओ । मम्‍मी, सुनो तो । उसमें इतनी चीजें थीं – फेयर एंड लवली, पाउडर, लिपस्टिक, जाने क्‍या-क्‍या । मम्‍मी, ये स्‍कूल में क्‍यों रखती हैं ये सारी चीजें ?’

गाल रगड़ती मम्‍मी का मानो दम सूखता जा रहा है ।  ‘अब तू मुझे तैयार भी होने देगा ? तूने काम कर लिया ?’

‘अभी करता हूं न । मैंने आपको बता दिया न । मम्‍मी ! क्‍यों लगाती हैं वे इतनी चीजें ?’

‘तुझे अच्‍छी नहीं लगतीं ?’

बंटी चुप । क्‍या जवाब दे ?

‘तेरी बहू लगाया करेगी, तो….’

‘मुझे सबसे अच्‍छी सविता सिंह मैडम लगती हैं । उनसे बिलकुल बास नहीं आती ।’

पढ़ने को छोड़कर उसे सारी बातें अच्‍छी लगती हैं ।

‘मम्‍मी, हमारी क्‍लास में एक लड़की है । वह भी 15 मार्च को पैदा हुई थी । मैं भी ।’

अगले दिन पूछ रहा था ।  ‘मैं 12 बजे पैदा हुआ था न ? वो साढ़े बारह बजे हुई   थी ।’

‘तू सवा बारह बजे हुआ था ।’

‘हूं ! तब भी मैं 15 मिनट बड़ा तो हुआ ही न ।’

इस हिसाब में उससे कोई गड़बड़ नहीं होती । गड़बड़ होती है तो स्‍कूल की किताबों के गणित से ।  ‘पापा, ये बीजगणित क्‍यों पढ़ते हैं ? क्‍या होता है इससे ?’ बंटी प्रसन्‍नचित्‍त मूड में था । शायद पापा भी ।

‘बेटा, हर चीज काम की होती है । कुछ आज, कुछ आगे कभी ।’

‘कैसे ?’

‘जैसे जो आप लाभ-हानि परसेंट के सवाल करते हो, उससे आपको बाजार में तुरंत समझ में आ जाता है कि कितना कमीशन मिलेगा ? कौन-सी चीज सस्‍ती है, महंगी है । बैंक में ब्‍याज-दर आदि । तुरंत फायदा हुआ न ? बीजगणित तब काम आएगा, जब बड़ी-बड़ी गणनाएं करोगे, जैसे पृथ्‍वी से चांद की दूरी, ध्‍वनि का वेग, आइंस्‍टाइन का फार्मूला…..’

बंटी की समझ में सिर्फ पहली बात ही आई है, दूसरी नहीं । चुपचाप काम में लग गया । इसलिए भी कि इससे ज्‍यादा प्रश्‍नों पर पापा-मम्‍मी चीखकर, डांटकर चुप करा देते हैं । थोड़ी देर बाद उसने फिर चुप्‍पी तोड़ी, ‘और पापा, किसी को यह सब नहीं पता करना हो तो उसके क्‍या काम आएगा यह सब ?’

पापा के पास कोई जवाब नहीं है ।  ‘अब तुम पहले अपना होमवर्क पूरा करो ।’

बीजगणित में फेक्‍टर्स की एक्‍सरसाइज थी । पहले प्रश्‍न पर ही अटका पड़ा है ।

‘जब तुम्‍हें आता नहीं तो पूछते क्‍यों नहीं ? बोलो, हमारी परीक्षा है या तुम्‍हारी ?’ तड़ातड़ कई चांटे पड़ गए पापा के ।

बाल पकड़कर बंटी को झिंझोड़ डाला ।  ‘खबरदार ! जो यहां से हिला भी, जब तक ये सवाल पूरे नहीं हो जाते । चकर-चकर प्रश्‍न करने के लिए अक्‍ल कहां से आ जाती है ? जो सांस भी निकाली तो हड्डी तोड़ दूंगा ।’

पापा छत पर टहल रहे हैं-अपराधबोध में डूबे । क्‍यों मारा ? क्‍या मारने से पढ़ाई बेहतर होगी ? और इतनी दुष्‍टता से  !  कहीं आंख पर चोट लग जाती तो ? वह जल्‍दी रोता नहीं है । लेकिन आज कितना बिलख-बिलखकर रोया था ।

‘मैथ्‍स, मैथ्‍स, मैथ्‍स ! क्‍या मैं मर जाऊं ? शाम को पांच बजे से आठ बजे तक मैं पढ़ता हूं कि नहीं ? बैडमिंटन नहीं जाना, नहीं गया । कंप्‍यूटर मत जाओ, वहां नहीं जाता । क्‍या दुनिया के सारे बच्‍चे एक जैसे होते हैं ? आपको भी तो कुछ नहीं आता होगा ? मारो ! मारो ! मेरी गरदन क्‍यों नहीं काट लेते !’

बार-बार उसका चेहरा आंखों में उतर रहा है- आंसुओं से लथपथ । डरा हुआ-सा । जल्‍दी उठकर पढ़ने में लगा है । अलार्म लगाकर सोया था । सुबह के भुकभुके में बरामदे से बंटी की आवाज आई, ‘पापा ! देखो चांद ।’

पापा अभी भी उसकी परीक्षा के बारे में सोच रहे थे उठकर उसके पास पहुंचे ।

‘इधर देखो, इधर पापा ! कितना बड़ा है । पेड़ों के बीच । सीनरी ऐसी ही होती है । मैं भी बनाऊंगा ऐसी । एग्‍जाम के बाद ।’

कोई नहीं कह सकता कि रात को बंटी की पिटाई हुई है और आज उसकी परीक्षा है ।

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Prempal Sharma

प्रेमपाल शर्मा

जन्म:
15 अक्टूबर 1956, बुलन्द शहर (गॉंव-दीघी) उत्तर प्रदेश

रचनाएँ:
कहानी संग्रह (4)
लेख संग्रह (7)
शिक्षा (6)
उपन्यास (1)
कविता (1)
व्यंग्य (1)
अनुवाद (1)


पुरस्कार/सम्मान :
इफको सम्मान, हिन्दी अकादमी पुरस्कार (2005), इंदिरा गांधी राजभाषा पुरस्कार (2015)

संपर्क:
96 , कला कला विहार अपार्टमेंट्स, मयूर विहार फेस -I, दिल्ली 110091

दूरभाष:
011 -22744596
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