कलकत्ता के उस अमीर अस्पताल की आग की लपटों ने न जाने कितनों के सपनों को खाक कर दिया । सोच कर भी सिहरन हो उठती है कि जो बीमार अस्पताल से छुट्टी पाने की सुबह का इंतजार कर रहा था वह घुट कर मर गया । सैंकड़ों चित्र हैं उस सबसे महंगे अस्पताल के वीभत्स और करुण दृश्यों के । उस नर्स की आवाज अभी भी कानों में गूंज रही है जिसने मरीज को बचाने के लिए अपनी जान दे दी । उस जलते अस्पताल के सघन धूएँ के बीच केरल में बैठी अपनी बूढ़ी मॉं के लिए वह इतना ही संदेश दे पाई कि मॉं मैं आग के बीच में हूँ और एक मरीज को निकाल रही हूँ और फोन कट जाता है । केरल की ऐसी दो नर्सों ने अपनी जान दे दी । आस-पास की जिन झुग्गियों से ये अमीर नफरत करते हैं वहॉं से भी लड़के नौजवान दौड़े और अपनी जान पर खेलकर उन दर्जनों मरीजों को बचाया । क्या आपको नहीं लगता कि दुनिया बची हुई है तो गरीब और ऐसे सेवा भाव करने वालों की वजह से ?
कलकत्ता, बागपत, पूना, महाराष्ट्र या उड़ीसा के आदिवासी क्षेत्र-कहीं के अस्पताल हों हर जगह आपको केरल की नर्स मिलेंगी । शीबा जॉर्ज, मैसी थॉमस, ग्रेसी अब्राहम —। सब की सब केरल से ओर उस उम्र में जब उत्तर भारत की लड़कियां शहरों के मॉलों में मटर गश्ती करती फिर रही हैं तो गॉंव की लड़कियों ने स्कूल ही नहीं देखा । फख्र होता है केरल राज्य और समाज पर जिन्होंने इन लड़कियों को अपने पैरों पर खड़े होना सिखाया । सिर्फ हिन्दुस्तान में ही नहीं दुनिया के किसी भी कोने में बीस-बाईस बर्ष की उम्र में जाने की हिम्मत और कुशलता दी । यह समाज एक आजादी के साथ इनको जीना तो सिखाता ही है उस व्यवसाय, काम को भी नोबल, पवित्र और गरिमामय मानना भी ।
इसकी तुलना कीजिए विशेषकर उस हिन्दी क्षेत्र से जहां न पचास साल पहले कोई नर्सिंग का कॉलेज था और न आज । पिछले दिनों हजारों कुकुरमुत्ते की तरह उग आए इंजीनियरी, एम.बी. ए., एम.सी.ए. कॉलेजों के बीच नर्सिंग का काम घटिया और गंदा समझा जाता है । मॉं बाप को पानी, दवा-दारू देना ही जब इतना कठिन हो तो गरीबों, दर्द से कराहते बीमारों की सेवा करना कितने बड़े साहस और समर्पण का काम है ? शायद ही किसी बेटी के सपनों में यह डाला जाता हो कि वे बड़ी होकर नर्स बनेगी । डॉक्टरी जैसे शब्दों को इंजीनियरिंग के साथ-साथ जरूर रटा दिया जाता है ।
जड़ें बहुत गहरी हैं इस पूरी सोच की । एक दूर की रिश्तेदार महिला नर्सिंग के एक अस्पताल में नौकरी करती थीं । इसीलिये उनकी शादी नहीं हो पाई । जहॉं भी बात बढ़ती मूँह टेड़ा किया जाता ‘ये भी कोई काम है किसी के गू-मूत साफ करना, रात-बिरात ड्यूटी करना ।’ एक और प्रगतिशील मित्र ने अपनी बेटी का दाखिला नर्सिंग स्कूल में करा दिया । अगले ही दिन उनके तथाकथित शुभ चिंतक रिश्तेदार घर पर हाजिर थे । ‘तू अपनी बेटी की जिंदगी बरबाद करना चाहता है ? तुझे पता भी है कि नर्सों की शादी हमारी बिरादरी में कितना मुश्किल काम है ?’ लड़की ने नर्सिंग का कॉलेज नहीं छोड़ा और शादी इस समझौते पर हुई कि यदि वहीं किसी कॉलेज में पढ़ाने का काम मिला तो ठीक वरना घर बैठना ।
न जाने कितनी परतें हैं जिन्हें हटाएं तो हिंदू समाज की गंदगी तार-तार दिखाई देती है । बनना है तो सभी को आई.ए.एस., आई.पी.एस., इंजीनियर या बहुत हुआ तो दारोगा, सिपाही, इंसपेक्टर । रौब और मोटी कमाई जो है । पूरे समाज की बनावट और सपने एक से हैं । सवर्ण हों या दूसरी जातियां । क्या केरल की होड़ा-होड़ी इन्होंने कभी सोचा कि हमारी बेटियां भी इस रूप में क्यों नहीं आगे आती हैं ? हिन्दी पट्टी में तो इनके साथ बदसलूकी भी कम नहीं होती । कुछ वर्ष पहले बागपत के अस्पताल में काम करने वाली नर्सों के साथ बलात्कार की घटनाएं सामने आई थीं और उतना ही निर्लज्ज व्यवहार था वहां की पुलिस का । यानि जो इनके मरीजों को ठीक कर रहे हैं, उनकी सेवा भी कर रहे हैं ये दरिंदे उनके प्रति भी संवेदनशील नहीं हैं । अंजाम पूरा समाज भुगत रहा है हिन्दू भी, मुसलमान भी ।
धर्म के नजरिए से देखें तो केरल की इन नर्सों में नब्बे प्रतिशत ईसाई हैं । आंकड़े बताते हैं कि मुसलमान लड़कियों की संख्या तो लगभग जीरो है । केरल में अच्छी साक्षरता होने के बावजूद भी शिक्षक के व्यवसाय को छोड़कर मुसलमान लड़कियों की भागीदारी पूरे समाज के संदर्भ में उत्साहवर्धक नहीं कही जा सकती । लेकिन केरल का हिन्दू समाज भी नर्सिंग के काम को वह सम्मान नहीं देता जैसा ईसाई समुदाय । नर्सिंग के काम को अभी भी वे अपेक्षाकृत निम्न श्रेणी का मानते हैं जिसमे निचले तबके की गरीब लड़कियां जाती हैं । गरीबी की बात सच हो सकती है लेकिन क्या गरीब हिन्दू और मुसलमानों में नहीं हैं । ये नर्सें गरीब, पिछड़े, दलित वर्गों से हैं तब तो ये और भी नमन योग्य हैं । क्या सीखा उत्तर प्रदेश, बिहार के दलित और सवर्णों ने इस सब से । मामला कहीं-न-कहीं धर्म के उस नजरिए का भी है जहां सब कुछ सिखाया जाता है सेवा भाव नहीं । सेवा ? वो भी हमारी बहन बेटियां किसी दूसरे की करें । हिन्दू और मुसलमान दोनों समाजों को हमने बहुत करीब से जाना है । ऐसा नहीं कि वहॉं इन महिलाओं को कोई राजगद्दी दी हुई हो । ये घर का भी काम करती हैं और बाहर के काम भी चाहे पहाड़ की स्त्रियां हों या पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानी का काम । लेकिन ये चाहते हैं कि इनकी सेवाएं सिर्फ उनके पति, बच्चों और परिवार को मिलें । हिन्दू महिला अपना घूंघट काड़े चुपचाप अपना काम करती रहे और मुसलमान अपने बुरके में । घूंघट, बुरके से बाहर आना तो उनके लिए पतित होना है ।
25 दिसंबर, 2011 की एक घटना ने पूरी दुनिया का ध्यान खींचा है । फ्रांस के एक अस्पताल में एक मुसलमान युवक ने उस नर्स की पिटाई कर डाली जहॉं एक मुसलमान महिला प्रसूति के लिए दाखिल थी । नर्स का कसूर सिर्फ इतना बताते हैं कि प्रसूति के उन क्षणों में उसने उस महिला के हित में चेहरे से परदा हटा दिया था । बाहर खड़े उसके पति ने शीशे के आरपार यह दृश्य देखा तो गुस्से से आग-बबूला हो गया । वह दरवाजा तोड़कर अंदर घुसा और नर्स को धुन डाला । उस पति को छह माह की सजा कोर्ट ने यह कहते हुए दी कि ‘आपके निजी कानून देश के कानून से ऊपर नहीं हो सकते ।’
लेकिन क्या ऐसे कानून हमारे देश में लागू हो रहे हैं ? क्या निजी कानून विशेषकर महिला विरोधी जो उन्हें चौदहवीं, पंद्रहवीं सदी में बनाए रखना चाहते हैं वे भारतीय संविधान की सारी धाराओं पर भारी नहीं पड़ रहे ? यदि ऐसा न होता तो क्या हमारे अस्पतालों में काम करने वाली नर्सें हजारो मील दूर केरल से आतीं या अस्पताल अच्छी नर्सों की कमी से त्रस्त रहते ?
धर्म की यहां भूमिका महत्वपूर्ण जान पड़ती है । बताते हैं कि 1914 में ब्रिटिश शासन के अंतर्गत फलोरेंस नाइटेंगिल ने ब्रिटिश सेना के लिए केरल में नर्सों की भरती की शुरूआत की । हिन्दुओं ने न तब ऐसे काम में जाना और अपनी बेटियों को भेजना उचित समझा और न आज । पूरे देश भर में आज भी नर्सिंग के काम को नीच या गुलामी का काम माना जाता है । इसलिए ये नर्सें भी जब तक खास मजबूरियां न हों, तुरंत इंग्लैंड, अमेरिका, जार्डन, माल्टा, आस्ट्रेलिया जैसे देशों में चली जाती हैं जहॉं उनके काम की इज्जत भी है और इन्हें पैसा भी अच्छा मिलता है ।
कई नजरियों से इस पूरे चित्र को देखा जा सकता है । लड़कियां अपने पैरों पर खड़ी हैं, आजाद हैं, स्वावलंबी हैं तो लड़के लड़की का भेद भी समाज नहीं मानता । नतीजा केरल में लड़कियों का अनुपात कहीं बेहतर है । विदेश जाती हैं, पैसा वापिस भेजती हैं, तो राज्य की आमदनी बेहतर है । केरल के अस्पताल इन्हीं नर्सों की वजह से आज दुनिया भर में धूम मजाए हुए हैं । अफ्रीका और गल्फ देशों के मरीज वहॉं ऐलोपैथी से लेकर आयुर्वेदिक इलाज के लिए आते हैं । और भी चौंकाने वाली बातें हैं । जैसे इनका अपनी भाषा, संस्कृति के प्रति मोह । शायद ही कोई महानगर या शहर हो जहां इनका मलयाली एसोसिएशन न हो और बच्चे अपनी भाषा में बात न करते हों । दिल्ली के एक अस्पताल से तो एक नर्स को इसीलिए निकाल दिया गया था कि वह मलयाली बोल रही थी । यानि देसी परंम्परा और संस्कृति पर भी नाज है तो सेवा और हर काम अच्छा है की चेतना से भी संपन्न है । यही कारण है कि दिल्ली से लेकर गोवाहाटी, इलाहाबाद, पटना में काम करने वाले कुट्टी, नारायन रिटायरमेंट के बाद तुरंत केरल कूच कर जाते हैं । दिल्ली मेट्रो का अनूठा उपहार देने वाले ई. श्रीधरन भी । केरल की नर्सें हिन्दी पट्टी को बहुत कुछ सिखा सकती हैं ।
धन्य हैं केरल और केरल की नर्सें !
दिनांक : 02/01/2012