एम करूणानिधि (1924-2018) जैसे तमिल राजनेताओं को उत्तर भारत में हिन्दी विरोधी के रूप में चित्रित किया जाता है। यह सरासर गलत व्याख्या है और राष्ट्रीय एकता के भी खिलाफ। दरअसल वे ऐसे राजनेता थे जो तमिल के पक्ष में कहीं ज्यादा ईमानदारी से जीवन पर्यन्त लड़ते रहे। मुझे व्यक्तिगत अनुभव हुआ लगभग दस वर्ष पहले तमिलनाडु यात्राओं से .तमिलनाडु के ऊटी नगर में दिसंबर में संसदीय राजभाषा समिति ने रेलवे में राजभाषा हिन्दी की स्थिति को जानने के लिए बैठक रखी थी। हिन्दी–नौटंकी से जुड़े किसी भी शख्स को इस बात पर आश्चर्य नहीं होगा कि ऐसी बैठकें ऐसे मनोरम पर्यटन स्थलों पर ही पांच सितारा होटलों में क्यों रखी जाती हैं। सुबह बैठक शुरू होने में अभी देर थी अत: मैं शहर और समाज का जायजा लेने सड़क पर खड़ा था। हर शहर की सड़कों की तरह ही बच्चे अपनी अपनी बसतों के साथ स्कूलों की तरफ दौड़े जा रहे थे। कुछ बच्चों के साथ चलते-चलते बात हुई। ग्यारहवी बारहवीं के बच्चे विज्ञान के छात्र थे। वनस्पति शास्त्र, रसायन, भौतिकी। लेकिन मध्यम क्या है? यानि पढ़ने पढ़ाने का? तमिल उनका उत्तर था। यही उत्तर था इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र पढ़ने का अधिकांश का । याद दिला दें इनमें कुछ बच्चे कांवेंट स्कूल उर्फ निजी स्कूलों के थे तो कुछ सरकारी स्कूलों के। मैंने रेलवे से जुड़े अधिकारियों से अनुभव साझा किया तो पता चला कि करूणानिधि ने जब 2006 में पांचवी बार मुख्यमंत्री पद संभाला तो तमिल भाषा के पक्ष में लगातार ऐसे कदम उठाये हैं। अपने कार्यकाल में उन्होंने पहले कक्षा दस तक तमिल भाषा साहित्य की पढ़ाई अनिवार्य की और फिर एक सख्त आदेश के तहत यह सुनिश्चित किया की प्राइमरी शिक्षा का माध्यम केवल तमिल होगा, अंग्रेजी नहीं। विरोध में कुछ सुगवुगाहट जरूर हुई लेकिन यह आज तक लागू है।इसके विपरीत उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड और दिल्ली सहित कई राज्यों में अंग्रेजी के पक्ष में बच्चों पर विदेशी भाषा लादी जा रही है।
यह वह दौर था जब केन्द्र में यूपीए की सरकार थी और अंग्रेजी के प्रवक्ताओं –साम पेत्रोदा, सिब्ब्ल, थरूर, मनमोहन सिंह का अंग्रेजी के पक्ष में स्वर्णिम काल था। साम पेत्रोदा के ज्ञान आयोग ने अंग्रेजी के पक्ष में ऐसा माहौल बना दिया कि अगले दस वर्ष में सारी दुनिया को अंग्रेजी सिखाने के लिए लाखों शिक्षक भारत ही उपलब्ध करायेगा। इसी राग में राग मिलाते हुए कर्नाटक में कन्नड भाषा पढ़ने-पढ़ाने के विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय में कहा गया कि ‘बिना अंग्रेजी जाने तो आप चपरासी भी नहीं बन सकते। अत: कन्नण सीखना न सीखना अभिभावकों, बच्चों के ऊपर छोड़ देना चाहिए।‘ लेकिन अंग्रेजी के पक्ष में चलने वाली ऐसी किसी भी हवा का असर तमिल माध्यम से पढ़ने वाले तमिलनाडू पर नहीं पड़ा। उल्टे उन्हीं 2009-10 के वर्षों में तमिलनाडू अकेला राज्य था जिसने इंजीनियरिंग पढ़ने वाले छात्रों की AIEEE प्रवेश परीक्षा से अपने को अलग कर लिया। आई आई टी की तरह यह परीक्षा भी पूरे देश के इंजीनियरिंग कॉलिजों के लिए थी। यहां भी उनकी पक्षधरता तमिल माध्यम से पढ़ने वाले अपने विद्यार्थियों के साथ थी कि वे तमिलनाडू के कॉलिजों में ही पढ़ेंगे जहां तमिल भाषा में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी के साथ उपलब्ध है। मदुरै, तंजावुर के मेडिकल, इंजीनियरिंग कॉलिज शायद देश के पहले ऐसे प्रतिष्ठान होंगे जहां भारतीय भाषा-तमिल में पूरी शिक्षा उपलब्ध है। तमिलनाडू के दूसरे विश्वविद्यालयों में स्कूलों में भी अपनी भाषा में पढ़ने का विश्वास अंग्रेजी के आतंक के बावजूद अभी भी कायम है। दो वर्ष पहले मेडिकल प्रवेश परीक्षा नीट भारतीय भाषाओं में कराने के पीछे भी तमिलनाडू सरकार का दबाव रहा है। नतीजा आज उर्दू, मलयालम, तमिल सहित आठ भाषाओं में मेडिकल प्रवेश परीक्षा दे सकते हैं। मौजूदा मोदी सरकार द्वारा भोपाल के अटल बिहारी विश्वविद्यालय में इंजीनियरिंग की पढ़ाई हिन्दी में शुरू करने की बात तो हाल की है। इसमें भी अभी बहुत सफलता नहीं मिली।
अपनी भाषाओं में पढ़ने-पढ़ाने का कहीं ज्यादा श्रेय दक्षिण के राज्यों को जाता है विशेषकर तमिलनाडू को। याद कीजिए वर्ष 2011में तत्कानीन सरकार ने सिविल सेवा परीक्षा के प्रारंभिक चरण में ही अंग्रेजी जोड़ दी थी। नतीजा सारी भारतीय भाषाओं में पढ़ने वाले बाहर। अंग्रेजीदां यूपीए सरकार यहीं नही रूकी। 2013 में सिविल सेवा परीक्षा की मुख्य परीक्षा में भी भारतीय भाषाओं के खिलाफ ऐसे नियम बनाए कि विरोध में संसद तक ठप्प हो गयी। लेकिन इसके खिलाफ आवाज उठाने वाले सबसे पहले थे, जयललिता की पार्टी के तमिल और महाराष्ट्र के शिवसेना के संसद सदस्य। हिन्दी पट्टी उर्फ गोवरपट्टी के रहनुमा- तो माध्यम भाषा और पढ़ने-पढ़ाने के अंतर को भी मुश्किल से समझ पाते हैं। संसद से सड़क तक युवाओं के प्रतिरोध ने सरकार के 2013 के निर्णय को तो वापस किया ही, अगस्त 2014 में उस अंग्रेजी को भी सी सैट परीक्षा से निकाल दिया जो वर्ष 2011 में बिना संसदीय प्रक्रिया, विचार-विमर्श के लाद दी गयी थी।
अपनी भाषा के पक्ष में तमिलनाडू में यह तेवर आज भी कायम है। हिन्दी वालों को इससे सीखना चाहिए। इस का सबसे बड़ा श्रेय करूणानिधि को जाता है। वर्ष 2006 में उनके प्रयासों से तमिल ‘क्लासिक’ भाषा घोषित हुई। उच्च स्तर तक तमिल भाषा को बढ़ाने के लिए अध्ययन पीठ खुले, शब्दकोश निकाले गए और अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं से अनुवाद किए। पिछले कुछ दशक से करूणानिधि का जन्मदिन तमिल भाषा में लिखने वाले साहित्यकारों के लिए एक सौगात के रूप में मनाया जाता रहा है। जब वे अस्सी वर्ष के हुए तो अस्सी साहित्यकारों को पुरस्कार, पेंशन आदि सुविधाएं दी गयी जब नब्बे वर्ष के हुए तो और नब्बे लोगों को। केवल देश में ही नहीं विदेशों में मलेशिया, फ्रांस आदि जगहों पर अंतर्राष्ट्रीय तमिल संगम आयोजित किए गए। करूणानिधि सत्ता में रहे हों या बाहर तमिल भाषा साहित्य के प्रति उनका अनुराग सदा अनुकरणीय रहा। और इसलिए इस राजनेता ने तमिलवासियों के दिल पर पचास वर्ष से ज्यादा राज किया।
यों 1967 में कांग्रेस तमिलनाडू में हिन्दी विरोधी आंदोलन के तूफान से ऐसी बाहर हुई कि कभी फिर पैर नहीं टिका पायी। एमजी रामचंद्रन, करूणानिधि, अन्नादुराई से लेकर जयललिता की पहली प्राथमिकता तमिल भाषा रही है। इसमें कोई बुराई भी नहीं है। आखिर लोकतंत्र में लोक सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं – यानि कि उसकी भाषा, साहित्य। क्या तमिल भाषा पर आग्रह करने से तमिलनाडू विकास की गति में पीछे रहा? नहीं। बल्कि लगभग दो दशक तक विदेशी कंपनियों की पहली प्राथमिकता तमिलनाडू , महाराष्ट्र जैसे राज्य रहे हैं। कानून व्यवस्था, सड़क, सफाई, विकास दर, लिंग अनुपात, स्त्री शिक्षा, कल्याणकारी योजनाएं सभी में तमिलनाडू बेहतर स्थिति में। सामाजिक न्याय के पक्ष और धर्म निरपेक्षता के मानदंडों पर भी।
और हां अंग्रेजी भी तमिलभाषी हिन्दी प्रदेशों से बेहतर जानते, समझते, लिखते हैं। क्योंकि अपनी भाषा में पढ़ने-पढ़ाने से जो समझ पैदा होती है उसके बाद किसी भी विदेशी भाषा को पढ़ना, समझना ज्यादा आसान होता है।
भाषा साहित्य की इसी विद्धता के नाते उन्हें तमिल जनता प्यार से ‘कलाकार’ नाम से पुकारती थी। दरअसल एक अतयंत पिछडे समाज में पैदा हुए करूणानिधि की शिक्षा तो केवल पांचवी तक ही हो पायी लेकिन अपने अध्ययन के बूते वे साहित्य की सीढि़यां लगातार चढ़ते गए। पत्रकारिता की, फिल्मों के लिए पटकथाएं लिखी, कविता, कहानी सब कुछ। और हाल में नब्बे वर्ष की उम्र तक। जीवन के शुरुआत में ही पराशक्ति फिल्म जिसने शिवाजी गणेशन को रातों रात स्टार बना दिया उसकी पटकथा करूणानिधि ने ही लिखी थी। तमिल साहित्य, भाषा के रास्ते फिल्मी दुनिया से राजनीति के सर्वोच्च शिखर तक जो मुकाम हासिल किया उसे बेमिसाल ही कहा जाएगा। इन सभी पटकथाओं में समाज सुधार की चेतना है- जाति व्यवस्था, ब्राह्मणवाद, मूर्ति पूजा, अस्पृश्यता का तीखा विरोध। वे सरेआम अपने को नास्तिक कहते थे। लेकिन फिल्मो में उन्होंने धार्मिक मिथकों, कहानियों का भरपूर उपयोग किया या कहें सामाजिक सुधार ,बरावरी की भावना के लिए. साहित्य, भाषा की इससे बड़ी उपलब्धि कामयाबी क्या हो सकती है।
अंग्रेजी के पीछे भागते हिन्दी पट्टी के राजनेताओं, लेखकों, बुद्धिजीवियों को करूणानिधि से सीखने की जरूरत है।