ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ था ।
शुरूआत छोटी-बड़ी किसी भी बात से हो, अंजू के अन्तिम वाक्य यही होते “देखना जो न पछताओ तुम । मैं भी बस देख रही हूँ । डिम्पी न होता तो अब तक……..” इस आवाज में अप्रत्याशित सख्ती होती थी ।
“तुम्हें जो करना है आज करो बल्कि अभी, और देखो ये पछताने न पछताने के शब्द तुम्हारे खानदान में होते होंगे । खबरदार जो फिर कभी दोहराया” । उसका अक्सर यह जवाब होता ।
आज भी कोई विशेष बात नहीं थी । गांव के तीन-चार आदमी आ गए थे । बस देखते ही माथा ठनक गया । मूड भांपने के बावजूद भी उसने अंजू से नमस्ते कराई सभी को और फिर पानी लाने को कह दिया ।
अंजू पानी रखकर चली गई ।
“ये रोज-रोज कौन आ जाते हैं ?”
वह चुप रहा । सिर्फ हौले से मुस्काते हुए बोला, “बेचारे मुसीबत के मारे हैं ।”
“तो सबको यहीं मरने की जगह रह गई है । एक-एक बारह-बारह रोटी खाएगा और फिर गांव में जाकर कहेगा—बहू तो हमें टुकुर-टुकुर देख रही थी, तोला-सा मुँह खोले……उसने तो म्हारे पैर नहीं छुए…….पैरों की शक्ल भी देखी है…..झट्ट से चल देते हैं ।” बिराते-बिराते उसकी आवाज तलवार-सी कटकर फर्श पर गिर पड़ी ।
मां रसोई में खाना बना रही थी और अंजू प्लेटों में दाल-सब्जी सजाती रही थी । वह भी वहीं पहुंच गया “कुछ काम से आए हैं मेरे डिपार्टमेंट का ही काम है ।”
“पर काम क्या चार आदमियों का है ? ”अंजू ने फिर आंखें निकालीं ।
“यही तो इनका बावलापन है । ये न हो तो इन्हें गांव वाला कौन कहे ।”
“इनका काम करो, ऊपर से इनको घुमाओ, ये भी नहीं कि गांव से आए हैं तो कभी एक गन्ना भी ले चलें ।”
“अरे क्या करोगी । गन्ने कौन खाता है आजकल सर्दियों में, बेचारे सोचते हैं, इसी बहाने घूम आएंगे, दिल्ली ।”
“ऐसे ही आपके चाचाजी हैं । चल दिए नेता बनके ।”
वे सब खाना खाकर निश्चिंतता से बातों में मशगूल हो गए ।
“ये अब जा रहे हैं या नहीं ?” अंजू माथे का पसीना पोंछती हुई आई और सिपाही की तरह सामने खड़ी हो गई । “कौन बनाएगा सुबह इनका खाना । रात को तो सुलाना अपने कमरे में, खबरदार जो किसी भी चादर से हाथ लगाया । धोनी तो पड़ती नहीं किसी को ।”
“दो जो मूंछों वाले हैं न ! वे तो कह रहे थे जाने की, पर अब तो जाते नहीं लगते । ”
“तो जाकर कह दो कि तुम्हारा काम हो जाएगा । बस अब तशरीफ ले जाइए । ग्यारह बजे के बाद फिर बस भी नहीं मिलेगी……और नहीं तो मैं जाकर कह देती हूँ ।”
“तुम्हारा दिमाग ठीक है । चकचक लगाए जा रही हो घंटे भर से ।” उसे लगा कि इससे आगे ढील देने से सब कुछ गड़बड़ा जाएगा ।
“तुम्हें तो कुछ करना नहीं पड़ता न, करना पड़े तो सब आंख खुल जाए ।”
“अंजू ! ये सब हमारे गांव के आदमी हैं, चाचा, ताऊ के रिश्ते में । गांव में सब एक-दूसरे से ऐसी ही उम्मीद करते हैं । दो-चार रोटियों में कुछ नहीं बिगड़ा जाता ।”
“हां कुछ नहीं बिगड़ता दो-चार रोटियों में”—उसने बिराया “करके तो तुम्हारी मां दे देती है ?”
“मां भी तो करती है ।”
“ओ हो हो हो ! कर दिया । चाय तक तो दे नहीं सकती । पसरकर बैठ जाएगी उनके बीच में । एक मैं ही रह गई हूँ खटने को । नौकरी करो, ऊपर से इनकी तीमारदारी ।”
“अपनी तो कर सकती हो ।”
“नहीं करती, नौकरी किसलिए करती हूँ । हमारे कॉलिज की सभी लेक्चरार ने सरवेंट रखे हुए हैं, मैं भी रखूंगी और ठाठ से रहूँगी । देखें कौन रोकता है ?”
“किसने रोका है नौकर लाने को तुम्हें ।” मुझे गुस्सा आने लगा था । “अंजू तुमने कुछ सीखा भी है करना ? तुम क्या खाकर करोगी ? ये लोग तुम्हारे भरोसे आते हैं ? एक बात कहूँ—जब तक मां है, इनको रोटी मिल भी जाती है, नहीं तो तुम्हारे जैसे इनको पानी भी न पिलाएं ।”
“मैं इनको दरवाजे में भी नहीं घुसने दूँ ।”
“अंजू अपनी औकात में रहो । तुम कौन होती हो, दरवाजे में न घुसने देने वाली ।” उसके अंदर कुछ टूट-सा गया था कि गांव से कोई इतनी दूर आए और उसे घर से बाहर ही बाहर वापस कर दिया जाए ! “तुम ये क्यों भूलती हो कि मैं भी इनका एक हिस्सा हूँ । इन्हीं के बीच पला, बढ़ा और मुझे इस बात पर फख्र है ।”
“फख्र है तो जाओ रहो वहीं जाकर । क्यों आए थे यहां ?”
“अगर यही रहा तो वहीं जाकर रहूँगा । तुम्हारी इस किराए की किस्तों की कोठी में नहीं, जो किसी को एक घूंट पानी भी नहीं पिला सकती ।”
“नहीं पिला सकती बोलो । किसी के बाप का नहीं खाती ।”
“तो ये भी तुम्हारे बाप का नहीं खाते । समझे मेरी कमाई का है । एक दिन नहीं वो दस दिन रहेंगे । यह घर उनका है, उनके गांव वालों का ।”
“तो तुम खाओ और उन्हें खिलाओ ।” कहकर वह खाना खाते-खाते थाली छोड़कर चली गई ।”
वह खाना खत्म कर गांव वालों के बीच कुर्सी डालकर बैठ गया ।
“अरे भई चरणदास कभी-कभी गांव तो घूम जाया करो या बिल्कुल ही भूल गए ।” उनमें से एक बोला ।
“हां आऊंगा ! सचमुच सोचता तो हर बार हूँ पर घर-दफ्तर की ऐसी मारा-मारी रहती है कि—–।” चेहरे पर बैठे तनाव ने उसकी बात नहीं पूरी होने दी ।
“अरे यार सरकारी नौकरी में भी छुटि्टयों की कोई कमी ? कभी गन्ना वन्ना खा आओ……बच्चों को भी लेते आओ ।”
“क्यों जी उन्हें तो कभी नहीं लाए ।” दूसरे ने पूछा ।
“नहीं वो भी आएगी । वो तो खुद कई बार चलने की कह चुकी है कि मैंने आपका गांव नहीं देखा ।”
“अरे यार तो फिर दिखा लाओ । दो दिन रुखी-सूखी ही सही । वो भी देख लेंगी तुम्हारी जन्मभूमि ।”
“और सब ठीक है गांव में, गभ्भा मास्टर के क्या हाल हैं ?” उसने बात का रुख मोड़ा ।
“हां खूब मौज है भइया । बस इसका काम करा दो इस बार । ये बड़ी उम्मीद से आया है । मैंने तो याते कही कि तू अकेली चलौ जा—चरणदास अपनौ ही बालक है पर नहीं मानो । हमने सोची हमीं क्या कर रहे हैं, चलो हम भी दिल्ली घूम आएंगे इस बहाने । एक बार तभी आए, जब चरणसिंह की रैली हुई थी ।”
अंजू का पारा अभी भी चढ़ा हुआ था । उसकी आवाज बीच-बीच में इन लोगों तक पहुंच जाती थी, गर्म लू के झोंकों-सी । वह उसी क्षण या तो बिना वजह जोर से हँस देता था या ऊँचे स्वर में बोलने लगता, जिससे कि वे लोग नहीं सुन पाएं ।
जैसे-तैसे उसने 10-15 मिनट उनके बीच काटे और पिताजी को उनके साथ बतियाते छोड़कर अपने कमरे में जाकर लेट गया ।
अंजू ऊँ उ उ…… करके डिम्पी को सुलाने की कोशिश कर रही थी। संभवत: उसकी उपस्थिति को भांपकर उसने तड़तड़ उसके दो थप्पड़ जड़ दिए, “दिन भर यूनिवर्सिटी में खपो और रात में इनसे खून चुसवाओ ।”
डिम्पी मार खाकर जोर-जोर से रोने लगा ।
उसका मन हुआ कि डिम्पी को उठाकर अपने पास ले आए पर उसके जोर-जोर से रोने को देखकर उसने हिम्मत नहीं की । थोड़ी देर में वह खुद ही संभाल लेगी ।
उसे स्वयं चुप लगा देना चाहिए था । आखिर एक दिन की हो तो कोई भुगते भी । यहां तो रोज ही कोई न कोई बैठा होता है । घर, कॉलेज, डिम्पी……अंजू भी कहां तक करे । वह ठीक ही कहती है, “आपको करना पड़े तब न ।”
पर वह भी कौन-सा बैठा रहता है ? दिन भर दफ्तर में कैसा हाल हो जाता है मानों फाइलें उसके पीछे दौड़ रही हों और वह फाइलों के । ऊपर से घर में घुसो नहीं कि शिकायतें ही शिकायतें । “दफ्तर में तो सभी करते हैं, ये बताओ घर में आपका क्या सहयोग है । आए और अखबार खोलकर बैठ गए ।” अंजू की बात से वह लगभग निरुत्तर हो गया । ऐसे तो मैं भी कह दूं कि नोट्स बनाने में सिरदर्द हो गया, हाथ-पैर अकड़ गए……कुछ भी बहाने कर दो ।
“दफ्तर की नौकरी और कॉलिज में बच्चों को बहकाने में बड़ा अंतर है ।”
“आहा ! सारी भारत सरकार इन्हीं के बूते तो चल रही है”, कह कर वह डिम्पी को दूध पिलाने लगी ।
“ठीक है, आप काम करती हैं पर इसका मतलब यह तो नहीं कि किसी की कोई इज्जत नहीं । सभी छोटे-बड़े गधे-घोड़े बन गए । गांव वालों ने उनकी तू-तू मैं-मैं सुन ली होगी तो क्या मुंह रह जाएगा । सारे गांव में जाते ही खुसर-पुसर शुरू हो जाएगी अजी हमने तो पैले ही कहा कि बेटा पढ़ी-लिखी नौकरी वाली के पैरों में पहिए होते हैं, ज़रा सावधान रहना ।”
“भई कैसी है तेरी अफसरी जो तू बहू से नौकरी करावे । औरत घर से बाहर निकली नहीं कि औरत नहीं रहती । बब्बरखान हो जाती है ।” उसके गांव के एक बुजुर्ग ने उसको सलाह दी थी ।
‘और खा ले औरत की कमाई । चली गई लड़के को लेकर भी । इसकी तो मां भी ऐसी ही बताते हैं ।’ जितने मुंह उतनी बातें ।
दिमाग में आयी हलचल से उसकी नींद हवा हो गई । उसने घड़ी देखी । बारह बजकर 15 मिनट थे । डिम्पी भी चुप होकर सो चुका था ।
वह फिर से आकर लेट गया ।
उसकी होगी तो उसकी इज्जत ही कौन-सी साबुत रह जाएगी । अंजू के तो बड़े भाई का तलाक हुए अभी दो महीने भी नहीं हुए कि लड़की भी वापस । अभी तो पहली वारदात से ही नहीं उभरे होंगे । लो रखो अपनी नौकरी वाली बेटी को अपने घर और खाओ इसकी कमाई । बची-खुची नाक भी कट जाएगी ।
अभी तो स्याही भी नहीं सूखी होगी अंजू के लिखे खतों की । प्रिय श्यामा……आज मैं सोचती हूँ कि अरेंजड मैरिज के लिए लोग कैसे तैयार हो जाते हैं । बिना विचारों के मिले कृत्रिम ढंग से शरीर का मिलना भी कोई मिलना है । लगता है हम दोनों एक टांग पर खड़े एक-दूसरे का इंतज़ार कर रहे थे । वायुदूत के पास मिलते हैं इन्हें फ्री जितने चाहो उतने । कभी तुम भी साथ चलने का प्रोग्राम बनाओ । इनका स्वभाव तो बस ऐसा है कि बिल्कुल बोर नहीं होने देते…….तुम्हारी अंजू ।
सुबह वह जब तक सोकर उठा, गांव वाले जा चुके थे । मां ने बताया कि उन्हें गांव जल्दी पहुंचना था ।
“चाय तो पी गए होंगे ।”
‘चाय भी नहीं पी…….बहुत कहा ।’
दफ्तर में भी वह अन्यमनस्क बना रहा । उन्होंने जरूर अंजू की बातें सुन ली होंगी, इसलिए बिना कुछ खाए-पीए चले गए ।
शाम होते ही उसकी उदासी फिर सघन हो गई ।
यों कोई अन्य दिन होता तो वह श्रीराम सेंटर जरूर जाता, पर आज चाहते हुए भी उसे ‘चरनदास चोर’ नाटक छोड़ने का निर्णय लेना पड़ा । बिना वजह तनाव बढ़ाने से क्या फायदा । उसके लेट पहुंचने से अंजू का पारा और पांच डिग्री बढ़ जाता है ।
घर समय से पहुंचने से भी कई बार वही होता है । “मैं जब कॉलिज से आई तो डिम्पी ऐसा भिनक रहा था कि…… इन बुड्ढे-बुढि़याओं को तो कभी अक्ल आएगी ही नहीं । कितनी बार कहा है कि होम्योपैथी और एलोपैथी दोनों दवाएं एक साथ नहीं देते, पर किसी की अक्ल में आए तब न…….जब मन हुआ ये शीशी दे दी जब मन हुआ वो शीशी दे दी…….सांय-सांय कर रहा है लड़का ।” और ऐसे ही किसी मुद्दे पर बात काबू से बाहर हो जाती है ।
शाम को जब घर पहुंचा तो जैसी कि आशंका थी, सन्नाटा छाया हुआ था । बरामदे का पीला बल्ब जल रहा था और दोनों छोटे भाई लम्बे सोफे पर बैठे पढ़ रहे थे । मां भी एक तरफ तख्त पर गुमसुम बैठी थी ।
लगता था उसकी आहट के बाद ही उन्होंने बात रोक दी थी ।
“क्यों, डिम्पी आज बड़ी जल्दी सो गया ?”
कोई कुछ नहीं बोला । उसका प्रश्न खुले दरवाजे से सीधा निकल गया ।
“अंजू नहीं आई अभी कॉलिज से ।” उसने फिर पूछा ।
“वो आज गई ही कहां कॉलिज ?” मां कहकर उठी और दूसरे कमरे से दो चिटि्ठयां लाकर रख गई ।
“तूने कुछ कहा था रात को ?” मां ने प्रश्न में ही उत्तर मिलाते हुए पूछा ।
वह समझ नहीं पाया कि हां कहे या ना, वह पढ़ी हुई चिट्ठी को फिर से पढ़ने का अभिनय करने लगा ।
“भइया हमसे नहीं होती इससे ज्यादा चाकरी । इन्हें खिलाओ पिलाओ, गू- मूत धोओ रात-दिन, और ऊपर से गाली खाओ रात दिन……कहता था देखना पढ़ी-लिखी है, सबका कदर कायदा करेगी । वो तो सबका ऊपल्ला पाठ निकली । कैसी-कैसी चीख रही थी सुबह……हम सब तो गंवार हैं एक तू ही आकाश से पढ़ी-लिखी उतरी है ।” मां अनवरत कहे जा रही थी ।
“कोई बात हुई थी ?” उसने पूछा ।
“कुछ नहीं । लड़नहार बहू बिटौरा पर सांप बतावै । कल मैं सुन रही थी कैसी-कैसी तुझसे कह रही थी । आज सुबह डिम्पी को ठंडे पानी से नहला रही थी । मैंने कहा गरम पानी रखा है, उसे ले ले तो बस इसी बात पर कि तुम कोई डाक्टर हो । मैं गंवारों के बीच घिर गयी हूं…….कि मेरे बेटे को टॉफी दे देकर मार देंगे । बोलो हम उसे मार देंगे ? जब भी जनकपुरी जाती है लड़का बीमार होकर आता है और अल्जाम हम पर लगाती है ।”
“कुछ कह गयी थी आने के बारे में?” उसे पूछना पड़ा।
“अजी वो कहती है । मुझे तो डिम्पी की याद आ रही है। टा टा टा करता जा रहा था खुद ही…….अम्मा जी चीज लेकर आऊंगा । आइसक्रीम लाऊंगा मूँफली, टॉफी इत्ती सारी ।” कहते हुए मां रुआंसी हो गयी ।
उसने चुपचाप अखबार उठाया और ऊपर चला गया ।
एक दिन……दो दिन……..तीन दिन…….चौथे दिन जब वह घर में घुसा तो उसे लगा घर एक हल्की सी उमंग में हिल रहा है ।
“पापाजी !” डिम्पी ने दूर से ही किलकारी मारी ।
“जाओ पापाजी के पास……पियो पापाजी का दूध…….पापाजी न हुए…..” अंजु की आवाज वापस रसोई में लौट गयी ।
“डिम्पी ये रखा तुम्हारा दूध, पहले इसे खत्म करो ।” कहकर अंजू भी डिम्पी के साथ बैठ गयी । “छोटे मामाजी आए हुए हैं…….यहां भी आए थे । वे आने की जिद न करते तो बच्चू…….” वह स्वीकारोक्ति में बोली ।
वह थोड़ा सीरियस होने का उपक्रम किए रहा ।
“क्यों मुंह कैसे सुजा रखा है ? अंजू ने कटाक्ष किया ।
“अपनी सुनाओ यहां तो ठीक ही है ।” उसकी भारी आवाज निकली ।
“तो सानु भी ठीक ही समझो,” ऐसे नाजुक मोड़ पर वह अक्सर पंजाबी का एक दो शब्द बोलती है ।
बस शुरू “…….एक बात बताऊं कल मधु थी यूनिवर्सटी में……गाढ़ी-गाढ़ी लिपिस्टक लगाए…..मोटी कितनी हो गयी है और ऊपर से ऐसा गहरे गले का ब्लाउज पहन रखा था……मुझे तो बड़ी विचित्र लगी ।”
“क्या हाल चाल हैं उसके ?” उसने पूछा ।
“जब देखो जब हस्बैंड की बातें । मेरे हस्बैंड यूं करते हैं, मेरे हस्बैंड यूं कहते हैं……वो मुझे मां के भी नहीं जाने देते…….कहती है बड़ी मुश्किल से आयी हूं, पता नहीं कैसी हो गयी है ?”
“तो क्या हो गया इसमें ? सभी लड़कियां शादी के बाद ऐसी ही बातें करती हैं । तुम नहीं करतीं ?”
अंजू ने कोई जवाब नहीं दिया । उसकी मुद्रा से लग रहा था कि वह अभी भी मधु के बारे में सोचे जा रही है । बोली…… “मैंने घर आने को कहा तो कहती है, ‘मेरे हस्बैंड को फोन करना । तभी आएंगे ।’ बड़ी आयी हस्बैंड वाली !”
“अच्छा” मैंने फूंक लगायी ।
“जैसे हस्बैंड न हो गए वी वी आई पी हो गए । खुद नहीं कह सकती मेरे बिहाफ पर । मैं तो बड़ा करूंगी फोन !” अंजू ने मुंह बचकाया ।
“तुम्हीं देख लो । मैं ही एक सीधा मिल गया हूं, जो जहां हांकती हो चल देता हूँ ।”
“मैं भी तो चल देती हूँ”, कहकर उसने चुटकी काट ली ।
“अच्छा तुम्हारा पी.एच.डी. का कितना काम हो गया ? ”
वह पलभर के लिए हिली—“क्यों बताऊं…..आपने पता किया कि मैं कहां गयी…..डिम्पी की तबीयत कितनी-कितनी खराब रही, बता नहीं सकती । मेरे लिए मेरा डिम्पी पहले है पी.एच.डी. बाद में…..कोई मरा थोड़े ही जाता है ।”
“हां जी क्या करना…..अपना जाओ और रिसर्च फ्लोर पर परांठे खाकर आ जाओ ।”
“देखों अपने का कम बना करो….जब देखो जब एक ही बात । आपने सोचा आप क्या करते हैं । दिन भर में ये भी नहीं होता कि बच्चे को भी एक घंटा कभी रख लें । जाने कहां से पकड़-पकड़कर ले आएंगे और मगज़ मारते रहेंगे……लेनिन मार्क्स……इलियट……सलमान रशदी…..जैसे यही सब तो जिंदगी काट देंगे……सारे पुरुष एक से ही होते हैं । आदमी की यह हुक्म चलाने की मानसिकता कभी जा थोड़े ही सकती है ।”
“और औरत की ? वो मोटी लग रही थी….उसकी साड़ी देखते तो देखते ही रह जाओ…..उसके पास बीस तोले सोना है ।”
“तो क्या है नहीं ? तुमने तो एक अंगूठी भी नहीं बनवायी । बस ले ले के रखते रहो । गांव के लोग होते ही ऐसे हैं……कहो तो चिढ़ लगती है ।”
बात उस कोने में पहुंच गयी थी जिसके आगे कभी भी विस्फोट हो सकता था । वह पानी के बहाने उठ खड़ा हुआ…..“पानी पिओगी ?”
“मुझे नहीं पीना। मैं खुद पी लूंगी ।”
“कभी हमारे हाथ से भी पी लिया करो । सानु भी धन्य हो जाएंगे ।”
उसके चेहरे को बदलता देख मैंने फिर प्रसंग बदला, “डिम्पी तो सचमुच बड़ा शैतान हो गया है ।”
“आपको क्या, आप तो अपने अखबार में लगे रहिये । इसे गिरा, इसे तोड़ । सचमुच मैंने तो इतना शैतान कोई बच्चा देखा नहीं ।” वह उसकी पोथी खोलकर बैठक गयी । “अच्छा एक मिनट मुझे भी दिखाना अखबार”
“क्यों क्या करोगी ?”
“देखो शेयर फिर बढ़ने लगे । पेंटेप बीस हो गया और गोदावरी फर्टीलाइजर छब्बीस ।”
“अंजू पंकज जी की किताब राजकमल से आ रही है ।”
“अबकी तो मैं जरूर निकाल दूंगी । दो साल से ऐसा मंदा पड़ा है शेयर मार्किट में……”
“बड़ा अच्छा रहा । राजकमल की प्रतिष्ठा भी बहुत अच्छी है ।”
“रायल्टी कितनी मिलेगी ।” अंजू ने सीधा प्रश्न किया ।
“अंजू रायल्टी कुछ भी मिले । बात रायल्टी की नहीं होती ।”
“अच्छा दशहरे की छुटि्टयों में हम शिमला जरूर चलेंगे । अभी से कहे देती हूं ।”
“अरे शिमला क्यों ? तुम कहो तो स्विट्जरलैंड ले चलें ।”
वह उठी और मुस्कराते हुए डिम्पी की पौटी साफ करने चली गयी ।