एन.सी.ई.आर.टी. में निदेशक के रूप में पांच साल पूरा करने के बाद कृष्ण कुमार वापस दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षा विभाग में मार्च 2010 के पहले सप्ताह में पहुंच गये हैं । उनके कार्यकाल में बनाया गया पाठ्यक्रम और ऐतिहासिक दस्तावेज एन.सी.एफ. 2005 शिक्षा जगत में महत्वपूर्ण उपलब्धि है ।
मैं अपने को खुशकिस्मत मानता हूँ कि मेरा नाम भी एन.सी.ई.आर.टी. की उन पुस्तकों से थोड़ा बहुत जुड़ा जो प्रो कृष्ण कुमार की छत्रछाया में बनाई गयी हैं । ‘छत्रछाया’ जैसे शब्द का इस्तेमाल मैं जान बूझकर कर रहा हूँ । क्योंकि हर विषय के लिए जो टीम उन्होंने सुझाई उसमें संभवत: उनका किसी तरह से सीधे शीर्ष पर या नौकरशाही के अंदाज में हस्तक्षेप का नहीं रहा । थोड़ी छाया भर थी । हिंदी के पाठ्यक्रम की बात तो मैं जानता ही हूँ । समाज विज्ञान के बाकी विषयों में भी यही स्थिति बताई गई हैं । यह सुखद संयोग ही था कि हिंदी की पाठ्य पुस्तकों के निर्माण के वक्त मुझे भी शामिल किया गया । पुस्तकें विशेषकर हिंदी की कैसे बनी और कैसे और बेहतर बन सकती थीं, यह दास्तां फिर कभी क्योंकि हिंदी की पुस्तकों से पूरी तरह मैं संतुष्ट नहीं रहा । वैसे ऐसा असंतोष होना भी चाहिए । इससे कई गुना ज्यादा तसल्ली मुझे समाज विज्ञान विशेषकर इतिहास, राजनीति शास्त्र, मीडिया और पत्रकारिता जैसे नये विषयों की पुस्तकों से हुई । एक नयी दृष्टि देती हुई । विचार के सैंकड़ों बिन्दू जिनके बूते पाठ्यक्रम को नया कहा जा सकता है ।
एन.सी.ई.आर.टी. से मेरा संबंध एक विद्यार्थी के नाते कई दशकों से रहा है । सन् 80 के आसपास तब जब मैं दिल्ली पहुंचा और सिविल सेवा की तैयारी के लिए विपिन चंद्रा, रोमिला थापर, सतीश चन्द्र की किताबें पढ़ीं तथा नौवीं, दसवीं से लेकर ग्यारहवीं, बारहवीं की किताबें भी । सिविल सेवा परीक्षा में मैंने इतिहास को इसीलिये चुना । मैं इन्हीं किताबों के बूते सामाजिक विषयों को ज्यादा जल्दी और बेहतर समझ पाया । उत्तर प्रदेश में इतिहास, राजनीति शास्त्र जिस ढंग से पढ़ाया जाता है उससे तो न पढ़ाया जाना बेहतर है । बताते हैं अन्य राज्यों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है । बंगाल में पलड़ा बायें झुका है तो दूसरे राज्यों में दायें । इस इतिहास से तो ऐसा लगता मानो जिन्ना और गांधी लड़ने के लिये ही पैदा हुए हैं । कृष्ण कुमार की किताब ‘मेरा देश तेरा देश’ बताती है कि पाकिस्तान में भी इतिहास पढ़ाने का यही रवैय्या है । इतिहास के प्रति वह लगाव मेरा आज तक बरकरार है । इसके कुछ संशोधित संस्करण सन् 90 के आसपास मैंने फिर से उल्टेपुल्टे । यह तब जब मेरे छोटे भाई ओमा शर्मा सिविल सेवा की परीक्षा दे रहे थे । 90 के बाद तत्कालीन सत्ता द्वारा किताबों में कुछ बदलाव किये गये । लेकिन मुझे उन्हें देखने का सुयोग नहीं मिला ।
तीसरा पड़ाव 2005 में आया जब एन.सी.ई.आर.टी. से मुझे भी पत्र मिला कि नयी पाठ्य पुस्तकें राष्ट्रीय पाठ्यचर्चा 2005 की रोशनी में तैयार की जानी है । इस टीम के अगुआ प्रोफेसर यशपाल और प्रोफेसर कृष्ण कुमार थे ।
हिंदी की किताबों के संदर्भ में मुझे याद है कि कृष्ण कुमार, नामवर सिंह, पुरुषोत्तम अग्रवाल ने सभी सदस्यों के साथ एक बैठक की और फिर अगले तीन-चार साल तक लगातार अलग-अलग टीमें, अलग-अलग पुस्तकों पर काम करती रहीं । इन चार सालों में मुझे नहीं याद कि मैं कृष्ण कुमार से कभी दो-चार मिनट से ज्यादा मिला होऊंगा । मैं खुद इस बात से हैरान रहता था कि नये पाठ्यक्रम की टीमों में सैंकड़ों विद्वान, शिक्षक शिक्षार्थी हैं । देश के कोने-कोने से आने वाले इतने लोगों से कैसे कोई मिल सकता है और ऐसे मिलने का औचित्य भी क्या है । शायद पिछले दिनों वसन्त वैली स्कूल ने जो विदाई बैठक की उस दिन मैं काफी दिनों के बाद खुलकर मिला और अनुरोध भी किया कि आपको कुछ दिन और रहना चाहिए था एन.सी.ई.आर.टी. में ।
मैं अभी भी यकीन करता हूँ कि संस्थाएं दीर्घजीवी होती हैं व्यक्ति नहीं लेकिन फिर भी जैसे किसी बच्चे को पइयॉं-पइयॉं चलाने से लेकर जब तक कि वे अपने बूते दौड़ने न लगे, खुद गिरकर संभलना न सीख पाए, तब तक अभिभावकों को बच्चों का ध्यान रखना ही पड़ता है । मेरी नजर में एन.सी.ई.आर.टी. के शिक्षा इतिहास में पाठ्यक्रम, परीक्षा पद्धति, पुस्तक निर्माण से लेकर शिक्षण प्रशिक्षण, बाल सहित्य, मनोविज्ञान, भाषा, समझ का माध्यम बाल पत्रिका जैसे सैंकड़ों बिन्दूओं पर इतना समान्तर और परस्पर गुणनखंडी काम शायद ही कभी हुआ हो । मेरा मानना है कि पाठ्यक्रम तो ठीक-ठाक बन गया कुछ कमी है भी तो भविष्य में और सुधार हो सकता है लेकिन इस पाठ्यक्रम को जब तक एक गहन प्रशिक्षण के जरिए शिक्षकों के गले नहीं उतारा जाता, उनको समझाया नहीं जाता तब तक बच्चों तक पहुंचना मुश्किल है । मैं स्वयं उन अभिभावकों, शिक्षकों से इस दौर में मिलता रहा हूँ जो बिना एन.सी.एफ. 2005 को समझे या पाठ्य पुस्तकों को देखे ये फतवा दे देते हैं कि ये रोज-रोज किताबें क्यों बनाते और बदलते हैं ? यथास्थिति वादी यह समाज और उसके शिक्षक परिवर्तन की किसी भी आहट से घबराने लगते हैं । इतना अच्छा पाठ्यक्रम जब तक इतने ही उन्मादी मिशन से शिक्षकों के गले नहीं उतार दिया जाता, तब तक मामला वैसा ही रहेगा जिसे डॉक्टर कहते हैं कि ‘एंटी बायोटिक्स का पूरा कोर्स न करने पर बीमारी पूरी तरह से जाएगी नहीं ।’ क्या शिक्षा का जातिवादी, धर्मवादी, पोंगापंथी, अनुशासन की आड़ में तर्कशक्ति की खिलाफत करता यथास्थितिवादी दर्शन किसी भी बड़ी बीमारी से कम है ? नया पाठ्यक्रम यदि पूरे देश के स्कूलों में चलने दिया गया; यदि शिक्षक, अभिभावकों ने नयी मूल्यांकन पद्धति के मर्म और महत्व को समझा तो शायद शिक्षा की तस्वीर कुछ बदल जाए । हालॉंकि इन पंक्तियों को लिखते वक्त 2010 से विदेशी विश्वविद्यालय को भारत में लाने की जो कवायदें, अंग्रेजी को हर जगह लादने की जो कोशिश शुरू हो रही है उसमें कृष्ण कुमार जी की बनायी गयी पाठ्य पुस्तकें कहीं बहस से बाहर ही न हो जाएं इस बात का भी पूरा डर है । क्योंकि विदेशी भाषा और उनके विश्वविद्यालयों को हिन्दुस्तान में लाने के लिए देश की राजनीतिक सत्ता पक्ष और विपक्ष पूरे जी-जान से जुटे हुए हैं । जैसे-जैसे निजी स्कूल बढ़ रहे हैं एन.सी.ई.आर.टी. की पुस्तकों के लिये उनकी कोई प्राथमिकता नहीं है ।
कभी-कभी अपनी बात को कहने के लिए मैंने एन.सी.ई.आर.टी. की टीम के बीच एक किस्सा भी गढ़ लिया था कि हो सकता है कि ‘हमने नयी किताबें यानि बैंगन, टमाटर कम्पोस्ट, देशी खाद (आरगैनिक) से तैयार कर लिये हैं लेकिन यदि इसको बनाने, पकाने वाला रसोइया यानि कि शिक्षक पुराने मिजाज का ही है तो इसके स्वाद का अंतर और असर विद्यार्थी शायद ही ले पाएं ।’
मैंने कृष्ण कुमार जी को कैसे जाना, कब जाना मुझे याद नहीं यों साहित्य अकादमी, या दूसरी लेखक गोष्ठियों में उन्हें देखता सुनता रहा हूँ । रेलवे स्टाफ कॉलिज, बड़ौदा के दिनों में जब वे सिविल सेवा के अधिकारियों को संबोधित करने के लिए आये थे, या अन्य मंचों पर जब-जब सुना लगा कि ऐसा विद्वान तो हमारे आस-पास कोई विरला ही होगा । किसी भी सामयिक मुद्दे पर उनकी मौलिक दृष्टि और मौलिक भाषा आपके ऊपर ऐसा असर छोड़ती है कि आप दीवाने हो जाएं । विशेषकर हिंदी का अकेला ऐसा विद्वान जिसे हिन्दू, इक्नॉमिक्स एंड पालिटिकल वीकली ‘सेमिनार’ से लेकर जनसत्ता और दूसरी पत्र-पत्रिकाएं उतने ही सम्मान से छापती हों । सिर्फ छापना महत्वपूर्ण नहीं है उनके विषयों की विभिन्नता, बच्चों की भाषा, उनकी सीखने सिखाने की सीमाएं और सामर्थ्य से लेकर महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, रघुबीर सहाय, कृष्णा सोबती पर दिये गये अद्भुत व्याख्यान । हिंदी में भी उतनी सहजता और अंग्रेजी में भी । दोनों की मिलावट तो बिल्कुल नहीं । सुभद्रा कुमारी चौहान के तो वे लगभग दीवाने हैं । इतिहास की मुकम्मिल समझ भी कृष्ण कुमार जी को है । पिछले दिनों एक और अद्भुत किताब कृष्ण कुमार जी की आई है । पहले अंग्रेजी में आई ‘प्रीज्यूडिस एंड प्राइड’ जिसका हिंदी में अनुवाद आया है ‘मेरा देश तेरा देश ’ बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक है जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिये । हमें बचपन से किस ढंग से, कैसे इतिहास द्वारा साम्प्रदायिक बनाया जा रहा है इसका बहुत वैज्ञानिक शोध कृष्ण कुमार जी ने किया है । वे पाकिस्तान में भी घूमे और हिन्दुस्तान में भी । हिन्दुस्तान में जिन्ना के खिलाफ जहर उगलकर इतिहास की समझ पैदा की जाती है, तो पाकिस्तान में गांधी पर कोड़े लगाकर । कृष्ण कुमार जी इसी संदर्भ में कहते हैं कि ‘कई बार गलत शिक्षा ज्यादा अहित करती है यानि कि ऐसा इतिहास पढ़ने-लिखने वाले ज्यादा साम्प्रदायिक बनते जाते हैं, बजाय गॉंव देहात के बिना पढ़े-लिखे किसान मजदूर ।’
‘बालिका शिक्षा’ के लिए भी उन्होंने कई अभिनव प्रयोग किये हैं और पिछले दिनों चलते चलते एक और मुहिम उन्होंने चलाई वह थी ‘समझ का माध्यम’ । मुझे लगता है कि शायद ‘समझ का माध्यम’ की शुरूआत और पहले करने की जरूरत थी क्योंकि यदि अपनी भाषाओं के माध्यम से शिक्षा दी जाएगी तभी एन.सी.एफ. 2005 का सपना सार्थक हो सकता है । मुझे पता चला है कि छोटा सा दस्तावेज तो ‘समझ का माध्यम’ तैयार हो चुका है, लेकिन कृष्ण कुमार जी के इंजन के बिना यह देश भर में, दूसरे प्रांतों में और विशेषकर हिंदी प्रांतों की शिक्षा व्यवस्था को कैसे कारगर ढंग से बदलेगा, मुझे इसमें संदेह है । कभी-कभी यह भी लगता है कि नयी सरकार की अंगेजी परस्त निजी स्कूलों को बढ़ावा देने की नीतियों के साथ तालमेल के दबाव में कृष्ण कुमार जी स्कूल और अपनी भाषाओं में नीचे से ऊपर तक शिक्षा देने के मुद्दे पर उतने मुखर नहीं रहे जितनी कि उनसे देश भर को उम्मीद थी ।
मैंने जब भी कृष्ण कुमार जी को एन.सी.ई.आर.टी. में और टिके रहने के लिए उकसाया जैसा कि निदेशक बनने के वक्त मुझे सबसे ज्यादा तसल्ली हुई थी, कि इस पद के लिए उनसे बेहतर भाषाविद्, शिक्षक, समाज विज्ञानी नहीं हो सकता, वे सिर्फ मुस्कुराते हुए आगे बढ़ जाते हैं । शायद संकेत देते हुए कि अभी मुझे इससे भी बड़े काम करने हैं ।