पवन कुमार गुप्त (जनसत्ता : दायरों के पार 1 जनवरी) की ‘इलाहाबाद के दो दिन’ के प्रवास में ही सॉंस फूल गई । विश्वविद्यालय की अव्यवस्था से लेकर भाषा, संस्कृति के अंतर्विरोधों को महसूस करके । याद कीजिये इसी इलाहाबाद और संगम के पुण्य प्रदेश में बार–बार जन्म लेने के लिए कुछ बरस पहले मुंबई का महानायक टेलीविजन पर विज्ञापन करता था कि यदि “ मैं पुनर्जन्म लूं तो इसी गंगा–जमुना के किनारे” । यह विज्ञापन उत्तर प्रदेश में इससे पिछली सरकार को फिर से सत्ता में लाने के लिए था । संबंध उनका भी इलाहाबाद से रहा है । उन्हें शायद पता नहीं कि उनकी सांस इलाहाबाद या गंगा;जमुना प्रदेश के किसी भी शहर में दो दिन में नहीं, दो घंटे में भी फूल सकती है ।
उत्तर प्रदेश की अव्यवस्था की कई फांके उजागर हुई हैं इस लेख में । आइये कुछ पर चर्चा करते हैं । इलाहाबाद पिछले बीस–बाइस वर्षां में मैं भी कभी–कभी जाता रहा हूँ । जिस रेस्ट हाउस में रुकता था, उसकी स्थिति भी वैसी ही होती थी जैसी पवन गुप्त ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के ‘भुतहा अतिथि गृह’ की बयान की है । बड़े–बड़े ठंडे कमरे, सोने के लिए ट्रेन जैसा एक पतला;सा कंबल, उसमें भी धूल भरी हुई, महीनों से न धुली हुई बेडशीट । रात को कुछ पढ़ने के लिये जब भी टेबल लैंप की तरफ हाथ बढ़ाता, पता लगा कि बल्ब गायब है । चौकीदार कहता कि साहब पता नहीं क्या हुआ, अब तो कल ही मिलेगा । धीरे–धीरे मन में यह यकीन होने लगा कि इलाहाबाद, कानपुर, पटना कभी जाना पड़ा तो रात नहीं बिताऊंगा । आप मुझ पर दिल्ली में रहने की सुविधाओं का आरोप लगा सकते हैं । बावजूद इसके, मैं व्यक्तिगत स्तर पर निर्मल वर्मा की इस बात को कभी नहीं भूल पाता कि ‘सुविधाएं आपकी स्वतंत्रता छीन लेती हैं ।’ लेकिन जीने और सोने भर की सुविधाएं तो चाहिए हीं । जाना देश के और शहरों, नगरों में भी होता है । क्यों बड़ौदा, पूना, नासिक या केरल के किसी छोटे–से गॉंव में भी ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ यानि स्वर्ग है तो यही है, याद आने लगता है । चुस्ती और उत्साह से काम करते कर्मचारी; सफाई और तरतीब का एक नमूना । यदि सरकारी कर्मचारी हैं तो इनको भी उतनी ही तनख्वाह मिलती है जितनी कि इलाहाबाद और कानपुर के पान–खैनी खाते, चबाते कर्मचारियों को । उत्तर प्रदेश के सरकारी कर्मचारी तो कुछ ऊपर से भी कमा लेते होंगे । लखनऊ मेडीकल कॉलेज में पढ़ने वाली एक डॉक्टर ने बताया जब भी “ वे अपने घर से वापस होस्टल लौटती तो सफाई कर्मचारी से लेकर सभी उस खाने–पीने के सामान को जबदस्ती लेने की फिराक में रहते जो मेरी मॉं ने मेरे साथ भेजा था । उन्हें न दो तो वे होस्टल की सफाई बंद कर देते । धीरे–धीरे हमने सफाई आदि के ये काम खुद ही करने सीख लिये” । चैन्ने में समाप्त होने वाली रेलगाडि़यों के बारे में कहा जाता है कि जो गाडियां उत्तर भारत यानि कि इलाहाबाद, गोरखपुर, पटना जैसे शहरों से आती हैं, उनकी टॉयलेट से लेकर डिब्बे की गंदगी अकल्पनीय होती है । जबकि केरल, कर्नाटक से आने वाली गाडियां उतनी–ही साफ–सुथरी । इस दुर्दशा का प्रमाण रेल यात्रा के उन निबंधों से भी मिलता है, जिसमें देश–भर से प्रविष्टियां आती हैं । जहां उत्तर भारत के वृतांत लूट, जहर खुरानी, विलंब से चलने वाले हादसों से भरे होते हैं तो दक्षिण भारत के सुरम्य सौंदर्य के चित्रण से ।
प्रश्न तुलना का इसलिए है कि इनका समाज, इनके नागरिकों को क्या सिखा रहा है ? काम, सेवा की संस्कृति, नेता, बुद्धिजीवी, धर्म, विचारधारा किसी ने तो सिखाई होती । हिंसा का मामला हो या स्त्री–पुरुष की बराबरी का या कानून–व्यवस्था का । आंकड़े और सर्वेक्षण बताते हैं कि उत्तर भारत के शहर इस पैमाने पर सबसे गये बीते हैं । कुछ बदहाल शहरों के जो नाम पिछले महीने आए हैं, उनमें मेरठ, कानपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, पटना, दिल्ली शामिल हैं । आखिर कब तक संगम, उसकी गंगा–जमुनी की सांझा संस्कृति पर इतराते रहोगे ? संस्कृति पर इतराने से जिंदगी चलती तो इन राज्यों से इतना पलायन नहीं होता । रोजी–रोटी तक के लाले पड़ गये हैं इस कुव्यवस्था से । अफसोस यह कि दिल्ली आकर तो उत्तर प्रदेश, बिहार के आदमी में बराबरी, अस्मिता, हक, अधिकार के पर निकल आते हैं इन राज्यों के सामंती सत्ताशीनों के सामने तो वे दुम दबाकर भागने में ही अपनी भलाई समझते हैं । पिछले दिनों कुछ नेताओं के मुंह से ईमानदारी की यह बात उनकी ज़बा पर आ गई थी कि दिल्ली की गंदगी और अव्यवस्था के पीछे यू. पी., बिहार के नागरिकों का हाथ है तो अपने वोट बैंक की ताकत के बूते इन्होंने आसमान उठा लिया था । इसे कहते हैं चोरी भी और सीना जोरी भी । हम नहीं सुधरेंगे की घोर प्रतिज्ञा ।
लेकिन मौजूदा विमर्श इस हद तक कट्टरता में बदल चुका है कि जैसे ही आप उत्तर प्रदेश की अव्यवस्था की बात करेंगे कुछ जाति, कुछ राजनीति के तहत आपको ही कठघरे में खड़ा कर दिया जाएगा । मुद्दा कोई भी हो शिक्षा का, भाषा का या अस्पताल और कानून व्यवस्था का । पवन कुमार ने संक्षेप में इन तीनों मुद्दों को छुआ है । जो इलाहाबाद हिन्दी साहित्यकारों और संस्कृति का ऐसा शीर्ष रहा है वहां ‘सामाजिक न्याय शिक्षा और मानव विकास’ पर सेमीनार खालिस अंग्रेजी में हो, यह इलाहाबाद का अपमान है । क्या संस्कृति में अपनी भाषा, उसका विमर्श नहीं आता ? क्या संविधान की धाराओं के तहत भाषा और राष्ट्रभाषा के उल्लंघन पर आयोजकों के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई का प्रावधान नहीं है, जिससे कि भविष्य में भी कोई विदेशी भाषा के बूते ऐसे सेमीनार करने की जुर्रत न कर सके । लेख में उल्लिखित मैथिली के ऐसे प्रोफेसर दिल्ली विश्वविद्यालय में भी हैं । पूरी उम्र हिन्दी भाषा में पढ़कर आए और पढ़ा रहे एक प्रोफेसर ने पटना के गरीब हिन्दी भाषी छात्रों को डांटते हुए यह कह कर भगा दिया कि यदि हिन्दी माध्यम में पढ़ना चाहते हो तो लौटकर बनारस, इलाहाबाद चले जाओ । मैं हिन्दी में नहीं पढ़ा सकता । दिल्ली सरकार से लाखों के विज्ञापन बटोरते दिल्ली के ज्यादातर हिंदी लेखकों, संपादकों नेस्कूल, कॉलिजों में भाषा के इस अपमान पर शायद ही कभी कोई विरोध जताया हो ।
उत्तर प्रदेश के साथ दुर्भाग्य इस कारण भी जुड़ा है कि शिक्षा, भाषा, संस्कृति के इन प्रश्नों पर सोचने के लिए किसी भी राजनैतिक दल में इच्छा शक्ति नहीं है । समाजवादी मानने वाली एक पार्टी ने अपनी भाषा हिन्दी के पक्ष में जब भी आवाज उठाई, न केवल अंग्रेजी प्रैस बल्कि दूसरी पार्टियों ने भी धर दबोचा । काश ! जिस ढंग से ऊपर से नीचे, लोक से लोकपाल तक आरक्षण की लड़ाई में सारी पार्टियां शामिल हैं, वैसे ही शिक्षा, शिक्षा संस्थाओं और उनमें अपनी भाषा के लिए भी ये सड़क पर उतरते !
बिछोभ और अफसोस इस बात से भी है कि पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में हर बरस यह अव्यवस्था और एक पायदान नीचे गिर रही है । तथाकथित सवर्ण कांग्रेसियों की सत्ता के बाद मौका तो दूसरों को भी मिला है । लेकिन स्थितियां सुधार की तरफ नहीं हैं । सुना है पड़ोसी बिहार तेजी से बदल रहा है ।
काश!, 2012 में उत्तर प्रदेश के भी दिन फिरें ।
दिनांक : 03/01/2012