दो बजते ही स्कूल से छूटे बच्चों की चहचहाहट से मन ऐसे प्रसन्न हो उठता है जेसै शाम को घर लौटती चिडि़याओं का चहकते हुए, शोर करते झुंड को देखना। दोनों ही खुद भी खिलखिलाते हैं और दुनिया को भी। मैं बात कर रहा हूं घर के एकदम वगल में सरकारी स्कूल की। चिल्ला गांव का स्कूल। लगभग तीन हजार बच्चे पॉश कॉलोनियों के बीचों बीच। लेकिन इसमें इन सोसाइटियों का एक भी बच्चा पढ़ने नहीं जाता। बीस वर्ष के इतिहास को भी टटोलें तो भी नहीं। प्राचार्य ने खुद बताया था। ‘बीस-तीस हजार की आबादी वाली सोसाइटियों का एक भी बच्चा, कभी भी इस सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ा।‘ असमानता के ऐेसे द्धीप हर शहर में बढ़ रहे हैं उनके लिए अलग स्कूल हैं ए.एस.एन, मदर मैरी, अमिटी……कंगारू किडस/ एलकॉन के दो-एक नेशनल दूसरा इंटरनेशनल। एलकॉन यानि आहलूवालिया कंस्ट्रक्शन कंपनी नाम के बिल्डर के। ये सभी निजी स्कूल ऐसे ही मालिकों के हैं। पुराने धंधों की बदौलत एक नया धंधा स्कूल का जो अब पुराने सारे धंधों से ज्यादा चमकार लिए हैं।
खैर मेरे अंदर सरकारी स्कूल से छूटे बच्चों की खिलखिलाहट हिलोरे ले रही है। पूरी सड़क भरी हुई। बच्चे बच्चियों दोनों। पैदल चलता अदभुत रेला। कुछ बस स्टैंड की तरफ बढ़ रहें हैं, तो कुछ चिल्ला गांव की तरफ। जब से मैट्रो आई है पास के अशोक नगर, नौएडा तक के बच्चे इस सरकारी स्कूल में लगातार बढ़ रहे हैं। जमुना के खादर में वसे यू.पी, बिहार के मजदूरों का एक मात्र सहारा भी है यह सरकारी स्कूल। जिस स्कूल को कला विहार, लवली, परवाना के पॉश वाशिंदे, गंदा, बेकार मानते हैं, चिल्ला गांव खादर के बच्चों के लिए इस स्कूल का प्रांगण स्वर्ग से कम नहीं है। केवल स्कूल ही तो हैं जहां वे खेल पाते हैं। चीजों की कीमत वे जानते हैं जिन्हें मिली न हो। भूख हो या नींद या जीवन की दूसरी सुविधाएं। अभाव ही सौन्दर्य भरता है।
कभी कभी इन हजारों बच्चों की खिलखिलाहट को नजदीक से सुनने का मन करता है। सरकारी स्कूल के न गेट पर एक भी कार, न स्कूटर। न स्कूली वस। और तो और नन्हें मुन्ने बच्चों तक को लेने आने वाले भी नहीं। कौन आयेगा? मां किसी अमीर के घर काम कर रही होगी और पिता कहीं मजदूरी कर रहे होंगे। इन्हें उम्मीद भी नहीं। इन के पैरों ने चलना खुद सीखा है। अभी भी और आगे भी। इसके वरक्स एक निजी स्कूल है तीन सौ मीटर के फासले पर ही जिसे उसके अंग्रेजी नाम ए.एस.एन. से ही सभी जानते हैं। आदर्श शिक्षा निकेतन के नाम से नहीं। स्कूल प्रबंधन भी नहीं चाहता हिन्दी नाम से पहचाने जाना। हिन्दी नाम से स्कूल का शेयर भाव नीचे आ जाएगा। फिर धंधा कैसे चमकेगा? बड़ी बड़ी फीस, किताबों, ड्रेस, स्कूल बस से अलग पैसे और फिर रुतवा। इसी रुतवे का खामियाजा पड़ौस की सार्वजनिक सड़क को भुगतना पड़ता है। सुबह स्कूल खुलते और बंद होते दोनों वक्त ए.एस.एन. की विशाल पीली पीली वसें आड़ी तिरछी प्रवेश करती लौटती, गुर्राती, कंडक्टर के हाथों से पिटती-थपती जो कोहराम मचाती हैं उससे डरकर यहां के पॉश वासिंदे अपने अपने ड्राइंगरूम में और दुबककर बैठ जाते हैं। कारण या तो उनके बच्चों पर इस स्कूल ने उपकार किया है अथवा निकट भविष्य में उन्हें दाखिले के लिए भीख मांगनी पड़ सकती है। इन अपार्टमेंन्टस में राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय खयाति के पत्रकार, बुद्धिजीवी, लेखक, फिल्मकार हैं जो अपने स्वार्थ के किसी भी सरकारी नियम का उल्लंघन, होने या संभावना पर भी ईंट से ईंट बजा देंगे, मामले को मानवाधिकारों का उल्लंघन कहते, डकारते हुए यू.एन तक भी जा सकते हैं, लेकिन इन स्कूलों की फीस, शोर, शोषण के खिलाफ कभी मुंह नहीं खोल सकते। वे आज़ादी चाहते हैं लेकिन अपने कर्मों के लिए। न केवल पड़ौस की सड़कों, फुटपाथ इन अंग्रेजी स्कूलों के कहर से तृस्त हैं, किनारे बैठे सब्जी ठेले वालों को भी स्कूल में होने वाले सत्संग के दिन भगा दिया जाता है। कोई है पूछने वाला कि स्कूल मदरसों में सत्संग, कीर्तन का क्या काम?
जहां सरकारी स्कूल के गेट पर एक भी कार, स्कूटर नहीं था इन निजी स्कूलों के गेट पर सैंकडों कारें लगी हैं। एक से एक बड़े मॉडल। यहां बच्चे कम कारें ज्यादा दिख रही हैं। इसीलिए बच्चों की चहचहाट के बजाये कार के हार्न की आवाजें। दो बजे से पहले ही इनके अभिभावक अपनी बड़ी बड़ी कारें ए.सी. चालू कर के ऐसे सटा कर लगाते हैं कि उनके चुन्नू मुन्नू और वयस्क बच्चे भी स्कूल के दरवाजे से निकलते ही उसमें आ कूदें। इन कार और बसों ने थोड़ी देर के लिए पूरी सड़क रोक दी है। केवल यहां नहीं पूरे शहर में। एक एक बच्चे को कभी कभी लेने वाले दो दो। बावजूद इसके इन मोटे मोटे बच्चों के चेहरों पर उदासी, थकान क्यों पसरी हुई है? सरकारी स्कूल के बच्चे इन्हीं कारों के बीच बचबचाकर रास्ता तलाशते गुजर रहे हैं और मुस्करा भी रहे हैं। बाकई सड़क भी अमीरों की, स्कूल भी और देश भी। गरीबों का तो वस संविधान है जिसकी प्रस्तावना में समाजवाद, समानता जैसे कुछ शब्द लिखे हुए हैं। पता नहीं यह सपना कब पूरा होगा?