शिक्षा, स्वास्थ्य, कानून व्यवस्था किसी भी राष्ट्र, राज्य की बुनियादी जिम्मेदारी है । संविधान की शुरूआत भी ऐसी ही प्रतिज्ञाओं से होती है और उसकी समग्र आत्मा भी यही है । लेकिन धीरे-धीरे सभी समतावादी, समाजवादी बुनियादों को नष्ट किया जा रहा है । आजादी के बाद के शुरूआती दशकों में निश्चित रूप से हम समान शिक्षा और स्वास्थ्य के प्रति सजग थे । लेकिन पिछले बीस वर्षों के उदारीकरण ने न सरकारी अस्पतालों को कहीं का छोड़ा और न शिक्षा को । पिछले दस वर्ष का समय तो शिक्षा के निजीकरण का ही माना जा सकता है । पता नहीं सरकार के ऊपर किन देशों के दबाव हैं कि पिछले सात-आठ वर्षों में वह शिक्षा के नाम पर रोज एक बिल, अधिनियम या सुझाव लाती रही है और इसके बावजूद भी रोज ऐसे आंकड़े भी जिसे देखकर यह कहा जा सकता है कि जितना बदलने की कोशिश हुई चीजें वैसी ही बनी रहीं बल्कि और खराब हुई हैं ।
संक्षेप में कहा जाए तो पहला काम सत्ता व्यवस्था यह कर रही है कि सरकारी स्कूलों, विश्वविद्यालयों को इतना बदनाम कर दो कि गरीब से गरीब भी उधर मुड़कर न देखें । कौन अपने नन्हें मुन्ने या अपनी पीढ़ी को शिक्षित या बेहतर भविष्य के बारे में नहीं सोचता ? लेकिन यदि खुद सरकार भी सरकार स्कूलों के बारे में ऐसी राय बनाए ऐसा दुश्प्रचार करें तो कौन वहां दाखिला लेगा । यह कैसे किया जा रहा है आइये कुछ कदमों की जांच करते हैं :
चारों तरफ मीडिया में पहले शोर मचाया जाता है कि बच्चे परीक्षा, बस्ते के बोझ की वजह से तनाव में हैं । जब तब इस तनाव की बातें की जाती हैं और फिर सुझाव आता है कि परीक्षा ही इसकी जड़ में हैं इसलिए बिना परीक्षा के ही बच्चों को अगली क्लास में भेजा जाए । प्राइमरी से शुरू हुआ यह खेल अब दसवीं तक लागू है । अब उन बच्चों की पढ़ाई पर इस निर्णय का असर देखिए । जो पढ़े लिखे माता पिता हैं, जिनके पास ट्यूशन और कोचिंग के लिए पैसा है उनके बच्चे क्लास में टेस्ट नहीं देंगे तो कहीं और देंगे अत: उनकी पढ़ाई पर इस निर्णय से कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ेगा लेकिन गरीब, दलित, कामगार मजदूर, किसान जो खुद पढ़े लिखे नहीं हैं वे अपने बच्चों को कैसे शिक्षा देंगे । सरकारी स्कूलों के ऐसे बच्चों को शिक्षक भी ठीक नहीं कर पा रहा । जब परीक्षा ही नहीं तो क्यों पढ़े ? निश्चित रूप से एक अच्छी शिक्षा का आदर्श परीक्षा नहीं है । लेकिन ऐसे आदर्श एक आदर्श समाज में ही संभव हैं । नतीजा बिना चीजों को जाने-समझें बच्चे दसवीं तक पहुंच रहे हैं । लेकिन ठीक इसी वक्त तंत्र का एक हिस्सा प्रथम जैसी संस्था से आंकडें और सर्वेक्षण के आधार पर यह कहलवाता है कि सरकारी स्कूलों के आठवीं क्लास का बच्चा पांचवीं क्लास के गणित के सवाल भी हल नहीं कर सकता है । या पांचवीं का बच्चा दूसरी क्लास की अंग्रेजी नहीं जानता । यानि कि एक तरफ तो पहले उससे कहा गया कि परीक्षा जरूरी नहीं तो फिर प्रथम को परीक्षा लेने के लिए किसने कहा । यह सब सरकारी स्कूलों को जनता की नजरों में गिराने का षड़यंत्र है । इतना ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक ओर ऐसी प्रतियोगिता में भारतीय स्कूलों को शामिल किया गया जिसमें भारतीय स्कूलों का स्थान चीन और एशिया के सभी देशों के मुकाबले सबसे फिसड्डी रहा । सबका मकसद यही कि सरकार स्कूल नहीं चला सकती । इसलिए सरकार को शिक्षा निजी हाथों में सौंप देनी चाहिए । धीरे-धीरे सरकारी स्कूल बंद हो रहे हैं और प्राइवेट स्कूल, कॉलिजों की बाढ़ आयी हुई है ।
दूसरी बात – बस्ते के बोझ और परीक्षा के तनाव की बात तो बार-बार की जाती है विदेशी भाषा के बोझ की नहीं । क्या कोई ऐसा सरकारी गैर सरकारी सर्वेक्षण हुआ है जो अंग्रेजी के आतंक का बयान कर सके । अस्सी प्रतिशत शिक्षा का तनाव भारतीय बच्चों में अंग्रेजी या विदेशी भाषा है लेकिन इस पक्ष पर एक भयानक चुप्पी है । पिछले महीने एम्स में डॉक्टरी के छात्र अनिल मीना की आत्महत्या में भी यह बात सामने आयी है कि अंग्रेजी न समझ पाने से छात्र परेशान रहता था । अपनी भाषा से पले बढ़े हर मेधावी नौजवान को विदेशी भाषा का बोझ तनाव ग्रस्त बनाये हुए है । इसके पीछे भी एक तिकड़म यह है कि सरकारी स्कूल बंद होने पर ही अंग्रेजी को फलने-फूलने का पूरा आसमान मिलेगा । क्या है निजी स्कूलों में सिवाय अंग्रेजी और बड़ी-चड़ी फीस या लूट के दूसरे धंधों के ? निजी स्कूलों में एन.सी.ई.आर.टी. की किताब तक नहीं पढ़ाई जाती । मनमर्जी किताबें, मनमर्जी धर्म की शिक्षा । क्या ऐसी शिक्षा और पाठयक्रम से धर्मनिरपेक्ष नागरिक पैदा हो सकते हैं ?
तीसरा पक्ष : निजीकरण की रफ्तार शिक्षा में कैसे बढ़ाई जाए ? छठे पे कमीशन में इसका और एक नुस्खा खोजा गया । हर सरकारी कर्मचारी के बच्चे की शिक्षा के लिए एक हजार रुपये और होस्टल में रहने के खर्च की व्यवस्था है । सरकारी कर्मचारी को और चाहिए भी क्या । जब पैसा मिल रहा है तो निजी स्कूलों में क्यों नहीं भेजूं ? शिक्षा का स्तर क्या है, कैसा है इस बात से सरकारी कर्मचारी को कोई मतलब नहीं उसे तो अपने विभाग से पैसे वसूलने हैं । नतीजा सरकारी स्कूलों में सरकारी कर्मचारियों के बच्चे भी नहीं बचे । बताते हैं कि पहले रेलवे विभाग में पांच सौ से अधिक स्कूल थे जो पिछले पांच वर्षों में घटकर दो सौ के आस-पास रह गये हैं । सभी राज्यों के सरकारी स्कूलों की कहानी ऐसी ही है । जहां लगभग नब्बे प्रतिशत बच्चे समान सरकारी शिक्षा साठ और सत्तर के दशक में पा रहे थे अब मुश्किल से पचास प्रतिशत बचे हैं । निजीकरण ऐसे ही बढ़ता रहा तो शिक्षा सरकार के हाथ से पूरी तरह निकल जाएगी ।
चौथी बात : स्कूली शिक्षा निजी हाथों की तरफ बढ़ रही है तो विश्वविद्यालयी शिक्षा के लिए भी विदेशी विश्वविद्यालयों को देश में ही लाने की कोशिश जारी है । बड़े भोलेपन से यह कहते हुए कि जब ऑक्सफोर्ड और हार्वर्ड या कैम्ब्रिज की वही डिग्री हिन्दुस्तान में ही मिल सकती है और सस्ते में तो विदेशी विश्वविद्यालय क्यों न खोले जाएं ? कोई भी यह प्रश्न नहीं उठा रहा है कि इलाहाबाद, दिल्ली, कलकत्ता जैसे दर्जनों विश्वविद्यालयों को क्यों नहीं ठीक किया जा सकता ? इन देशी विश्वविद्यालयों के पास भव्य इमारतें हैं, प्रांगण हैं, खेल के मैदान हैं, प्रयोगशालाओं की विरासत है । लेकिन नहीं । यहां तो मामला सब कुछ विदेशियों के लिए तैयार किया जा रहा है । पांचवां वेतन आयोग यदि विदेशी कारों को खरीदने के लिए लाया गया था तो छठा इसी मध्य वर्ग के पैसे को निकलवाकर बच्चों को विदेश में पढ़ाने के लिए । अपने स्कूलों, विश्वविद्यालयों के दिन-रात दुर्दशा के रोने-धोने का अंजाम यह हो रहा है कि हर वर्ष लगभग आठ से दस लाख बच्चे आस्ट्रेलिया, अमेरिका, इंग्लैंड, यूरोप में पढ़ रहे हैं । प्रतिवर्ष इस गरीब देश का कितना पैसा बाहर जा रहा है उसका अनुमान लगाना कठिन है ।
क्या शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ कोई भी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय पार्टी चिंतित है ? क्या किसी पार्टी के घोषणा पत्र में सरकारी स्कूल, समान शिक्षा अपनी भाषा पढ़ाने की कोई योजना है ?
सेवा संगठन की प्रसिद्ध समाज सेविका इला भट्ट का एक छोटा सा लेख अनसूया नाम की पत्रिका में छपा है । एक गरीब मॉं ने अपने बच्चे को अंग्रेजी स्कूल में होड़ा-होड़ी दाखिल करा दिया । लेकिन इतनी फीस कहां से आए । मजदूरी में पेट भी भरना मुश्किल था । उसने चुपके से पैसा उधार लिया लेकिन स्कूल की रोज-रोज बढ़ती फीस से एक तरफ कर्ज बढ़ता गया तो दूसरी तरफ साहूकार के तकाजे । हताश पति-पत्नी ने आत्महत्या कर ली । ऐसे मामले पूरे देश में बढ़ रहे हैं ।
काश सरकार नरेगा या दूसरी योजनाओं में पैसा बांटने के साथ-साथ सरकारी स्कूलों विश्वविद्यालयों की तरफ भी ध्यान दे पाती ।
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