पिछले दो दशक में हिन्दी परिदृश्य में कथा साहित्य के मुकाबले गद्य की दूसरी विधाएं ज्यादा रूचि और आनंद के साथ पढ़ी जा रही हैं। किसी वक्त इंडिया टुडे, जनसत्ता के दीपावली, नववर्ष साहित्य विशाशंको की पूरे वर्ष चर्चा रहती थी और तैयारी भी इतनी लंबी। अब सब भूल चुके हैं .इसकी जगह ली है ससमरण, साक्षात्कार ,यात्रा या दूसरी अन्तर्विधाओं ने । सुधीर चंद्र का गद्य कुछ इन्हीं लोकप्रिय विधाओं में जगह पाता है। कुछ इतिहास, कुछ समाज, कुछ संस्मरण ,कुछ राजनीति और शेष अपनी मर्जी। रामचंद्र गुहा, राजमोहन गांधी, गुरूदयाल सिंह, कृष्ण कुमार, स्व. रासिद, विक्रमसिंह, प्रभाष जोशी जैसे दर्जनों लेखकों के कालम, लेखों का इंतजार आज भी पाठक करते हैं।
खुशी की बात हे कि जहां अधकचरी अंग्रेजी का साम्राज्य बढ़ रहा है ओर उसकी आंधी में हिन्दी लेखक सिर्फ आंख मिच-मिचा कर हरकतें कर रहा है, सुधीर चंद्र एक यकीन के साथ अपने मन की बात, विचार के लिए अपनी भाषा की तरफ लौटे हैं। सच्चा लेखन होता ही उसी भाषा में है जो जन्म से आपके जीन के साथ प्राकृतिक रूप से जुड़ चुकी होती है। आनुवांशिकी के पिता कहे जाने वाले ग्रिगोर मेंडल की शब्दावली में कहा जाए तो अपनी भाषा के ये जीन/गुण अंग्रेजी के प्रभुत्व में कुछ दिन सुस्त, चुप तो रह सकते हैं, लेकिन कब उभर आयें और उभरेंगे ही, यह सनातन सत्य है। सुधीर चंद्र ने अपनी एक और मशहूर किताब ‘गांधी; एक असंभव संभावना ‘के लोकापर्ण पर अंग्रेजियत के किले इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में यह बात सरेआम स्वीकारी भी थी कि पूरी उम्र एक रटी अंग्रेजी में लिखता, पढ़ता, पढ़ाता रहा हूं लेकिन लिखने का सहज आनंद मुझे अपनी भाषा हिन्दी में ही आता है। अपनी भाषाओं के लेखकों को ऐसे अनुभव ,साफगोई एक बड़ी ताकत देते हैं। वस एक ही नुक्स और कायरता झांकती है ऐेसे वक्तव्यों के बीच और वह यह है कि इसी इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में हिन्दी की मुश्किल से कोई किताब होगी। और यहीं पर मेहमान के रूप में ठहरे कवि नरेश सक्सैना ने बताया था कि उन्हें रजिस्टर में हिन्दी में हस्ताक्षर करने के लिए मना कर दिया था। लेकिन क्या इसके खिलाफ वे दर्जनों दारू. दावत उड़ाने वाले हिन्दी के कवि, लेखक सार्वजनिक रूप से बोले? क्या हिन्दी के इतने बड़े अड्डे में भारतीय भाषाओं का हासिये पर भी न होना कम सांविधनिक उल्लंघन है? यहां किसी मानवाधिकार को चोट नहीं पहुंचती? समझौते राजनीनिज्ञ हीं नहीं करते बुद्धिजीवी उससे सौ गुना ज्यादा करते हैं। अपनी लाज और आंच दोनों को बचाते हुए। यही कारण है कि पिछले कुछ दशकों में शायद ही हिन्दी के किसी बुद्धिजीवी को वैसी सार्वजनिक स्वीकृति मिली है जैसी अनंत कृष्ण मूर्ति, महास्वेता देवी, तस्लीमा नसरीन, विजय तेडुलकर ,गिरीश कर्नड और हॉल में हत्या की शिकार लंकेश गौरी जैसे दर्जनों गैर हिन्दी लेखकों को । यहां हिन्दी का लेखक एक कायरता के प्रतीक रूप में उभरता है। दयनीय, दीन , परस्कारों, फैलोशिप की आकांक्षा में दरवाजे खटखटाता ।
देश, दुनिया, समाज राजनीति की इन्हीं पगडंडियों पर चलते ,समझते -समझाते लेख हैं सुधीर चंद्र की इस पुस्तक में .ज्यादातर जनसत्ता अखवार में प्रकाशित। इसलिए मेरे जैसे कई पाठकों को फिर से पढ़ने के लिए आमंत्रित करते। मुझे कई लेखों की आज भी याद हे और अच्छी बात यह कि वे सभी यहां हैं। 2013 में आप पार्टी की जीत पर उनका लेख ‘आप का भविष्य’ गौर करने लायक है। ‘विचार के स्तर पर ‘आप ‘देश की राजनीति में एक क्रांति से कम नहीं है। क्या है आपकी क्रांति? विचारों का अमलीकरण आसान नहीं होता। अपने आदेशों, दावों पर खरी उतरें न उतरें, 66 साल से चल रही और उत्तरेत्तर घिनौनी होती गई राजनैतिक व्यवस्था में एक बड़ी सेंध तो लग गयी । उस राजनीति में जो 1947 से शुरू हुई और गांधी के सत्ता की वू और डर की चेतावनी के बावजूद विकराल होती गयी। बड़े विकल्प सोचे गए, तरह तरह के आन्दोलन आये पर राजनीति विकल्पहीन रही’ (पृष्ठ 109)। सुधीर चंद्र का यह लेख उन दिनों भी खरा और अच्छा लगा था और आप की राजनीति, सत्ता में रहने के दो साल बाद भी। अन्ना या आप की वयार के उन दिनों में भी अधिकांश बुद्धिजीवी इस आंदोलन को न केवल संदेह बल्कि नफरत से देख रहे थे। वे भी जो मंडल के दिनों में सड़को पर उतरे सैलाव को ‘स्टेटसकुओइस्त की गालियों से नवाजकर शांति पा लेते थे। आश्चर्य की बात थी कि इन छ: -सात दशकों के शासन पर वे ‘हाय हाय’ भी करते हैं लेकिन विकल्प की अन्ना या केजरीवाल की आंधी पर’ नाय…..नाय ‘भी। जनता सरकार के डर को दिखाते हुए। डर सुधीरचंद्र के मन में भी है इस लेख को लिखते हुए लेकिन उम्मीदों का आकाश तो खुला ही रहना चाहिए।
गांधी की चेतावनी के डर के बावजूद भी हम उस बईमान, वंशवादी कांग्रेस को ढोते रहे और प्रशंसा में ढोल भी बजाते रहे। जिस ‘विचार’ की बात सुधीर चंद्र आम आदमी पार्टी के साथ जोड़ रहे हैं, हमारे बुद्धिजीवी, पत्रकार उसी की ‘अनुपस्थिति’ , उनके ‘आप’ से नफरत का कारण भी रही और आज भी है। सबक यह कि यदि देश, समाज को बदलना हे तो नवोन्मेष, नयी पद्धति, नए विचार, खोज को खुलेमन से स्वीकारने की जरूरत है। सुधीर चंद्र जैसे चंद लेखकों में ही वह हिम्मत है वही हिम्मत उन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय में ए के रामानुजन के ‘हंड्रेड रामायानास ‘पर प्रतिबन्ध के खिलाफ खड़ा होने को उकसाती है। उनका कहना सही है ऐसे लेख को बाहर निकाल कर दिल्ली विश्वविद्यालय सोचने समझने, विचारने, विश्लेषण, बहस करने के प्रति विद्यार्थीयों की आंखें मुंदा रहा है। (अज्ञान-दान-पृष्ठ 118) कम ही लोगों को यह बात पता होगी कि दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया के प्रोफेसर मुशीरूल हसन को जामिया के विद्यार्थीयों ने इसलिए पीट दिया था कि उन्होंने सेटेविक वर्सेज की निदा करते हुए भी इस पुस्तक पर पाबंदी लगाने को ठीक नहीं माना था। सुधीर असहिष्णुता की बातों के सिलसिले में कालवुरगी समेत इन सब बातों को याद करते हैं और ऐसी हिंशा का विरोध भी .हम केवल स्कूल, विश्वविद्यालयों में विज्ञान की प्रयोगशालाओं में ही किसी प्रयोग/एक्सपैरिमेंट से नहीं बचते रहे, जिस राजनीति को ओढ़ते-विछाते हैं उसमें भी रतीभर प्रयोग से डरते हैं। ‘आप’ के उदाहरण ने यह सिद्ध किया और यही रवैया हमारे खूंटीवादी चितेकों का मोदी सरकार के प्रति है।
सुधीर जैसे वेवाक लेखक का एक और टुकडा़ मुझे याद आ रहा हे जो उन्होंने जनसत्ता के पृष्ठों पर ही लिखा था तत्कालीन केबिनेट मंत्री अर्जुन सिंह के कृत्य पर। मंत्री ने अपने कार्यकाल में ही जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी में किसी भवन, सड़क का नामकरण भी अपने नाम पर किया था और उदघाटन भी। उस लेख में सुधीर चंद्र ने अपने मित्र मुशीरूल हसन को ,जो संभवत: तब वहां वाइस चांसलर थे, उनको लताड़ा भी था। क्या कोई वता सकता है अर्जुन सिंह के इस कारनामें के खिलाफ कोई शब्द, लेख कहीं छपे हो ? कांग्रेस की दरवारी संस्कृति ने ऐसा सिखाया ही नहीं। लेकिन वह लेख सुधीर चंद्र अपनी किसी किताब में क्यों शामिल नहीं करते? सिर्फ चूक या कुछ कुछ डर? पुराने अहसानों या कृतज्ञता का बोझ? गांधी के जीवन से सीखें तो सबसे बाद की बात, विचार, अंतिम मानी जाएगी, पुरानी नहीं। आपने जो तब सोचा उसे आने दीजिए जनता के सामने-डर काहे का प्रोफेसर !
गांधी सुधीर च्रंद्र की शिराओं में रहते हैं इसलिए जरा सी गाँधी के सन्दर्भ में खटकन हुई नहीं कि उनकी टिप्पणी हाज़िर .उत्तर प्रदश की तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने गाँधी को नाटकबाज़ कहा तो टी वी चैनलों ने शोर मचा दिया । लेखक का कहना सही हे कि शोरबाज़ी भी तो क्या नाटक करना नहीं है? आंबेडकर , गांधी पैक्ट को याद करते हुए लेखक ठीक कहते हैं कि गांधी ने हिन्दु समाज की एकता को बनाए रखने के लिए अपने जीवन को झोंक दिया। वह कहते-कहते मर गए कि अश्पृष्यता का अंत तब होगा जब वह संवर्णों के दिलों से निकाल जाये। क्या हुआ उसका ? (पृष्ठ 164)। एक और लेख ‘गांधी और हमारी सामूहिक प्रवंचना ‘ भी हमारे मौजूदा समय को गांधी के आइने में दिखाता है। हिन्द स्वराज ,आमरण अनसन जैसे लेख भी इन्हीं पहलुओं की छानवीन है।
सुधीर हर समय बौद्धिकता के ही कोट , पेंट टाई से नहीं लदे रहते। हल्के फुल्के प्रसंग के बहा ने उस कौने पर चोट कर जाते हैं जिसे बचपन में हमें सिखाया जाता है कि तोते की जान कहां होती हैं’ सुअर को उसकी बगल में, हाथी की सूंड में…..उतरन लेख में पुराने कथनों की बात करते करते वे विश्वविद्यालयों में चोरी के लेख, शोध पर उंगली रखते हैं। अच्छा होता यह लेख कुछ बड़ा होता। हमारे लोकतंत्र, संसद को तो माफ कर दें, लेकिन दिल्ली जैसे कई विश्वविद्यालयों में शोध के नाम पर जो सरेआम कॉपी ,पेस्ट हो रहा है उसको क्या कहें? क्या संस्थान ऐसे बनाए जाते हैं ?जिसे नेहरू के गुण गाते गाते युवा लेखक बूढ़े हो गए क्या उनका सपना ऐसे संस्थान बनाने का था ? गलती कहा हुई या हो रही है? इसी का अंजाम है कि आजादी से पहले के शोधों ने दुनिया का ध्यान ज्यादा खींचा- सी.वी.रमन, जगदीश च्रद बोस, रामाचन्द्रन, मेघनाथ साहा-बजाए कि आजादी के बाद के. इस बौद्धिक ‘उतरन’ पर तो सुधीर चंद्र को पूरी किताब लिखनी चाहिए। अन्य लेख जिंदगी की रफ्तार, दरसल एक निजी लेखा जोखा वहीं के वहीं में भी रोचक पठनीयता है। नई जानकारियां भी।
सुधीर के मित्रों और रूचियों की रेंज की मिसाल है इस पुस्तक के पहले खंड में शामिल पंडित भीमसेन जोशी और भूपेन खन्कर पर लिखे लंबे संस्मरण,. संगीत की दुनिया के साथ-साथ पारिवारिक संस्कार, बदलती संस्कृति पर टिप्पणी जड़ते हुए। सुधीर वड़ौदा में भी काफी समय रहे और भूपेन खककर भी वहीं थे। मुलाकातों का सिलसिला कला और अन्तरगता की कई परतों को खोलता है। ऐसे लेखों की हिन्दी साहित्या में बहुत कमी है।
अंतिम बात सुधीर चंद्र के लेखन की कि इनका गद्य कई कथाकारों उपन्यास से ज्यादा पारदर्शी, कथारस लिये होता है। कहने की अनूठी सहज ,शैली। वाक्यों के बने बनाये सांचे से बिल्कुल अलग। उन कथाकारों को सीखने की जरूरत है जिनकी गंभीरता, कथा में पठनीयता की सबसे दुश्मन है और यही कारण है कविता के बाद अब कथा से भी हिन्दी पाठकों की दूरी। लेकिन इस पुस्तक की कीमत इतनी ज्यादा है कि पाठकों तक मुश्किल से पहुंचेगी।
05.09.2017
पुस्तक: बुरा वक्त: अच्छे लोग
लेखक : सुधीर चंद्र
राजकमल प्रकाशन। मूल्य 399/- पृष्ठ 167
ISB No. 978-81-267-29944
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