भाषा के मसले ने व्यक्ति, समाज और पूरी शिक्षा व्यवस्था को चौपट कर रखा है । नवम्बर, 2012 में एक प्रमुख मीडिया हाउस ने नई दिल्ली में दो द्विवसीय ‘लीडरशिप वार्ता’ आयोजित की थी । पिछले दस सालों में इस विमर्श में कभी-कभी जाने का सुयोग मिला है । कई दृष्टियों से उसे आपसी संवाद का एक महत्वपूर्ण अवसर कहा जा सकता है । एक सत्र में क्रिकेट पर बातचीत थी जिसमें कपिल देव, अजय जड़ेजा, सुरेश रैना भी शामिल थे और संयोजक की भूमिका निभा रहे थे राजद्वीप सरदेशाई । कपिल से संवाद के सिलसिले में जब कहा गया कि भारतीय क्रिकेट के अस्सी के दशक की टीम में आप शायद पहले खिलाड़ी थे जो कस्बे से राष्ट्रीय टीम में शामिल हुए थे । कपिल देव ने हां में सिर हिलाया लेकिन यह जोड़ते हुए कि कस्बे से ज्यादा महत्वपूर्ण बात है कि मैं पहला खिलाड़ी था जिसे अंग्रेजी बोलनी नहीं आती थी और मुझे कैप्टन बनाने का विरोध इसी आधार पर हुआ कि अंतर्राष्ट्रीय टीमों के साथ ऐसा कैप्टन अंग्रेजी में कैसे बात करेगा । कपिल के स्वर में गुस्सा उभर रहा था । उन्होंने अपनी बात विस्तार से बताई कि ‘मुझे कहना पड़ा कि अंग्रेजी जानने वाला कैप्टन चाहिए तो ऑक्सफोर्ड से मंगा लीजिए । क्रिकेट खेलना जरूरी है या अंग्रेजी बोलना । कुछ लोगों को इस बात पर एतराज था कि इनका अंग्रेजी में पंजाबी का उच्चारण झलकता है । मैंने कहा कि मैं पंजाब से हूं तो पंजाबी ही झलकेगी, अमेरिका तो नहीं ।’ पूरा हाल उनकी ईमानदारी पर तालियां पीट रहा था । याद कीजिए इस सभाग्रह में वे मध्य वर्गीय बुद्धिजीवी, पत्रकार, नौकरशाह, उद्योगपति थे जो भारतीय भाषाएं जानते हों या नहीं, अंग्रेजी जरूर जानते हैं । तालियों की गड़गड़ाहट थमने के बाद कपिल देव फिर भाषा के मसले पर और आगे बढ़े, नये खिलाड़ी टीम में बाद में शामिल होते हैं यदि तीन दिन के लिए भी अमेरिका, इंग्लैंड या आस्ट्रेलिया चले जाएं तो उनका उच्चारण अमेरिकन लहजे का होने लगता है । उन्होंने लगभग बिराते हुए ऐसे खिलाडि़यों का मजाक उड़ाया और कहा कि अंग्रेजी को इतना महत्व देने की जरूरत नहीं है । क्रिकेट जरूरी है अंग्रेजी नहीं ।
यूं कपिल देव अब उसी नफासत की अंग्रेजी बोल लेते हैं जैसे हिन्दुस्तान के दिल्ली, बम्बई, कलकत्ता में कुछ साल रहा कोई पत्रकार या जागरुक नागरिक लेकिन उनके साथ अंग्रेजी के नाम पर जो हुआ उसकी टीस उनके दिमाग में सफलता की इतनी सीढि़यां चढ़ने के बाद आज तक जिंदा है । क्या भाषा के आधार पर छुआछूत या भेदभाव जाति, धर्म की अस्पर्श्यता से कम घातक है ?
इसी सत्र के तुरंत बाद एक सत्र सिनेमा पर था जिसमें शाहरुख खान और कैटरीना कैफ थे । इसके संयोजक थे पत्रकार वीर सिंघवी । कैटरीना ने स्पष्ट किया कि क्योंकि मैं इंग्लैंड में पली बढ़ी इसलिए मुझे शुरू के दो-तीन साल हिन्दी फिल्मों या हिन्दुस्तान में काम करने में बड़ी दिक्कतें पेश आईं । मेरा सोचने का तरीका अंग्रेजी में ही था । लेकिन पिछले दस सालों में हिन्दी फिल्मों में काम करते हुए देश के अलग-अलग हिंस्सों में जाना पड़ता है तब मुझे लगता है कि काश ! हिन्दी मेरी पहली भाषा होती तो मैं और सफल अभिनेत्री बन सकती थी । लेकिन हिन्दुस्तान टाइम्स की अगुवाई में हुई गोष्ठी में कपिल और कैटरीना ने अपनी भाषा के पक्ष में जो कहा अंग्रेजी के अखबारों की तो छोड़ो, हिन्दी के हिन्दुस्तान अखबार में भी कहीं उसका जिक्र नहीं था । कपिल पर समाचार लगाने के बावजूद । क्या हिन्दी अखबार का संपादक, पत्रकार इतना कमजोर पड़ गया है कि अपना पक्ष भी नहीं रख पाया । फिर ये संपादक किस मुंह से दुनिया को तरह-तरह के क्रांतिकारी सुझाव देते फिरते हैं ।
ये दो उदाहरण संभवत: पर्याप्त हैं इस बात को रेखांकित करने के लिए कि अपनी भाषा का क्या महत्व है वह चाहे हिन्दी हो पंजाबी हो या कोई दूसरी भारतीय भाषा । आप जानते हैं कि क्रिकेट और फिल्में भारतीय मानस के कितनी करीब हैं । हिन्दी के प्रचार-प्रसार में जितना योगदान हिन्दी फिल्मों ने दिया है उतना भारत सरकार के सारे विभाग मिलकर भी नहीं कर सकते । मलेशिया, इंडोनेशिया, श्रीलंका जैसे देश हों या रूस, पाकिस्तान और अन्य देश । हिन्दी फिल्मों के दीवाने फिल्मों की बदौलत हिन्दी सीख रहे हैं । लेकिन अपने देश में इसके ठीक उलटा हो रहा है । मुम्बई फिल्मों के एक निर्देशक अनुराग कश्यप ने पिछले दिनों एक इंटरव्यू में कहा कि ऐसे लोग मुम्बई की फिल्मी दुनिया में कम-से-कम होते जा रहे हैं जो देवनागरी हिन्दी में लिखे संवाद पढ़ते हों । अमिताभ बच्चन, धर्मेन्द्र, नशीरूद्दीन, ओम पुरी जैसे अपवादों को छोड़ दें तो सभी अभिनेता और अभिनेत्रियों को संवाद अंग्रेजी, रोमन में लिख कर देने पड़ते हैं । उन्होंने उसी साक्षात्कार में यह भी कहा कि अच्छी हिन्दी के प्रयोग करने वालों की मुम्बई में हंसी और उड़ाई जाती है । मौजूदा भारत में भाषा का प्रश्न इन जटिलताओं से गुजर रहा है और इसका अंजाम है कि चारों तरफ अंग्रेजी पढ़ने, सीखने की ऐसी होड़ कि न तो सही सीखाने वाले उपलब्ध और न सीखने वाले ।
एक और प्रसंग- पिछले हफ्ते मोदी नगर में रह रहे मेरे एक करीबी का फोन आया कि उनके बेटे को इंजीनियरिंग पाठयक्रम में अंग्रेजी न जानने की वजह से बहुत परेशानी हो रही है । बच्चे से बातचीत करने पर पता लगा कि वह धीरे-धीरे निराशा की तरफ बढ़ रहा है । उसका कहना था कि मुझे गणित या इंजीनियरी या और किसी विषय को अंग्रेजी में लिखने में कोई परेशानी नहीं है । परेशानी है तो कुछ सामाजिक विषय जैसे- पर्यावरण, मानविकी के विषयों में उत्तर लिखने में । यहां गौर करने लायक बात यह है कि मोदी नगर मेरठ के नजदीक उस क्षेत्र में है जिसे खड़ी बोली का गढ़ माना जा सकता है । सिर्फ केन्द्र की ही भाषा हिन्दी नहीं उत्तर प्रद्रेश, बिहार के राज्यों की भी भाषा हिन्दी है और सीधे शब्दों में यहां की जनता एक प्रतिशत भी अंग्रेजी नहीं जानती होगी । प्राचार्य से लेकर अध्यापक भी सभी हिन्दी भाषी हैं तो छात्र भी शतप्रतिशत आसपास के हिन्दी भाषा राज्यों के । उत्तर प्रदेश के इंजीरिनयरिंग कालेजों का स्तर अभी ऐसा नहीं हुआ है जहां दक्षिण भारतीय पढ़ने के लिए आएं । विदेशों छात्रों की तो बात ही छोडि़ए । तो फिर गुलामी की कौन सी परछाईयां हैं जिसकी सजा ये शिक्षक खुद भी भुगत रहे हैं और बच्चों को भी मजबूर कर रहे हैं । आखिर भाषा के अत्याचार से होने वाली आत्महत्याओं की घटनाओं तक से हम क्यों सबक नहीं ले रहे । न जाने कितने मामलों में हमारे बुद्धिजीवी, पत्रकार संविधान की दुहाई देते हैं । यहां तो संविधान में भी वही भाषा है जो इन राज्यों की । तो फिर कोई अपनी भाषा के लिए आंदोलन क्यों नहीं खड़ा हो रहा । लगता है हिन्दी पट्टी के ये राज्य सवर्णों से लेकर सामाजिक न्याय के स्वघोषित पहरूओं तक, यदि सफल हैं तो सिर्फ राजनैतिक सत्ता हथियाने, हड़पने के खेल में । सामाजिक परिवर्तन या उसकी किसी परेशानी से इनका दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं । हिन्दी लेखक एक परजीवी की तरह इन के पीछ-पीछे चिमटा बजाता चलता है ।
हाल ही में आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री जुलिया गिलार्ड ने घोषणा की है कि आस्ट्रेलिया हिन्दी और चीनी भाषाओं को पढ़ने-पढ़ाने के विशेष इंतजाम करेगा । कारण आस्ट्रेलियाई सरकार का मानना है कि 2025 तक लगभग एक तिहाई आबादी इन भाषाओं को बोलने वालों की होगी । समाज और शिक्षा के संबंध ऐसी ही दूरदर्शिता से हल होते हैं । अंग्रेजी सीखने के प्रति कोई एतराज नहीं है । एतराज है जब उसको शिक्षा में इस रूप में लादा जाए कि बच्चों की रचनात्मकता ही खत्म हो जाए और वे अवसाद में जाने लगें । जब कपिल देव जैसे खिलाड़ी भी भाषा के दबाव में अवसाद के करीब पहुंचा दिये गये हों तो आम आदमी की तकलीफ की कल्पना कर सकते हैं । ऐसी खबरों की कोई कमी नहीं है जहां अच्छे पढ़े-लिखे स्नातकोतर मां-बाप इसलिए अंग्रेजी सीख रहे हैं कि अंग्रेजी न जानने की वजह से निजी स्कूल उनके बच्चों को दाखिला नहीं दे रहे । इस प्रक्रिया में वे हीन भावना का शिकार हो रहे हैं । याद रखिए अभी भले ही भाषा का ये प्रश्न अंदर ही अंदर लोगों को परेशान कर रहा हो, लेकिन यदि ये मुद्दे कल सामूहिक गुस्से का रूप लेकर हिंसा में तब्दील हो जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं । याद रखिए भाषा के मसलों ने दुनिया के कई देशों पाकिस्तान, बांग्लादेश को अलग-अलग किया है ।
सुनते हैं कि विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सी.एस.डी.एस) जो अपनी स्थापना के 50 वर्ष 2013 के शुरू में पूरा कर रहा है उसकी भावी योजनाओं में हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में समाज विज्ञान, योजनाओं की परियोजनाएं भी शामिल हैं । काश ! ऐसा हो जाए । और जितना जल्दी हो उतना ही अच्छा । भारतीय भाषाओं के लिए नहीं भारतीय लोकतंत्र के लिए भी यह बहुत बड़ी उपलब्धि होगी ।
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