हाल ही में दिल्ली के एक प्रोफेसर ने फेसबुक पर लिखा कि बाईस साल बाद वे अपने गांव जा रहे हैं। गांव भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश का, मात्र साठ-सत्तर किलोमीटर दूर। फर्राटेदार कार से घंटा-दो घंटा। लेकिन वे बस से जा रहे थे। रास्ते के ढाबे, चाय की चुस्कियों के विवरणों से पता चल रहा था कि जैसे आंखों देखा हाल जानने और लिखने के लिए ही उन्होंने गांव की बस पकड़ी है। जैसे नोबेल पुरुस्कृत वी.एस.नॉयपाल त्रनीडाड से भारत आते रहते हैं. यानि गांव जाने की असली इच्छा अभी भी उतनी ही दूर है। इच्छा या डर?
मेरी नजर में बाईस साल का कोई बड़ा रिकार्ड नहीं है। एक और रेल के साथ अधिकारी ने बताया कि उन्हें अपने बदांयू जिले में गांव छोड़े सैंतीस साल हो गये। मात्र सौ किलोमीटर दिल्ली से। ‘क्या बताएं। बच्चे तैयार होते नहीं हैं। बड़ी बेटी अमेरिका चली गयी तो छोटी ने तो दसवीं के बाद ही अमेरिका जा कर पढ़ने का इरादा कर लिया। बेटा पूना में है। गांव में रखा भी क्या है।‘
ये तो चलो दिल्ली वाले हो गये। खुर्जा के एक बैंक में तैनात स्कूल के साथी राम प्रकाश ने और भी रिकार्ड तोड़ा।‘मैं न जाऊं। अरे क्यों जाएं? ऐसे देखें जैसे दुश्मन हो या तो नौकरी लगाओ ,नहीं तो कोई बात नहीं? वही लड़ाई झगड़े के किस्से। मैंने तो अब शादी विवाह में जाना भी बंद कर दिया है।‘ करोरा जहां ये हजरत पैदा हुए, पले, बढ़े, पढ़े, मात्र दस किलोमीटर दूर है।
कम से कम पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की तो लौट लौट कर यही कहानी है। किसी के भाई ने जमीन हथिया ली तो किसी को पिता के बंटवारे से असंतोष है। कईयों को जान तक का डर रहता है। फौज, पुलिस से रिटायर बाकुरे इन हथियारों से अपनों का ही खून कर रहे हैं। देश भर में सबसे ज्यादा ऐसी हिंसा इसी क्षेत्र में होती है। एक साथी ने बड़ी संजीदगी से सलाह दी कि’ ‘यार तुम जाते तो हो पर संभल कर जाओ। रात न करना’ उन्होंने अपना अनुभव बताया।एक बार जैसे ही सर्दियों की शाम बस से उतरा पुलिया पर चार लोग थे। मुझे तो खुशी हुई कि जिलू मिल गया। मैंने उसकी आवाज से पहचान लिया। वो बोला भइया! तुम इस बख्त मत आया करो। वस कह दिया।‘ यानि यदि पहचान में नहीं आते तो लुटना पिटना तय था। यही वही क्षेत्र है जहां छ: महीने पहले बुलंदशहर के पास जी.टी.रोड पर लूट पाट और बलात्कार की घटना हुई थी और जिसे इसी उत्तर प्रदेश उर्फ उत्तम प्रदेश के पश्चिमी क्षेत्र के एक राजनेता और नजदीकी हैसियत के कद्दावर मंत्री ने राजनैतिक दुष्प्रचार बताया था। यह अलग बात है कि उन्हें ऐसा कहने पर सुप्रीम कोर्ट में स्पष्ट शब्दों में माफी मांगनी पड़ी।
आखिर हालात ऐसे क्यों हुए कि आपको रात के किसी भी पहर अमेरिका में डर नहीं लगता ,आस्ट्रेलिया में छूटा हुआ सामान अगले दिन मिल जाता है .और तो और केरल, महाराष्ट्र, पांडिचेरी से लेकर गुजरात तक आप रात में भी कार, मोटरसाईकिल से वेखटके आ जा सकते हैं। लेकिन जिस मिट्टी से आप बने हैं, जिस मातृ भूमि का स्वर्ग से बढ़कर बताते हैं ,राष्ट्रगीत पर इतराते हैं, जिसके चप्पे-चप्पे को आप जानते ,पहचानते भी हैं वहां जाने में भी डर लगता है। और फिर जाते हैं तो ऐसे बताते हैं जैसे हम बचपन में कप्तान कुक की उत्तर ध्रुव की विजय यात्रा या मैंगेलन की दक्षिण अफ्रीका में प्रवेश के भयानक दुस्साहस के विवरण बता रहे हों।
बाकई जितनी असुरक्षित गंगा घाटी है उतना देश का दूसरा हिस्सा नहीं। सरकारी स्कूल बिल्कुल चौपट। नये नुक्कड़ अंग्रेजी के धंधे करते स्कूलों में पढ़ाई के नाम पर वस कुछ सर्टिफिकेट दिए जा रहे हैं। इससे नुक्सान और भी ज्यादा क्योंकि इतनी फीस देने के बाद वे और उनके मां-बाप खेती-क्यारी के उस काम से भी बचना चाहते हैं जिसे वे पुस्तैनी करते थे। सरकारी स्कूल की सहज हिन्दी में शिक्षा उन्हें यथार्थ से इतना दूर तो नहीं करती थी। नौकरी विशेषकर सरकारी मिलेगी नहीं, कोई काम व्यवसाय उद्योग न है, न समाज सरकार ने सिखाया तो वे सड़कों पर खड़े अंधेरे का इंतजार कर रहें हैं कि कब कोई आये और ये उसका शिकार करें। दिन में भारत माता की जय और रात में ऐसी तैसी। शिकार को पकड़ने के नये नये किस्से आम अखवारों में पढ़ते ही होंगे। कभी मरीज बनकर, कभी पत्नी, बच्चे की कराह या किसी और मककड़ – जाल में जो भी फंस जाये वस .हलाल। यहां तक कि थाने में रिपोर्ट भी दर्ज नहीं होती। पिछले तीन दशक की हर रंग की सत्ता के बावजूद यह डर हर साल और गहराता गया है।
हारे को हरिनाम के सटीक उदाहरण के रूप में इस निर्वात में अचानक धार्मिकता ने खूब पैर पसारे हैं। जब भी गांव जाता हूं पता लगता है भागवत कथा चल रही है। चालीस-पचास साल पहले सत्यनारायण की कथा जरूर होती थी या किसी मंदिर में शाम को कुछ कीर्तन नुमा। घंटे आधे घंटे में खत्म। अब यह हफ्ते तक चलता है। आ बैठा है आधा गांव। खेती भी बदल गयी। खरीफ में धान, गन्ना वो दिया ,रबी में गेहूं। महीनों देखने खेतो पर जाने की जरूरत ही नहीं है। हल -बैल भी नहीं रहे तो ठाल-बैठे क्या करें? पंडिताई, भक्ति का धंधा पूरे जोरों पर। बनारस, पटना के पंडे इधर आ रहे हैं तो ये उधर। खेती वाड़ी, गन्ना, कोल्हू के कामों में गांव के सभी लोगों, जाति विरादरी की जो भागीदारी हो जाती थी वह भी खत्म। जाति विभाजन, द्धेष और भी क्रूर अमानवीय। काश !इस धर्म ने समाज में जाति विद्धेष को खत्म करने का काम ही किया होता।
ऐसे में एक अच्छी शिक्षा, खेलकूद या दूसरी व्यावसायिक गतिविधियां, प्रशीक्षण इस निर्वात को भर सकते थे। लेकिन नकल, बईमानी और चौबीस घंटे की धारावाहिक राजनीति ने उसे भी निगल लिया। गांव वे गांव नहीं रहे जैसा सपना महात्मा गांधी देखा करते थे। बाबा साहब अम्बेडकर सचमुच ज्यादा यथार्थवादी थे। वे जाति व्यवस्था से जकड़न की मुक्ति शहरीकरण में ही देखते थे। लेकिन शहर के मेरे दिल्ली के अफसर दोस्त इन गांव वालों, आदिवासियों को दिल्ली की झुग्गियों में भी नहीं देखना चाहते और खुद गांव जाने से भी डरते हैं.वस दूर से गाते रहते हैं -गांव में बहार है।
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