जनेयू कैम्पस शांत होने का नाम ही नहीं ले रहा। ताजा विवाद कक्षा में उपस्थिति को लेकर है जिसके खिलाफ धरने, प्रदर्शन जारी हैं। बार-बार कोर्ट को भी जनेयू में हस्तक्षेप करना पड़ रहा है। कुछ जरूरी मगर ज्यादातर गैर जरूरी मुद्दों के उभरने से हताश राजनीति की भी गंद आती है। जो लड़ाईयां सड़क और संसद पर लड़ी जानी चाहिए, राजनीतिक दल विश्वविद्यालयों को अखाड़ा बनाने पर आमादा हैं।
विश्वविद्यालय एक अलग किस्म की आजादी के घोंसले होने चाहिए जहां नई पीढ़ी की रचनात्मकता रूपाकार हो सके। लेकिन देश की सर्वश्रेष्ठ आधारभूत सुविधाओं- भवन, पुस्तकालय, होस्टल, शिक्षक विद्यार्थी अनुपात और करोड़ों के अनुदान के बावजूद क्या यह विश्वविद्यालय विश्व की उन शैक्षिक संस्थाओं के आसपास भी कहीं पहुंचता है जिसके गुमान में आये दिन बबंडर मचा रहता हैं? क्यों दुनिया की दो सौ या पांच सौ संस्थाओं में भी जनेयू का नाम नहीं है? विज्ञान की तो छोड़ो, क्या पिछले बीस-तीस सालों में सामाजिक विज्ञानों में भी शोध का स्तर भी नीचे नहीं आ रहा? कहीं तो कुछ गड़बड पसरती जा रही है।
पिछले दिनों यह शिकायत मिल रही थी कि क्लास-रूम खाली हैं या पर्याप्त विद्यार्थी नहीं आते। शिक्षा में माशा-रत्ती, भी रूचि रखने वालों को पता है कि यह पूरे राष्ट्रीय स्तर पर हो रहा है। हर राज्य के हर विश्वविद्यालय में अच्छे शिक्षक इस परिदृश्य से और ज्यादा दुखी हैं क्योंकि वे पढ़ाना चाहते हैं और विद्यार्थियों को क्लास में न पा कर निराश लौटते हैं। कक्षा में पर्याप्त विद्यार्थियों की उपस्थिति , विमर्श पूरे माहौल को अकादमिक ऊंचाइयों पर ले जाता है वरना धीरे-धीरे क्षरण दोनों तरफ फैलता है और अंतत: पूरे विश्वविद्यालय में।
क्या सत्तर –पच्चहत्तर प्रतिशत उपस्थिति इतनी बड़ी वाधा है कि उसके खिलाफ प्रशासनिक भवन की घेराबंदी की जाए और कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़े. यहां यह बता दें कि यह आवासीय विश्वविद्यालय है, खूबसूरत पहाडि़यों के मनोरम दृश्यों के बीच बने होस्टलों में विद्यार्थी रहते हैं और चंद कदमों पर ही उनके क्लास रूम हैं। देश के दूर-दराज से इनके अभिभावकों ने इन्हें यहां पढ़ने भेजा है या सरकारी अनुदान ,रियायत प्राप्त होस्टलों में मटरगस्ती के लिए? निश्चित रूप से यहां एमफिल, पीएचडी के शोध क्षात्रों के लिए उपस्थिति में कुछ ढील दी जा सकती है लेकिन एम.ए, बी.ए आदि के पाठयक्रमों पर लागू करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए ? यदि उन्हें कलास में जाना इतना ही बर्दाश्त बाहर है तो देश के कई विश्वविद्यालय पत्राचार या मुक्त व्यवस्था में पाठ्यक्रम चलाते हैं, वहां उन्हें दाखिला लेना चाहिए और इन होस्टलों को दूसरे जरूरतमंदो और गंभीर छात्रो की खातिर छोड़ देना चाहिए। प्रति विद्यार्थी लाखों का खर्च देश के करदाताओं का इन पर खर्च होता है।
कक्षाओं में न जाने का एक कारण यह भी हो सकता है कि पढ़ाई का स्तर नीचे गिरा है। इसकी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन जनेयू जैसे संस्थानों में यदि ऐसा होता है तो यह और भी दुखद है। किसी वक्त इस विश्वविद्यालय के पाठयक्रम भविष्योन्मुखी सोच, चेतना से बने और विकसित किए गए। धनवर्षा भी खूब रही। इतनी स्कॉलशिप इस गरीब देश के किसी विश्वविद्यालय को उपलब्ध नहीं रही। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग भी आंखे मूदे रहा है कि शिक्षा के लिए सब माफ। लेकिन जातिगत, राजनीतिक अखाड़ेबाजी में धीरे-धीरे ऐसा पतन की न शोध में चमक बची, न देश की दूसरी प्रतिर्स्पधाओं में.उपस्थ्तिति आदि के नाम पर दुनियाभर के विस्व्विध्य्लय के उदहारण गिनाये जा रहे हैं लेकिन यहाँ के नकली शोधपत्र और शैक्षिक पतन ,भाई ०भतिजवाद और राजनैतिक दुराग्रहो की चर्चा भूल कर भी नहीं करते । हिन्दी विभाग को ही लें जहां कभी दिग्गजों का जमावड़ा था वहां के प्रोफेसरों को हिन्दी विभाग की दिवारों के पार भी कोई नहीं जानता। हमें संसद से जबाव चाहिए, न्यायपालिका से चाहिए, प्रधानमंत्री से चाहिए तो उस विश्वविद्यालय से भी चाहिए जहां देश के सर्वाधिक संसाधन झोंके जा रहे हैं।
माना अकादमिक शैक्षिक कार्यों की तुलना नौकरशाही से लदे दूसरे दफ्तरों से नहीं की जा सकती, लेकिन न्यूनतम मर्यादा की रक्षा तो हो। मशहूर दिल्ली विश्वविद्यालय में जहां नब्बे प्रतिशत से कम पाने वाले का दाखिला नहीं होता वहां प्रथम वर्ष के बाद कछाओ में दस प्रतिशत विद्यार्थियों की उपस्थिति मुश्किल से होती है। जंग खाये कई शिक्षक बी.ए. प्रथम वर्ष की कलास लेने से यह कह कर कतराते हैं कि’ स्कूली आदत के शिकार ज्यादा छात्र क्लास में आ जाते हैं। ‘यानि शिक्षक को नियमित आना पड़ता है और उसे यह नहीं चाहिए। उसे चाहिए बिना पढ़ाए मुकम्मिल लाखों की तनख्वाह। इसी का परिणाम है जहां इन कॉलिजों के क्लासरूम खाली पड़े हैं तो करोल बाग, बेरसराय, मुखर्जी नगर की कोचिंग क्लासों में पांच सौ विद्यार्थी एक साथ। दोष विद्यार्थियों का नहीं, शिक्षकों, विश्वविद्यालय का ज्यादा है। इसलिए सुधार के कदमों की तुरंत जरूरत।
लेकिन सुधार का नाम सुनते ही विरोध के स्वर बज-बजाने लगते हैं। पूर्व केबिनेट सचिव सुब्रहमनियम ने शिफारिस की थी कि शिक्षकों की भर्ती लोक सेवा आयोग की तर्ज पर हो। लेकिन सन्नाटा पसर गया। एक और सुझाव शिक्षा की तस्वीर बदलने के लिए शिक्षकों का विद्यार्थियों द्वारा मूल्यांकन है। दुनियाभर के शीर्ष संस्थानों में यह लागू है लेकिन जनेयू समेत केन्द्रीय विश्वविद्यालय इसके नाम से ही डरने लगते हैं। इस मूल्यांकन में वही छात्र भाग ले सकेंगे जिनकी उपस्थिति सत्तर प्रतिशत तक हो। छात्रों की उपस्थिति से शिक्षकों की जिम्मेदारी-जबावदेही बढ़ेगी। इसलिए इस विरोध में शिक्षक –छात्र जुगलबंदी है। हम सब को आत्मचिंतन की जरूरत है शिक्षा के पूरे माहौल को बदलने के लिए वरना हमारे मेधावी छात्र अमेरिका, इंग्लैंड की तरफ पलायन करते रहेंगे और उसके साथ इस गरीब देश का खजाना भी। लगता है चुनावी वर्ष में जनेयू का अलाव लगातार धधकेगा लेकिन देश और शिक्षा के लिए यह होगा बहुत घातक।
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