हाल की सिर्फ दो खबरों से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि क्यों दुनिया भर में हमारे शिक्षा संस्थान फिसड्डी होते जा रहे हैं और क्यों अंधविश्वास, कूपमडूकता और दैवीय चमत्कारों की बाढ़ आ रही है। एक खवर यह है कि मध्य प्रदेश में अब ज्योतिष, वास्तु और पुरोहितों की शिक्षा शुरू होने वाली है। एक वर्ष का डिप्लोमा कोर्स होगा और इसकी फीस होगी बीस हजार। इसे भोपाल का एक योग संस्थान चलाएगा। ज्योतिष के अध्ययन में हस्तरेखा और मुख-मुद्रा देखकर भविष्य बताने के पाठ भी शामिल होंगे। दूसरी खवर भी पहली की तरह ही कोई ज्यादा चोंकाने वाली नहीं है। दिल्ली के सरकारी स्कूलों में केवल आठ फीसदी बच्चे ही विज्ञान पढ़ पाते हैं। कारण –न संसाधन, न लैव और न शिक्षक। पिछले कई वर्षों से यह शिकायत मिल रही है विशेषकर बाहरी दिल्ली के ग्रामीण स्कूलों में कि वहां विज्ञान पढ़ने की सुविधा है ही नहीं . इसका सबसे ज्यादा नुक्सान लड़कियों की विज्ञान शिक्षा पर हो रहा है।मेधावी लडकियों की मर्ज़ी के बावजूद मां-बाप उन्हें दूर नहीं भेजना चाहते।
संसाधनों का रोना तो कुछ समझ आता है लेकिन इक्कीसवीं सदी में ज्योतिष, वास्तु की शिक्षा ? क्या दुनिया भर में कही शिक्षा में ऐसे विषय शामिल हो सकते हैं? क्या शिक्षा का अर्थ ही एक तर्कसंगत, निडर, निष्पक्ष नागरिक बनाना नहीं है? क्या ऐसी शिक्षा के बूते हमारे नागरिक और शिक्षा संस्थान दुनिया के ज्ञान में कभी कोई योगदान देने में समर्थ हो सकते हैं? आप अंदाजा नहीं लगा सकते कि ज्योतिष वास्तु में यकीन करने वाले देश के कितने बड़े दुश्मन हैं? सिर्फ केन्द्र सरकार की ही बात की जाए और उसमें भी सिर्फ बड़े अधिकारियों की जिन्हें गुमान है कि उन्हें संघ लोक सेवा आयोग ने लाखों की भीड़ में से चुना है उनके वास्तु में यकीन से करोड़ों रूपयों के संसाधन बरबाद किए जा रहे हैं। कैसे ? जैसे ही किसी अधिकारी की प्रोन्नति होती है, काम को जानने से पहले वह अपने चैम्बर का मुआयना करता है। सूर्य ,चन्द्र की दिशा किधर है और सबसे नजदीकी मंदिर, मस्जिद, चर्च किधर ?खिड़की की दिशा क्या है और मेज में कौने कितने। फर्श, अल्मारी और पंखों के रंग भी उनका पुरोहित आकर बताता है। कई बार तो यह भी कि संसद के सबसे नजदीक इस भवन के नीचे शमशान की सम्भावना है इसीलिए इतनी दुर्घटनाएं हो रही हैं .और रातों रात लाखों खर्च करके कमरे की सूरत और हुलिया बदल दी जाती है। कभी कभी तो वर्ष में दो चार बार। पूरा तंत्र इसमें साथ देता है अपने अपने कमीशन के हिसाब से । कभी कोई ऑडिट नहीं कि जो मेंजें चार सौ साल तक चल सकती हैं उन्हें कबाड़ में क्यों डाला गया ? क्यों इसका खर्च अफसर से नहीं लिया गया.? केवल अधिकारी ही नहीं मंत्रियों तक वास्तु, ज्योतिषीयों के शिकंजे में है। करीब दस वर्ष पहले जैसे ही मंत्रीमंडल के फेरबदल की खबर आयी कई पंडित, पुरोहित उस भवन में विराजमान थे। हवन पूजा होने लगी। एक और मंत्री ने तीन दिन बाद कार्य शुरू किया क्योंकि महूर्त शुभ नहीं था। एक मंत्री ड्राईवर ने बताया कि उसे आदेश है कि आवास से दफ्तर तक पहुंचते वक्त कार कभी वायें नहीं मुड़नी चाहिए। बांये हाथ से डर था या वाम दलों से ? दुर्भाग्य जनता बार बार दुर्घटनाओं में जान देती रही। सर्वे कराया जाए तो हर दल की केन्द्र सरकार में ऐसे कूपमंडूकों की अच्छी खासी संख्या रही है।इसीलिए ये जनता को ऐसे विषय पढ़ाना चाहते हैं .मुर्ख बनाये रखने की साजिश !
हाल ही में दिवंगत की एक वैज्ञानिक पी ऍम भार्गव और प्रोफेसर यशपाल पूरी उम्र ज्योतिष और वास्तु के खिलाफ लड़ते रहे .वैज्ञानिक .ने एक गोष्ठी में बड़ी मजेदार बात कहीं। उन्होंने राह चलते लोगों से पूछा था कि यदि घर से निकलते ही बिल्ली रास्ता काट जाए तो आप क्या करेंगे। वहां मजदूर, गरीबों ने कहा कि कुत्ता ,बिल्ली तो रोज गुजरते ही हैं, हमें काम पर पहुंचना है, हम देखते भी नहीं हैं, वही कार वाले, पढ़े-लिखे व्यक्ति सशंकित और डरे नजर आये। इतिहास और दूसरी संभावनाओं से हमने क्या सीखा ? जहां अंधविश्वास जीव विज्ञान के खिलाफ शुरू की गयी जंग के बूते कोपरनिक्स, गैलीलियो से होते हुए यूरोपीय सभ्यता अपनी तर्क शक्ति से यहां तक पहुंची है, हम अपनी पीढि़यों को उतना ही पीछे ले जा रहे हैं। प्रसिद्ध वैज्ञानिक जयंत नर्लोकर ने अपनी कई शोधों में यह सिद्ध किया है कि इतना अंधविश्वास तो ज्योतिष जैसी ठग विद्याओं में पचास वर्ष पहले भी नहीं था। मौजूदा भारत में तो यह कुशिक्षा फिर से जड़ जमाने पर आमादा है। दुर्भाग्य से साधु सपेरों के रूप में बदनाम भारत फिर उसकी गिरफ्त में आ रहा है। अखवार भरे रहते हैं ऐसे ज्योतिषी, तांत्रिक बाबाओं के कारनामों से। बच्चों की हत्याएं, महिलाओं का शोषण और गरीब को बरगलाना ऐसी ही शिक्षा के कुपरिणाम है।वर्ष १९५७ में रूस के स्पुतनिक की सफलता ने अमेरिका को हिला दिया था.तुरंत अमेरिका में बहस छिड़ी और विज्ञानं के पाठ्यक्रम बदले गए .नतीजा सामने है .सभी राष्ट्र ऐसा ही कर रहे है .क्या ज्योतिष ,वास्तु सबद के पीछे विज्ञानं लगा देने भर से ये विज्ञान बन जायेंगे ?मुर्ख ,कुतर्की इनके हिमायती ऐसा ही मानते है .विज्ञानं प्रमाण मांगता है और इनके पास न कोई सर्वे है न प्रमाण .शिक्षा के लिए यह बहुत प्रतिगामी कदम होगा .
गलती हर स्तर पर हो रही है। नेहरू, अम्बेडकर, पटेल की अगुवाई में लागू भारतीय संविधान में वैज्ञानिक सोच और शिक्षा की पुरजोर बकालत करता है लेकिन अफसोस जमीन पर यह सपना कभी नहीं उतरा। लोकतंत्र में वोट बैंक की वजह हो या सत्ता की अवसरवादिता अथवा हजारों साल से समाज में जड़ जमाये मुर्खताओं की बेलें। प्राथमिक स्तर से ही हमारी शिक्षा में ऐसे अंधविश्वासों से बचा जाता, उनसे कुछ कठोरता से आगाह किया जाता तो देश की तस्वीर कुछ और होती। चार वर्ष पहले पूना के डाक्टर नरेन्द्र दाभोलकर को इन्हीं कुरीतियों के खिलाफ लड़ते अपनी जान गंवानी पड़ी। लेकिन दाभोलकर की कोशिश कुछ तो रंग लायी है। उनकी हत्या के बाद महाराष्ट्र सरकार ने काला जादू, अंधविश्वास के खिलाफ कानून बनाया और उसके अंतर्गत अभी तक सैंकड़ों लोगों को सजा मिल चुकी है। तीन महीने पहले कर्नाटक सरकार ने भी कई बर्ष की जद्दोजहद के बाद ऐसा ही अंधविश्वास विरोधी कानून बना दिया है। लेकिन उत्तर भारत जहां यह कूपमंडूकता, धर्मांधता ज्यादा भयानक है वहां ऐसे किसी कानून की कोई सुगबुगाहट भी नहीं है। क्या हम हर वर्ष अगस्त महीने में सिर्फ डाभोलकर को श्रद्धांजलि ही देते रहेंगे या वास्तु, ज्योतिष, पुरोहितों जैसी शिक्षा के खिलाफ सड़कों पर भी उतरेंगे ?
गलती सरकार ने भी विगत में कम नही की है। बजाए प्राथमिक और पूरी स्कूली शिक्षा को अपने हाथों में लेके और समान, वैज्ञानिक पाठयक्रम पढ़ाने के उसने मदरसों, सरस्वती शिशु मंदिरों और सभी तरह के धार्मिक प्रतिष्ठानों को मनमर्जी पढ़ाने की आज़ादी दी है। अब वही जिन्न् इतना बड़ा और भयानक हो गया है कि काबू से बाहर होकर देश की तस्वीर बिगाड़ने पर आमादा है। अच्छी खबर यह है कि पन्द्रह दिसंबर से शुरू होने वाले फर्जी शिक्षा के इन पाठयक्रमों के प्रति कोई उत्साह नहीं है। दिल्ली सरकार को भी चाहिए कि हर सरकारी स्कूल में विज्ञान विषय के प्रति बच्चों को आकर्षित करे और विज्ञान पढ़ाना सुनिश्चित करे। वैसे तो दिल्ली सरकार को भी काला जादू के खिलाफ महाराष्ट्र सरकार से सीखते हुए कानून तुरंत बनाना चाहिए।
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