टीना डाबी:सिविल सेवा परीक्षा 2015 की टॉपर। पूरे देश ने खुशी मनाई। पिछले कुछ बर्षो के परिणामों को याद करें तो इस बार कुछ अतिरिक्त कवरेज मिली। टीना डाबी को भी और दूसरे स्थान पर रहं कश्मीर के अनंत नाग के अतहर अमिर को भी। दोनों को अलग अलग कारणों से। पिछले वर्ष प्रथम आयी इरा सिंघल पर भी देश को फख्र हुआ था। क्योंकि वे विकलांग थीं। पिछले वर्ष पहले पांच स्थानों में चार लड़कियों को मिले थे. 10, 12वीं से लेकर देश की ज्यादातर परीक्षाओं में लड़कियों का बेहतर प्रदर्शन यह बताता है कि भारतीय समाज इस जकडन पूर्वाग्रह के बावजूद कुछ कुछ बदल रहा है।
टीना की सफलता के तो यही निहितार्थ है। प्रथम प्रयास . मात्र ग्रेजुएट. उम्र केवल 22 वर्ष। जैसे ही सिविल सेवा परीक्षा में बैठने लाइक हुई, फर्राटे से पहले स्थान पर। संघ लोक सेवा आयोग से प्राप्त मार्कशीट के अनुसार दूसरे स्थान से काफी ऊपर है टीना। और यह सब कुछ इतना सहज लगा- टीना और उनकी मां दोनों की ही भाव भगीमा से। सिर्फ इरादा था सिविल सेवा में बैठने का ग्यारहवीं कक्षा से ही। शेष नियमित पढ़ाई। बाकी जिंदगी भी उतनी ही सहज-खेलना, नॉवेल पढ़ना, शॉपिंग। यानि बड़े लक्ष्य पाने के लिए बहुत सहज-साधारण जीवन भी पर्याप्त है। ।
लेकिन टीना की सफलता पूरे देश को कई दिशा दिखा सकती है। सबसे पहले एक लड़की वह सब कुछ कर सकती है बल्कि लड़को से बेहतर। इसलिए जो लोग, विशेषकर हिन्दी पट्टी में पुत्र रत्न की दौड़ में लड़कियों के जन्म को अभिशाप मानते हैं, उनका सिर शर्म से झुक जाना चाहिए। सोने में सुगंध टीना के इस चयन से भी आयी कि उन्होंने हरियाणा को अपना कैडर,रुनक्षेत्र चुना है और वह इसलिए कि हरियाणा जैसे राज्यों में जेंडर-लड़के लड़की में भेदभाव,पूर्वाग्रह सबसे ज्यादा है। क्रूरता की हद तक। पैदा होने तक की आज़ादी नहीं। फिर उनके कपड़े, पढ़ने और सामाजिक हिस्सेदारी पर भी उतने ही प्रतिबंध। नतीजा समृद्धि के बावजूद भी लिंग अनुपात सबसे खराब। ऊपर से पुरूष दभ , भारतीय संस्कृति ,जातीय पूर्वग्रहों में फली-फूली खाप पंचायतें। पड़ौस के राज्य पंजाब, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और राजस्थान की भी मोटा मोटी यही स्थिति है। उम्मीद है ये सभी राज्य और इनके नागरिक टीना की सफलता से कुछ सबक सीखेंगे। टीना जैसे नौजवान अफसरों के लिए भी यह चुनौती है कि सेवा में आने के बाद वे कैसे अपने इरादों को पूरा कर पाते हैं।
महात्मा गांधी ने कहा था कि स्त्री शिक्षा का और भी महत्व है। क्योंकि उसका असर कई परिवारों और पीडि़यों पर होता है। टीना के उदाहरण से भी यह स्पष्ट है। मां पढ़ी लिखी इंजीनियर हैं और मराठी हैं। बेटियों की बेहतर देखभाल और पढ़ाई के लिए उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली थी। इसीलिएबेटी ने बार बार अपनी सफलता का श्रेय माँ को दिया कितने महत्वपूर्ण हैं मां के संस्कार वरना हिन्दी पट्टी की सामान्य मां पहले तो बेटियां होने का ही उम्र भर जब-तव शोक मनाती रहती और क्या वे ऐेसा सपना अपनी बेटी को दे पाती कि तुम्हें आईएएस परीक्षा देनी है। यहां मां-बाप के दबाव और दिशा में अंतर समझने की जरूरत है। ग्यारहवीं में टीना ने विज्ञान में पढा़ई शुरू की । मां और बेटी को लगा कि वह सामाजिक विज्ञान, राजनीति शास्त्र, इतिहास में बेहतर कर सकती है तो दो महीने बाद ही विज्ञान छोड़कर हयूमैनिटीस विषय ले लिए। दुनिया भर विशेषकर यूरोप, अमेरिका की शिक्षा व्यवस्था में बिना किसी प्रतिबंध, नियम के मनमर्जी विषय पढ़ने, बदलने की आजादी है। इसी से पूरी सफलता मिली और फिर दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडी श्रीराम कॉलेज में भी राजनीति विज्ञान में टॉप किया। इंजीनियर मां की दिशा और प्रगतिशीलता की दाद देनी पड़ेगी वरना न जाने कितने अभिभावक अपने बच्चों को जबरदस्ती इंजीनियर, डॉक्टर बनाने पर आमादा हैं और इस दबाव में बच्चों की आत्महत्या की खबरें रोज सुनने को मिलती हैं। पूरा देश और अभिभावक टीना के उदाहरण से सीख सकते हैं कि रूचि के विषयों को पढ़ना कितना आनंददायक है और राष्ट्रीय सफलता दिला सकता है। टीना की सफलता इंजीनियरिंग कॉलेज के धंधे पर भी प्रश्न खडा़ करती है। पिछले दो दशक के संघ लोक सेवा आयोग के आंकड़े भी बताते हैं कि अधिकांश सफल अभ्यार्थियों की शिक्षा जरूर इंजीनियर या विज्ञन विषयों में हुई लेकिन सिविल सेवा परीक्षा में उन्होंने अपने मन के विषय सामाजिक विज्ञान-इतिहास, साहित्य, मनोविज्ञान, समाज शास्त्र जैसे ही चुने। सिविल सेवा की गुणवत्ता के लिए यह अच्छा संकेत है।
कश्मीर के अतहर आमिर की सफलता का भी देश ने मन से स्वागत किया है और इससे कश्मीर के नौजवान प्रेरणा ले सकते हैं। तीन वर्ष पहले तो कश्मीर के एक छात्र ने सिविल सेवा में टॉप किया था। अतहर फिलहाल रेलवे की सेवा में है और उनकी शिक्षा हिमाचल के मंडी जिले में हुई है। ऐसे उदाहरण ही कश्मीर के नागरिकों को राष्ट्रीय धारा में शामिल होने और एक भारतीय के रूप में आत्मसात करने में मदद करेंगे। टीना, अतहर, अर्तिका, जसमीत संधू, अमीर अहमद जैसे सैंकड़ों विविध पृष्ठ भूमि के छात्रों की सफलता संघ लोक सेवा आयोग की पूर्ण निष्पक्षता, चयन प्रक्रिया के प्रति भी आश्वस्त करती है कि धर्म, जाति क्षेत्र के पूर्वग्रहों से ऊपर उठकर हमारी संस्थाओं को काम करने की जरूरत है। पहले देश, संस्थान ऐसी पीढियां बनाते हैं और फिर ऐसी पीढि़यां देश का निर्माण करती हैं।
लेकिन परिणाम घोषित होते ही इस बार के परिणाम ने एक अवांच्छित बहस को भी जन्म दिया है। परिणाम घोषित होते ही एक माननीय संसद सदस्य ने टीना की सफलता पर इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि’ एक दलित लड़की ने टॉप किया है।‘ 40-50 वर्ष पहले ऐसा संभव नहीं था।‘ ऐसा आरक्षण की नीतियों के चलते हुआ है आदि इत्यादि।‘ बात सही है लेकिन ऐसी अद्धितीय सफलता पर जाति के आधार पर टिप्पणी बताती है कि जातीय पूर्वाग्रह सवर्ण और दलित दोनों में ही कितने गहरी जड़े जमाये हुए हैं। स्वयं टीना और उसके मां बाप भी कभी इस रूप में इस सफलता को देखना नहीं चाहेंगे। टीना ने कुल 1078 सफल उम्मीदवारों में सर्वोच्च अंक प्राप्त किए हैं केवल दलितों में ही नहीं और इसलिए पूर देश की लड़कियां, उम्मीदवारों के लिए एक मिसाल हैं। टीना ने जाति के प्रश्न पर हिकारत से जबाब ठीक ही दिया कि ‘’ मैं सभी नागरिकों के लिए बिना भेदभाव काम करुंगी।‘’ अच्छा हुआ टीना ने इस पहचान को झटक कर तुरंत दूर कर दिया और जातिवादी बाजों के चुंगल से बाहर आ गयीं।
लेकिन क्या जातिवाद स्वार्थ, गिरोह, राजनीति टीना की पहचान को जाति से मुक्त रहने देगी? हरियाणा जैसे राज्यों में तो यह क्रूरता की हद तक है। आये दिन झज्जर, गोहाना या हाल ही में जाट आरक्षण की हिंसा मध्ययुगीन समाज की याद दिलाती है। अफसोस और दुर्भाग्यपूर्ण वस यही है कि माननीय संसद सदस्य ने दलित होते हुए भी न जाने किस शेखी वधारने में जाति की शिनाखत पहले की, सफलता की बाद में । क्या सवर्णों के ऐसे उल्लेख कि ‘ इनके पिता, दादा संस्कृत के प्रंकाड पंडित थे और ऊंची चोटी के विद्धान ब्राह्मणों में गिनती की जाती थी’ में कोई अंतर है। लोकतंत्र यहीं सबसे आधुनिक विचार है जो बाप-दादों के कंधों के भरोसे नहीं टिका रहता। लोकतंत्र में व्यक्ति की अपनी अस्मिता है, उसके काम गुणों के आधार पर। उसे न वंश की वैशाखी की जरूरत , न जाति, कुल क्षेत्र की। दुर्भाग्य से पिछले साठ सत्तर –सालों के सांचे ने हमारे संसद सदस्य, बुद्धिजीवियों, लेखकों को ऐसा बना दिया है कि वे जाति के सांचे के बिना मनुष्य की पहचान कर ही नहीं सकते। उस पर दावा और दंभ यह कि हम जाति, समुदाय धर्म से ऊपर उठना चाहते हैं। यदि ऊपर उठना चाहते हो तो प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसी मानसिकता से बचना होगा।
इस बात में जरूर दम है कि चालीस-पचास वर्ष पहले ऐसा शायद संभव नहीं था। लेकिन यहां भी आरक्षण से ज्यादा भारतीय समाज में लड़की की उपलब्धि का होना चाहिए। कितनी कम लड़कियां स्कूल जा पाती थी पचास वर्ष पहले? कॉलेज तो और भी कम। वैज्ञानिक तो अज भी दुर्लभ हैं। इसे पूरे लोकतंत्र की उपलब्धि के रूप में देखना चाहिए कि लड़कियां ऐसी सर्वोच्च परीक्षा में बार-बार अब्बल आ रहीं हैं। इस बार पहले बीस में पांच और सौ में 22 लड़कियां हैं। परीक्षा देने वाली संख्या के अनुपात से कहीं ज्यादा. पिछले वर्ष 2014 की सिविल सेवा परीक्षा के प्रथम पांच स्थानों में पहले चार लड़कियों को ही मिले थे। उपलब्धि का यशोगान ये परिणाम हैं। निश्चित रूप से समाज के दलित, वंचित, गरीब तबके को चालीस वर्ष पहले पढ़ने लिखने की ऐसी सुविधाएं नहीं थी। आरक्षण और दूसरी कल्याणकारी योजनाओं ने समाज के इस तबके को आगे बढ़ाने में मदद की है। संभव है टीना के माता-पिता को भी उसका कुछ लाभ मिला हो। लेकिन इस मंजिल तक पंहुचना तो वेशक निजी प्रतिभा, भ्रम का ही उदाहरण माना जाएगा।
अगर जातिवादी जिद्द यही है कि आरक्षण से ही यह संभव हुआ है तो वहस के कुछ नए दरवाजे खुलते हैं और वक्त आ गया है जब उन पर बात होनी चाहिए। कितने दलितों के मां-पिता उच्च सरकारी सेवाओं में है और दिल्ली जैसे महानगरों में पोस्टिड हैं? क्या कोई गरीब मां सरकारी नौकरी छोड़कर बच्चों की शिक्षा में जुट पायेगी? कितने दलित लेडी श्रीराम जैसे संस्थानों में पंहुचते हैं? बहुत कम। इसीलिए देश भर से सामने आ रहे उन सुझावों पर विचार किया जाना चाहिए कि जो दलित, आदिवासी वैसी ही सुविधाओं में पढ़ रहे हैं, उन्हें आरक्षण के लाभ से दूर रखा जाए जिससे कि वह उन्हीं के समुदाय के नीचे के तबकों तक पहुंच सके। संघ लोक सेवा आयोग के ताजा परिणामों को यदि तीस साल पहले से तुलना की जाए तो यह बात और ज्यादा जरूरी लगती है। 2015 के परिणाम और कट ऑफ पर एक नजर:-
अनारक्षित(UR) | अ.पि.वर्ग(OBC) | अनु.जाति(SC) | अनु.ज.जाति(ST) | |
सी सैट | 107 | 106 | 94 | 91 |
मुख्य परीक्षा | 676 | 630 | 622 | 617 |
अंतिम परिणाम | 877 | 814 | 810 | 801 |
कुल चुने गए | 499 | 314 | 176 | 89
(कुल सफल 1078) |
पिछले कुछ वर्षों में सी सैट और मुख्य परीक्षा में किए गए नित नए बदलावों के मद्देनजर इन आंकड़ों को भले ही प्रतिनिधि नहीं माना जाए, लेकिन एक बात तो साफ है कि पिछले कुछ वर्षों में सामान्य उम्मीदवार और आरक्षित वर्ग के कट ऑफ में बहुत कम अंतर बचा है। अस्सी के दशक में जो अंतर दो सौ नम्बरों के आसपास होता था, अब घटकर पचास से लगभग अस्सी तक आ गया है यानि 15-20 प्रतिशत से घटकर 3-4 प्रतिशत तक। यह दलित वर्ग में पढ़ने लिखने के प्रति आयी चेतना और उपलब्धि का स्पष्ट परिणाम है। यानि कि अब उन्हें बहुत थोड़ी सी रियायत चाहिए। तथाकथित सवर्ण नम्बरों के आधार पर उन्हें ज्याद दिन तक निम्न स्तर का भी नहीं मान सकते।
लेकिन यह निष्कर्ष इतने भोले नहीं है। इसे पूरी समग्रता में जांचने की जरूरत है। चार दशक पहले जब ये आरक्षित वर्ग में चुने जाते थे तो ये पहली पीढ़ी के पढ़े लिखे थे। 50-60 प्रतिशत के सफल अथ्यर्थियों के मां-बाप किसान, मजदूर, मोची। गांवों के स्कूलों में मातृभाषा में पढ़े हुए। सिविल सेवा में दरवाजे कोठारी समिति की अनुशंसाओं के तहत वर्ष 1979 (जनता सरकार) में खुले तो सही मानों में इन सेवाओं का जनतंत्रीकरण हुआ। हर वर्ग, जाति क्षेत्र की पूरे देश से हिस्सेदारी बढी़। वर्ष 1979 में पिछले वर्षों की तुलना में दस गुना उम्मीदवार सिविल सेवा परीक्षा में शामिल हुए थे। वर्ष 1988 में और 2000 में क्रमश: प्रो. सतीश चन्द्र और प्रो. अलध कमेटी ने भी अपनी समीक्षा रपट में इस पक्ष की भूरि-भूरि प्रशसा की है। लेकिन दुर्भाग्य से देश की अन्य उच्च सेवाओं इंजीनियरिंग, मेडिकल, वन आदि में मातृभाषाओं में लिखने की छूट आज तक नहीं मिली। वर्ष 2011 में तत्कालीन सरकार ने तो अंग्रेजी और लाद दी थी जिसे नयी सरकार ने हटाया है। अंग्रेजी सी सैट से हटाते पिछले वर्ष भारतीय भाषाओं के माध्यम से सफल उम्मीदवार की संख्या वर्ष 2012 और 2013 की पांच प्रतिशत से बढ़कर दस प्रतिशत को पा कर गई। इस वर्ष के आंकड़ों का अभी इंतजार है।
आइए लौटते हैं इस मुद्दे पर कि कट ऑफ के बीच फासला कम होने के मायने क्या हैं? एक निष्कार्ष तो सीधा यह कि दलित और अन्य वर्ग के उम्मीदवारों की अकादमिक योग्यता, प्रतिभा लगातार प्रगति पर है। टीना डाबी के उदाहरण से तो यह जग जाहिर हो गयी है। लेकिन न भूलने की बात यह है कि इन वर्गों के कुछ लोगों को भी अब वे सब सुविधाएं मिल रही हैं जिनसे येसेकड़ो वर्षो से वंचित थे और इसलिए आरक्षण प्रदान किया गया था।
आयोग की वार्षिक रिपोर्ट बताती है कि अब ये भी अधिकांश अंग्रेजी निजी स्कूलों में पढ़े हैं, परीक्षा का माध्यम अंग्रेजी है, पिछले कई दशकों से नगर, महानगरों में रहते हैं और अभिभावकों की आय भी सवर्णों के लगभग बराबर है। आपृश्यता, सामाजिक भेदभाव गांवों में जरूर जारी है लेकिन इनमें से अधिकांश को वैसा तीखा अनुभव नहीं है। यूं भारतीय मानस, काले गोरे का भेद तो अफ्रीका और अंग्रेजों से भी ज्यादा अपने भाई वहनों तक से करता है। याद कीजिए आजतक टीवी चैनल की ऐंकर जब टॉपर से हिन्दी में प्रश्न कर रही थी तो उनका जबाव अंग्रेजी में था। हारकर ऐंकर को हिन्दी में कहने के लिए कहना पड़ा। फिर भी जबाव ही गलिश में आये। जब कि दूसरे स्थान पर रहे अतहर आमिर हिन्दुस्तानी में बहुत सहज थे। यह नुक्स निकालने की जगह नहीं है। सिर्फ इतना कहना है कि जिन्हें पर्याप्त समान सुविधाएं मिली हुई हैं उन्हें आरक्षण से बाहर रखने की कोई युक्ति खोजी जानी चाहिए जिससे सही मायनों में गरीब, बंचित इव सवेाओं में आ सकें। गरीब वंचितों की भागीदारी तंत्र को ज्यादा मानवीय बनाती है।
काश कभी कोई भारतीय भाषाओँ का उमीदवार भी सिविलसेवा में टॉप कर पता !माननीय संसद सदस्य जाति की बातें करने की बजाय इन पक्षों पर बात करते तो ज्यादा अच्छा रहता .
एक और विचारणीय पक्ष। किसी की भी प्रतिभा का पैमाना सिर्फ इकहरी परीक्षा से संभव नहीं है। इस कसौटी पर कसें तो महात्मा गांधी से लेकर आइंसटाइन, डार्विन, मंटो रामचंद्र शुक्ल कोई भी खरा नहीं उतरता । सिविल सेवा परीक्षा भी इसका अपवाद नहीं है। पिछले 2 वर्ष के उदाहरण। वर्ष 2014 की परीक्षा की टॉपर इरा सिंघल के सी सैट (प्रथम चरण) में केवल 206 नम्बर थे। और कट ऑफ जनरल श्रेणी की थी 205. महज दो नम्बर कम होने से इरा मुख्य परीक्षा में नहीं बैठ सकती थी। सब जानते हैं कि विकलांगता के बावजूद वे 2014 की परीक्षा के अंतिम चयन में टॉपर थी। टीना डाबी का मामला भी इससे मिलता जुलता है। प्रथम चरण(सी सैट) में टीना को मिले 96.66 और एस सी कैटीगरी में कट ऑफ थी 94 जबकि सामान्य श्रेणी में 107.23 । भले ही पहले चरण में टीना को कुछ रियायत मिली है लेकिन मुख्या परीक्षा में टीना डाबी ने सभी को पछाड़ कर पहला स्थान पाया। लव्वोलुआब यह है कि महत्वपूर्ण प्रथम आना या निन्यानवे प्रतिशत लेना या पास, फेल होना नहीं है, अंतिम रूप से आप समाज को क्या देते हैं आपका आकलन इस बात से किया जाएगा। और समाज को भी करना चाहिए .पूरी परीक्षा प्रणाली में इस पक्ष पर सुधार की जरुरत है। इसलिए सफल होने पर न इतने अहंकार में फूले-फूले फिरें, न असफल होने पर अपने को इतना हीन मानें।
अंतिम प्रश्न पूरी सिविल सेवा परीक्षा के मकसद और चरित्र का है। पिछले पांच वर्ष से आज़ादी के बाद से सबसे ज्यादा भर्ती हो रही है। हर विभाग को नए युवा अधिकारियों की जरूरत है। आई.ए.एस से लेकर आई.पी.एस, रेलवे से आयकर तक । जहां नीचे के पदों पर कटौती जारी है, ऊपर का पिरामिड लगातार भारी होता जा रहा है। अब दर्जनों की जगह सैंकडों सचिव स्तर के पद है और हजारों संयुक्त सचिव स्तर के। नौकरशाही पर खर्च भी इसलिए बढ़ रहा है। हर वेतन आयोग पिछले के मुकाबले वेतन और भत्ते और बढ़ा देता है इस तर्क पर कि निजी क्षेत्र में ज्यादा बेहतर तनख्वाहें हैं। सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं को सरकार में लाने का तर्क भी इसमें शामिल है। लेकिन सर्वे बताते हैं कि सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाएं अब सिविल सेवा की तरफ नहीं देख रही। ज्यादातर अब वे आ रहे हैं जिन्हे शक्ति, सुविधाएं पूरी चाहिए और कम से कम मेहनत करनी पड़ी। साक्षात्कार और दिखावे के लिए कुछ भी कहें, पब्लिक हित की बजाये वे निजी हितों को प्राथमिकता दे रहे हैं। बढ़ती लाल फीताशाही और भ्रष्टाचार बढ़ने के पीछे नौकरशाही की यही मानसिकता है। अगर कुछ कर गुजरने का ऐसा ही जज्बा होता तो हजारों की भर्ती के बावजूद सरकारी संस्थान, शिक्षा, स्वास्थ्य,कानून व्यवस्था समेत पूरा प्रशासन इतना लचर नहीं होता और न भारतीय नौकरशाही को दुनिया की भ्रष्टतम होने का तमगा मिलता। कारण जो भी हों सरकारी तंत्र की अक्षमता ही दिनोंदिन निजीकरण को बढ़ावा देने के लिए जिम्मेदार है। लेकिन इनसे बड़ा दोष तो उस राजनीति का है जिसके डंडे के बल ये बंदरी की तरह नाचते हैं।
हमारे देश को एक सक्षम नौकरशाही की जरूरत है और यूपीएससी जैसी संस्था ये काम बखूबी कर रही है। चुनौती यह है कि टीना डाबी, अतहर आमिर,अर्तिका, संधू के सपनों और आदर्शों को हासिल करने में हमारा लोकतंत्र कितनी मदद करता है। 1981 बच के टॉपर प्रदीप शुक्ला, उत्तर प्रदेश कैडर के जेल में है और ऐसी ही अन्य दर्जनों अफसर। वरना सिविल सेवा के परिणामों पर जनता यही कहेगी कि ’चार दिन की चांदनी, फिर अंधेरी रात।